Category Archives: संशोधनवाद

वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद : नेपाल किस ओर?

बहुत सारे भावुकतावादी कम्युनिस्टों में संशोधनवादी वाम गठबन्धन की भारी जीत से यदि कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पैदा हो गयी हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि मिथ्या उम्मीद नाउम्मीदी से भी बुरी चीज़ होती है। एक अच्छी बात यह है कि संघर्षों में तपी-मंजी नेपाल की कम्युनिस्ट कतारों का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस बात को समझता जा रहा है और आने वाले दिनों में इसे वह और बेहतर तरीके से तथा और तेज़ी से समझेगा।

भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन पर दो विचारोत्तेजक व्याख्यान

नक्सलबाड़ी का जन-उभार भारत में क्रान्तिकारी वामपन्थ की नयी शुरुआत और संशोधनवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद की एक प्रतीक घटना सिद्ध हुआ। इसने मज़दूर-किसान जनता के सामने राज्यसत्ता के प्रश्न को एक बार फिर केन्द्रीय प्रश्न बना दिया। तेलंगाना-तेभागा-पुनप्रा वायलार और नौसेना विद्रोह के दिनों के बाद, एक बार फिर देशव्यापी स्तर पर जनसमुदाय की क्रान्तिकारी ऊर्जा और पहलक़दमी निर्बन्ध हुई, लेकिन ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद के विचारधारात्मक विचलन और विरासत के तौर पर प्राप्त विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण भारतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना एवं राज्यसत्ता की प्रकृति की ग़लत समझ और उस आधार पर निर्धारित क्रान्ति की ग़लत रणनीति एवं आम रणकौशल के परिणामस्वरूप यह धारा आगे बढ़ने के बजाय गतिरोध और विघटन का शिकार हो गयी।

पूँजीवादी मुनाफे का चक्का जाम करने के लिए मज़दूरों को अपनी एकता को मज़बूत कर लम्बी लड़ाई लड़नी होगी!

असल में एकदिनी हड़तालें करना इन तमाम यूनियनों के अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसा करने से उनके बारे में मज़दूरों का भ्रम भी थोड़ा बना रहता है और पूँजीपतियों की सेवा करने का काम भी ये यूनियनें आसानी से कर लेती हैं। यह एकदिनी हड़ताल कितनी कारगर है यह इसी बात से पता चलता है कि ऐसी हड़तालों के दिन आम तौर पर तमाम पूँजीपति और कई बार कुछ सरकारी विभाग तक खुद ही छुट्टी घोषित कर देते हैं। और कई इलाकों में मालिकों से इनकी यह सेटिंग हो चुकी होती है कि दोपहर तक ही हड़ताल रहेगी और उसके बाद फैक्ट्री चलेगी। गुड़गाँव में इस हड़ताल की “छुट्टी” के बदले इससे पहले वाले हफ्ते में ओवरटाइम काम करवा लिया जाता है। इसे रस्म नहीं कहा जाये तो क्या कहें?

हमें एक दिनी हड़तालों की रस्म से आगे बढ़ना होगा

एकदिनी हड़ताल करने वाली इन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से पूछा जाना चाहिए कि जब इनकी आका पार्टियां संसद-विधानसभा में मज़दूर-विरोधी क़ानून पारित करती हैं, तो उस समय ये चुप्पी मारकर क्यों बैठी रहती हैं? सीपीआई और सीपीएम जब सत्ता में रहती हैं तो खुद ही मज़दूरों के विरूद्ध नीतियां बनाती हैं, तो फिर इनसे जुडी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हकों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

नीमराना के ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की लड़ाई जारी है…

आपको यह जानकर हैरत होगी कि मज़दूरों के धरने पर बैठने के फ़ैसले पर सबसे ज़्यादा आपत्ति श्रम विभाग या कम्पनी प्रबन्धन को नहीं बल्कि एटक को है। श्रम विभाग में अधिकारियों से हर रोज़ घण्टों बैठक करके एटक का नेतृत्व धरने पर बैठे मज़दूरों के पास यह निष्कर्ष लेकर पहुँचता है कि यहाँ पर धरने पर बैठने से कुछ नहीं होगा घर जाओ…

चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है। इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।

संशोधनवादियों के संसदीय जड़वामनवाद (यानी संसदीय मार्ग से लोक जनवाद या समाजवाद लाने की सोच) के विरुद्ध लेनिन की कुछ उक्तियाँ

सिर्फ़ शोहदे और बेवकूफ़ लोग ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग के जुवे के नीचे, उजरती गुलामी के जुवे के नीचे, कराये गये चुनावों में बहुमत प्राप्त करना चाहिए, तथा सत्ता बाद में प्राप्त करनी चाहिए। यह बेवकूफी या पाखण्ड की इन्तहा है, यह वर्ग संघर्ष और क्रान्ति की जगह पुरानी व्यवस्था और पुरानी सत्ता के अधीन चुनाव को अपनाना है

माकपा की 21वीं कांग्रेस : संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद

माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी अपने साक्षात्कारों में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों को ठोस विश्लेषण करना सिखाता है।अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़़ी से इतिहास की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलों के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।

कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश

कोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।

रिको ऑटो मज़दूरों की कहानी!

मज़दूरों की इस वर्ग एकजुटता के आगे कम्पनी मैनेजमेण्ट को झुकना पड़ा। मृत मज़दूर अजीत यादव के घरवालों को सम्मानजनक मुआवज़ा मिला। हम मज़दूरों की 4 हज़ार रुपये वेतन में बढ़ोतरी हुई लेकिन साथ ही कम्पनी मैनेजमेण्ट ने मालिकों की तलवे चाटने वाली एक जेबी ट्रेड यूनियन गठित करा दी। और उसके बाद 2009 से आजतक लगभग 300 मज़दूरों को निकाला जा चुका है। ठेकेदार के मज़दूर व कैजुअल मज़दूरों की तो कोई गिनती ही नहीं होती। अब मालिक व मैनेजमेण्ट की नीति यह है कि हाईवे के किनारे की यह ज़मीन बिल्डरों के हाथों सोने के भाव बेच दी जाये। और स्थाई मज़दूरों की जगह पर ठेका मज़दूरों की फ़ौज को गुलामों की तरह खटाकर मुनाफ़ा पीटा जाये। जैसे आज पूरे ऑटो मोबाइल सेक्टर में किया जा रहा है।