Category Archives: संशोधनवाद

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मन्दी के बीच मज़दूरों के जीवन के हालात और संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की दलाली

मन्दी के हालात पर बात करते हुए पहले स्टील फ़ैक्ट्री में काम करने वाले बिगुल संवाददाता विष्णु ने बताया कि जहाँ ठण्डा रोला की फ़ैक्ट्री में एक कारीगर को 8 घण्टे काम करने के लिए तनख़्वाह 9000 रुपए मिलता था तो अब ज़्यादातर फ़ैक्ट्री में मालिक दिहाड़ी पर 8 घण्टे के 250 रुपए दे रहा है। आम तौर पर दिहाड़ी में 50 रुपए तक की कमी हुई है। यह बात न सिर्फ ठण्डा रोला फ़ैक्ट्री के लिए सच है बल्कि आम तौर पर पूरे सेक्टर में मन्दी की वजह से वेतन कम हुआ है। वज़ीरपुर से लेकर सब जगह यही हाल है। फ़ैक्ट्री मालिक किसी भी बात के बहाने से मज़दूर को काम से निकाल देता है और काम की असुरक्षा बढ़ गयी है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा की सफलता और संसदीय वाम राजनीति के कुकर्म

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता बहुत से लोगों को हैरान करने वाली लग सकती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बंगाल की राजनीतिक घटनाओं पर अगर नज़र डालें तो इसे समझा जा सकता है।

कम्पनी की लापरवाही से मज़दूर की मौत, सीटू नेताओं ने यहाँ भी की दलाली

बजाज संस लि. में रोज़ाना मज़दूरों के साथ हादसे होते हैं, ख़ासकर पावर प्रेस विभाग में। लेकिन सीटू नेता कभी इसके खि़लाफ़ आवाज़ नहीं उठाते। सीटू नेताओं ने मज़दूरों को पहले यह भी नहीं बताया था कि कुशलता के हिसाब से न्यूनतम वेतन का क्या क़ानूनी अधिकार है और मज़दूरों का कितना-कितना न्यूनतम वेतन बनता है। इन माँगों पर जब ‘बिगुल’ ने मज़दूरों को जगाया और मज़दूरों ने न्यूनतम वेतन और अन्य माँगों के लिए सीटू से अलग होकर संघर्ष शुरू किया तो सीटू नेताओं ने अपना आधार बचाने के लिए मैनेजमेण्ट को कहकर न्यूनतम वेतन लागू करवाया। मैनेजमेण्ट को भी डर था कि अगर मज़दूर जूझारू संघर्ष की राह चल पड़े और सीटू का आधार ख़त्म हो गया तो बहुत गम्भीर स्थिति हो जायेगी। इस तरह सीटू और मैनेजमेण्ट की मिलीभगत का बजाज संस लि. में लम्बा इतिहास है। जीतू की मौत के मामले में भी सीटू नेता दलाली खाने से बाज नहीं आये। बहुत से मज़दूर कहते हैं कि नहीं सोचा था कि सीटू नेता कम्पनी की दलाली करते-करते इतना नीचे गिर जायेंगे।

क्रान्तिकारी मार्क्सवाद से भयाक्रान्त चीन के नकली कम्युनिस्ट शासक

1976 में चीन में हुई पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद से ही वहाँ के शासक चीन में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और माओ की क्रान्तिकारी विरासत के पुनरुत्‍थान की सम्‍भावना से भयाक्रान्‍त रहे हैं। हाल के वर्षों में एक ओर चीन एक नयी साम्राज्‍यवादी शक्ति के रूप में उभर रहा है, दूसरी ओर चीन में दुनिया का सबसे विशाल औद्योगिक सर्वहारा वर्ग तैयार हुआ है जिसकी राजनीतिक चेतना और जुझारूपन लगातार बढ़ रहे हैं। बढ़ती ग़ैर-बराबरी, शोषण-दमन, ग़रीबी, बेरोज़गारी और अमीरों की कुत्सित ऐयाशियों के रूप में ”बाज़ार समाजवाद” की असलियत जैसे-जैसे लोगों के सामने आती जा रही है, वैसे-वैसे चीन के छात्रों-युवाओं में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद को जानने-समझने और उसे मज़दूरों के बीच लेकर जानने के प्रयासों में भी तेज़ी आ रही है। इस बात से चीन के नये शासक ख़ौफ़ज़दा हैं और ऐसी तमाम कोशिशों को कुचल देने पर आमादा हैं।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

संशोधनवादियों के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता!

कैडर के स्तर पर बहुत से इमानदार लोग भी कुटिल नेतृत्व द्वारा बहला-फुसला कर चेले मूंड लिए जाते हैं। भारत में फ़ासीवाद के चरित्र और इससे मुक़ाबले की “रणनीति” को लेकर सीपीआई (एम) में येचुरी धड़े और करात धड़े के बीच बहस है किन्तु भाजपा के प्रतिक्रियावादी-दक्षिणपन्थी होने पर तो सभी एकमत हैं ही तो फ़िर क्या कारण है कि “चीनी समाजवादी लोकगणराज्य” का राष्ट्रपति मोदी के साथ गलबहियाँ करता नज़र आ रहा है?! भारत में करोड़ों-अरबों के चीनी निवेश पर इनकी क्या राय है? संशोधनवादियों की ये फ़ितरत होती है कि वे नाम तो मार्क्स का लेते हैं किन्तु सत्तासीन होने के बाद नीतियाँ पूँजीवाद की ही आगे बढ़ाते हैं। भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं।

हरियाणा में नगर परिषद, नगर निगम, नगर पालिका के कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त

हड़ताल का नेतृत्व नगरपालिका कर्मचारी संघ, हरियाणा ने किया था जोकि जोकि सर्व कर्मचारी संघ, हरियाणा से सम्बन्ध रखता है। 16 दिन की हड़ताल का कुल परिणाम यह निकला की कर्मचारियों की तनख्वाह 11,700 से बढ़ाकर 13,500 कर दी गयी है। पक्का करने की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग और समान काम का समान वेतन देनें की माँग पर सरकार ने वही पुराना कमेटी बैठने का झुनझुना कर्मचारी नेताओं को थमा दिया जिसे लेकर वे अपने-अपने घर आ गये। इस चीज़ में कोई दोराय नहीं है कि फ़िलहाली तौर पर मिल रहे संघर्षों के हासिल को अपने पास रख लिया जाये और आगे के संघर्षों की तैयारी की जाये। किन्तु फ़िलहाल और लम्बे समय से देश सहित हरियाणा प्रदेश में भी मज़दूर-कर्मचारी आन्दोलनों में अर्थवाद पूरी तरह से हावी है।

त्रिपुरा चुनाव : चेत जाइए, जुझारू बनिए, नहीं तो बिला जायेंगे!

लेकिन संसदीय वामपंथी और उदारवादी लोग शायद अब भी इस मुग़ालते में जी रहे हैं कि सूफि़याना कलाम सुनाकर, गंगा-जमनी तहजीब की दुहाई देकर, मोमबत्ती जुलूस निकालकर, ज्ञापन-प्रतिवेदन देकर, क़ानून और “पवित्र” संविधान की दुहाई देकर, तराजू के “सेक्युलर” पलड़े और फ़ासिस्ट पलड़े के बीच कूदते रहने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों और नरम केसरिया लाइन वाली कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर और चुनाव जीतकर फ़ासिस्टों के क़हर से निजात पा लेंगे। ये लोग भला कब चेतेंगे?

त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे और संसदीय वाम का संकट

त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ मीडिया में जो ख़बरें आती थीं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना किसी गम्भीर चुनौती के साफ़-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे में वामपन्थी लोग जो कुछ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त न के बराबर होती थी। इसीलिए वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगों को काफ़ी सदमा लगा। त्रिपुरी समाज के अन्तर्विरोधों की ज़मीनी सच्चाइयों को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामों को ठीक से नहीं समझा जा सकता, पर उनकी चर्चा से पहले कुछ और ग़ौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना देना चाहते हैं।

हरियाणा में आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों का आन्दोलन : सीटू और अन्य संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की इसमें भागीदारी या फिर इस आन्दोलन से गद्दारी?!

12 फ़रवरी से हड़ताल पर बैठी हरियाणा की आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों की माँग थी कि उनका मानदेय बढ़ाया जाये और उन्हें कर्मचारी का दर्ज़ा दिया जाये। समेकित बाल विकास विभाग और आँगनवाड़ी की देशभर में खस्ता हालत से शायद ही कोई अनजान होगा। हरियाणा की आँगनवाड़ी भी अव्यवस्था से अछूती नहीं है। आँगनवाड़ियों में खाने की गुणवत्ता का निम्न स्तर, राशन की आपूर्ति में देरी के साथ-साथ तमाम समस्याएँ सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करती हैं। आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों पर काम का दबाव निश्चय ही योजना को प्रभावित करता है।