Category Archives: शिक्षा और रोज़गार

बेरोज़गारी की विकराल स्थिति

आज हमारे देश में बेरोज़गारी की जो हालत है, वह कई मायने में अभूतपूर्व है। मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों की क़ीमत देश की मेहनतकश जनता कमरतोड़ महँगाई और विकराल बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। इन दोनों का नतीजा है कि हमारे देश में विशेष तौर पर पिछले आठ वर्षों में ग़रीबी में भी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। हम मेहनतकश लोग जानते हैं कि जब भी बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी का क़हर बरपा होता है, तो उसका ख़ामियाज़ा भुगतने वाले सबसे पहले हम लोग ही होते हैं। क्योंकि पूँजीपति और अमीर वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस से पैदा होने वाले आर्थिक संकट का बोझ भी हमारे ऊपर ही डाल देते हैं।

आज़ादी का (अ)मृत महोत्सव : अडानियों-अम्बानियों की बढ़ती सम्पत्ति, आम जनता की बेहाल स्थिति

मेहनतकश साथियों, इस साल हमारा देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। हर बार की तरह मोदीजी फिर इस बार लाल क़िले पर चढ़कर लम्बे-लम्बे भाषण देंगे। बड़े-बड़े वायदे करेंगे, जो हर बार की तरह पूरे नहीं होने वाले। इसका कारण भी है क्योंकि मोदी जी के लिए देश का मतलब आम जनता नहीं बल्कि देश के पूँजीपति हैं, इसलिए धन्नासेठों से किये सारे वायदे पूरे होते हैं और जनता को दिये जाते हैं बस जुमले। इस बार ये सरकार आज़ादी का मृत महोत्सव, माफ़ कीजिएगा, “अमृत महोत्सव” मना रही है। पर सवाल है किसके लिए आज़ादी?

हरियाणा सरकार की चिराग योजना : प्राइवेट शिक्षा माफ़ियाओं को एक और तोहफ़ा

हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा चिराग योजना का ऐलान किया गया है जिसमें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के बच्चों (जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय 1.80 लाख से कम है), जो कक्षा दूसरी से बारहवीं तक के छात्र हैं, का सरकारी विद्यालयों से निजी मान्यता प्राप्त विद्यालयों में दाख़िला दिलवाने के लिए इस योजना के तहत वर्ष 2022-23 के लिए कुल 24987 सीटें तय की गयी हैं। इन निजी स्कूलों में सीटों के अनुसार सरकार द्वारा इन बच्चों के दाख़िले के बाद इन्हें सरकारी अनुदान देने का दावा किया गया है, वहीं 134ए के तहत ग़रीब बच्चों के प्राइवेट स्कूलों में दाख़िले के नियम को समाप्त कर दिया गया है।

शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना

फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।

बेरोज़गारी का गहराता संकट

बेरोज़गारी की समस्या साल दर साल विकराल रूप लेती जा रही है। स्थाई रोज़गार पाना तो जैसे शेख़चिल्ली के सपने जैसा हो गया है। देश में करोड़ों पढ़े-लिखे डिग्रीधारक युवा नौकरी ना मिलने के चलते अवसाद का शिकार हो रहे हैं। रोज़ ही नौजवानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। आज देश के नौजवानों के बीच रोज़गार सबसे ज्वलन्त मुद्दा है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों, दिल्ली व कोटा जैसे महानगरों में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे युवाओं, छोटे क़स्बों और गाँव तक में नौजवानों का बस एक ही लक्ष्य होता है कि किसी भी तरीक़े से कोई छोटी-मोटी सरकारी नौकरी मिल जाये ताकि उनकी और उनके परिवार की दाल-रोटी का काम चलता रहे। आप सभी अपने अनुभव से यह बात जानते ही हैं कि स्थायी नौकरियाँ साल दर साल कम हो रही हैं। एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों हज़ार आवेदन किये जाते हैं, पर नौकरी तो मुट्ठीभर लोगों को ही मिलती है। इस प्रकार हर साल लाखों क़ाबिल नौजवान बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल हो रहे हैं और सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा उन्हें कोई दूसरा विकल्प नही दिखाई पड़ता।

मेहनतकश और युवा आबादी पर टूटता बेरोज़गारी का क़हर

1990 के दशक में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही बेरोज़गारी का संकट भयंकर होता जा रहा है। फ़ासिस्टों के “अच्छे दिन” और “रामराज्य” में बेरोज़गारी सुरसा की तरह मुँह खोले नौजवानों को लीलती जा रही है। इलाहाबाद, पटना, कोटा, जयपुर जैसे शहर छात्रों-युवाओं के लिए क़ब्रगाह बन चुके हैं। हालात इतने बदतर हो चले हैं कि अकेले अप्रैल के महीने में इलाहाबाद में लगभग 35 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ 2019 की तुलना में 2020 में 18-45 साल की उम्र के युवाओं की आत्महत्या में 33 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ है, जोकि 2018 से 2019 के बीच 4 फ़ीसदी था। ये महज़ आँकड़े नहीं हैं बल्कि देश की जीती-जागती तस्वीर है। ये आत्महत्याएँ नहीं, बल्कि मानवद्रोही मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों की गयी निर्मम हत्याएँ हैं।

हरियाणा में राजकीय मॉडल संस्कृति स्कूल का मतलब शिक्षा का और बाज़ारीकरण

पिछले दिनों हरियाणा में खट्टर सरकार ने शिक्षा के बाज़ारीकरण के लिए एक और क़दम उठाया।
ज्ञात हो कि हरियाणा प्रदेश में लगभग 1000 से ज़्यादा प्राथमिक स्कूलों को मॉडल संस्कृति स्कूल में बदलने का फ़ैसला लिया गया था। इस वर्ष से मॉडल संस्कृति स्कूल में छात्रों से एडमिशन फ़ीस 500 रुपये व हर माह 200 रुपये फ़ीस का प्रावधान किया गया है जो सीधे तौर पर ‘शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009’ के तहत मिलने वाली मुफ़्त शिक्षा के अधिकार का उल्लघंन है। हम जानते हैं कि ‘शिक्षा अधिकार अधिनियम-2009’ की धारा (3) में 6-14 वर्ष की उम्र के प्रत्येक बच्चे को अपने पड़ोस के स्कूल (नेबरहुड स्कूल) में निशुल्क व अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा पाने का पूरा अधिकार है। साथ ही धारा (6) में भी स्पष्ट किया गया है कि कक्षा 1-5 तक के लिए 1 किलोमीटर के दायरे में स्कूल स्थापित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।

उपराष्ट्रपति महोदय, हम बताते हैं कि “शिक्षा के भगवाकरण में ग़लत क्या है”!

हाल ही में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि शिक्षा के भगवाकरण में बुरा क्या है और लोगों को अपनी औपनिवेशिक मानसिकता छोड़कर शिक्षा के भगवाकरण को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन सच्चाई तो यह है कि सारे भगवाधारी उपनिवेशवादियों के चरण धो-धोकर सबसे निष्ठा के साथ पी रहे थे और इनके नेता और विचारक अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों के बारे में मुख़बिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे। इसलिए अगर औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ने की ही बात है, तो साथ में भगवाकरण भी छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भगवाकरण करने वाली ताक़तें तो अंग्रेज़ों की गोद में बैठी हुई थीं और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई तक में अंग्रेज़ों के एजेण्टों का ही काम किया था।

शान्तिश्री धुलिपुड़ी पण्डित की नियुक्ति, यानी जेएनयू पर आरएसएस-भाजपा का हमला जारी रहेगा!

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।

बेरोज़गारी के भयंकर होते हालात और रेलवे के अभ्यर्थी छात्रों का आन्दोलन

बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में रेलवे के एन.टी.पी.सी. के अभ्यार्थी आन्दोलनरत हैं। ज्ञात हो 24 जनवरी को बिहार के पटना, आरा व दरभंगा ज़िले में हज़ारों छात्रों ने बड़े स्तर पर रेल रोको आन्दोलन किया। उसके बाद से यह आन्दोलन अन्य राज्यों में भी फैल गया! लेकिन चूँकि मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश के ही छात्रों ने एन.टी.पी.सी. का फ़ॉर्म भरा था, तो ख़ासकर इन राज्यों में छात्रों का आन्दोलन उग्र होता गया। 24 जनवरी को राजेन्द्र नगर टर्मिनल पर और आरा स्टेशन पर क़रीब 7 घण्टे तक छात्रों ने रेलवे को जाम कर दिया।