पाठ्यक्रमों में बदलाव और इतिहास का विकृतिकरण करना फ़ासीवादी एजेण्डा है!

नीशू

हाल ही में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने कक्षा 7 की किताब से मुगल और दिल्ली सल्तनत से सम्बन्धित अध्याय हटा दिये हैं। इसकी जगह पर महाकुम्भ, चार धाम यात्रा, प्राचीन भारतीय राजवंश, ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ जैसी सरकारी योजनाएँ और ‘पवित्र भूगोल’ जैसे कुछ नये अध्याय शामिल किये गये हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में यह बदलाव “आलोचनात्मक” सोच और ऐतिहासिक प्रासंगिकता को प्राथमिकता देने के नाम पर किया गया है! वास्तव में यह पूरी क़वायद पाठयक्रम से तमाम महत्वपूर्ण हिस्सों को निकाल कर संघी विचारधारा को पोषित करने वाले अध्यायों को जोड़ने की साज़िश के तहत किया जा रहा है। यह समाज का साम्प्रदायिकीकरण करने और नये मस्तिष्कहीन संघी कारकून तैयार करने की दिशा में बढ़ा हुआ क़दम है। जब लोगों को उनके इतिहास के बारे में सही बोध से वंचित किया जाता है, तभी उनके बीच से उन्मादी फ़ासीवादी भीड़ पैदा की जा सकती है और ऐसी भीड़ तैयार करना ही फ़ासीवादी मोदी सरकार का मक़सद है।

पाठ्यक्रम में बदलाव कोई पहली बार नहीं किया गया है। मोदी सरकार के पिछले 11 सालों में शिक्षा तन्त्र में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जो भी बचे-खुचे उदाहरण हैं, उन पर व्यवस्थित हमला जारी है। इतिहास गवाह है कि फ़ासिस्टों की सबसे ज़्यादा दुश्मनी जनता की वैज्ञानिक सोच, तार्किकता और इतिहास की सही जानकारी से है। इनका पूरा अस्तित्व ही झूठ, अवैज्ञानिक अतार्किक प्रचार के दम पर टिका होता है। इसलिए फ़ासिस्ट हर उस चीज़ को ख़त्म कर देना चाहते हैं जो उनके अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा करती हो। स्कूल के पाठ्यक्रमों में बदलाव इसी की एक बानगी है। भाजपा और संघ परिवार द्वारा विज्ञान, इतिहास, हिन्दी आदि विषयों को या तो बदला या फिर तोड़ मरोड़कर पेश किया जा रहा है।

पिछले दिनों बच्चों की पढ़ाई का बोझ कम करने के नाम पर, विज्ञान में डार्विन के विकासवाद से लेकर आवर्त सारणी (पीरियॉडिक टेबल), पाइथागोरस प्रमेय को माध्यमिक कक्षाओं से हटा दिया गया। जबकि राजस्थान में आसाराम बापू जैसे बलात्कारी अपराधी बाबा को महान सन्त बताकर पढ़ाया जा रहा है! इतिहास विषय से 2023 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस, 1975 की इमरजेंसी और 2002 के गुजरात दंगों के सन्दर्भ या तो हटा दिये गये या फिर दुबारा से लिखे गये। कोरोना महामारी के दौरान 2022-23 में पहले मुगल और दिल्ली सल्तनत पर आधारित हिस्सों की कटौती की गयी। अब पूरी तरह हटा कर संघियों ने एक तरह से इतिहास के पुनर्लेखन की परम्परा शुरू की है, ताकि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को गल्पकथाओं और मिथकों से भरा जा सके और इतिहास के जो अध्याय फ़ासीवादियों की आँखों में चुभते हैं, उन्हें हटाया जा सके। वास्तव में यह काम इनके फ़ासीवादी एजेण्डे में काफ़ी पहले से था। इसकी शुरुआत 1964 में पीएन ओक के नेतृत्व में राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन संस्थान से कर दी थी।

पाठ्यक्रम में इस बार क्या बदलाव हुए हैं, इन्हें जान लेना ज़रूरी है। हालिया हुए बदलाव में सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक एक्सप्लोरिंग सोसाइटी : इण्डिया एण्ड बिऑण्ड (भाग 1) में दिल्ली सल्तनत और मुगल शासक की जगह छात्रों को अब मौर्य, शुंग और सातवाहन शासकों को पढ़ाया जायेगा। यह बात दीगर है  इसके साथ ही ‘हाऊ द लैण्ड बिकम सेक्रेड’ नाम से नया अध्याय जोड़ा गया है जिसमें देश के पवित्र स्थान और तीर्थ यात्राओं का ज़िक्र है जिसमें 12 ज्योतिर्लिंग चार धाम यात्रा और शक्तिपीठों के बारे में बताया गया है। इनमें से एक अध्याय में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (प्रयागराज) में इस बार लगे कुम्भ मेले के बारे बताया गया है, जिसमें भाजपाइयों के प्रचार के अनुसार 66 करोड़ लोगों ने भाग लिया! यह अलग बात है कि उसी कुम्भ में आम जनता की सुविधाओं को नज़रन्दाज़ करने से मची भगदड़ में हज़ारों लोग मौत के मुँह चले गये। इस पर चुप्पी साध ली गयी। सबसे अहम बात यह है कि स्कूलों और कॉलेजों का काम सच्चाई के साथ वस्तुगत इतिहास पढ़ाना है। सच्चे इतिहास को जानने वाला देश ही अपना भविष्य सुन्दर बना सकता है। लेकिन फ़ासीवादियों का लक्ष्य इसके बिल्कुल विपरीत है। उन्हें देश को मज़दूरों, मेहनतकशों, आम ग़रीब दलितों व स्त्रियों के लिए यातनागृह बनाना है, जिसमें लोग अडानी-अम्बानी जैसों के लिए दासों की तरह खटें। तो फिर भाजपाई सही इतिहास क्यों बतायेंगे? ये क्यों बतायेंगे कि ख़ुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा और तमाम भावी भाजपाई नेताओं का इतिहास देश की आज़ादी के आन्दोलन से ग़द्दारी करने, स्वतन्त्रता सेनानियों के बारे में मुखबिरी करने और अंग्रेज़ों के नाम माफ़ीनामे लिखने का इतिहास है? ये क्यों बतायेंगे कि न तो पुष्यमित्र शुंग का साम्राज्य हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना का बीड़ा उठाये था और न ही मौर्य वंश के राजाओं ने ऐसा कोई लक्ष्य चुना था। सातवाहन शासकों ने भी जितना प्रश्रय ब्राह्मणों को दिया था, उतना ही प्रश्रय बौद्ध धर्म को भी दिया था, जिनके धार्मिक स्थल अमरावती, नासिक, कर्ले और कन्हेरी में इनके शासनकाल में ही पनपे। इन सभी राज्यवंशों के लिए राजनीतिक सवाल यानी सत्ता का सवाल प्रमुख था और इसलिए राजनीतिक हितों के मद्देनज़र इन्होंने अलग-अलग धार्मिक समुदायों के सन्तों आदि को प्रश्रय दिया। लेकिन आज उनकी छवि हिन्दूवादी जैसी बनाने की कोशिश की जा रही है, जबकि उस समय “हिन्दू” शब्द भी मौजूद नहीं था! यह शब्द तो फ़ारसी से आया था जिस भाषा में सिन्धु नदी के पार रहने वालों को ‘हिन्दू’ कहा गया था! लेकिन भाजपाई और संघी हाफ़पैण्टिये इतिहास को मनगढ़न्त गल्पकथा बनाने में लगे हैं, ताकि देश के लोगों को मूर्ख बनाया जा सके।

इतिहास अब कोई विषय नहीं बल्कि भाजपा का चुनावी घोषणापत्र हो गया है जिसमें छात्रों को ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’, अटल टनल और ‘मेक इन इण्डिया’ जैसी योजनाओं के बारे में बताया जायेगा तो यहाँ सवाल यह उठता है कि ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ जैसे जुमलों के नाम पर वाहवाही बटोरने वाली भाजपा सरकार कुलदीप सिंह सेंगर, ब्रजभूषण शरण सिंह और प्रज्ज्वल रेवन्ना जैसे बलात्कारी भाजपाई नेताओं के बारे में भी कोर्स में पढ़ायेगी? पाठ्यक्रम में यह बदलाव केवल स्कूली शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे विश्वविद्यालय के स्तर पर भी लागू किया जा रहा है। इसी क्रम में गोरखपुर विश्वविद्यालय के एम.ए. हिन्दी के चौथे समेस्टर के पाठ्यक्रम में लोकप्रिय साहित्य का एक पेपर तैयार किया गया है जिसमें इब्ने सफ़ी, गुलशन नन्दा, वेदप्रकाश शर्मा का ‘वर्दी वाला गुण्डा’ और हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला’ को शामिल किया गया है। इस लुगदी साहित्य को पढ़कर कोई छात्र कितना साहित्यिक और तार्किक होगा इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। 

एनसीईआरटी ने यह बदलाव नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP) और नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन (NCFSE) 2023 के अनुसार किये हैं। इसमें “भारतीय परम्पराओं और ज्ञान प्रणालियों” पर ज़ोर देने की बात की गयी है। यहाँ पर भी प्रश्न यह है कि क्या छात्रों को लोकायत, सांख्य, न्याय और वैशेषिक जैसे दर्शन पढ़ाये जायेंगे जो तर्क करने की बात करते थे, अन्धविश्वासों को नकारते थे और प्रमाण को सत्य परखने का एकमात्र तरीक़ा मानते थे? क्या उन्हें आजीविकों के बारे में भी पढ़ाया जायेगा, चार्वाक के बारे में भी पढ़ाया जायेगा जो किसी पराभौतिक सत्ता या ईश्वर में यक़ीन नहीं करते थे? ये भी तो प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और दर्शन हैं! लेकिन हमारे अतीत से भी हमें सभी अन्धविश्वासी, कुढ़मगज़ और प्रतिक्रियावादी विचारों को पढ़ाया जायेगा और उन्हें भी गल्पकथाओं की चाशनी में लपेटकर पेश किया जायेगा, न कि उनके बारे में सच्चा ज्ञान दिया जायेगा।

भारतीय फ़ासिस्टों का इतालवी और जर्मन फ़ासीवादियों से जुड़ाव रहा था, क्या यह भी छात्रों को बताया जायेगा? क्या छात्रों को यह सच बताया जायेगा कि भारतीय फ़ासिस्ट संघ और भाजपा हिटलर और मुसोलिनी के ही विचारधारात्मक वंशज हैं? ये अपने तमाम षड्यन्त्रों, युक्तियों और तौर-तरीक़ों को इतालवी फ़ासीवादियों और जर्मन नाज़ीवादियों से ही सीखते हैं, हालाँकि फ़ासीवादी नीचता में ये अब उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं। 1933 में एडॉल्फ हिटलर के सत्ता में आने के बाद , नाज़ियों ने जर्मन समाज का “पुनर्निर्माण” करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए नाज़ी तानाशाह सरकार ने जनता पर पूरा नियन्त्रण करने का प्रयास किया। हर संस्थान में नाज़ी विचारधारा का संचार किया गया और प्रमुख पदों पर नाज़ी कर्मियों की घुसपैठ की गयी। स्कूल भी अपवाद नहीं थे। सार्वजनिक ज्ञान और प्रचार मन्त्रालय ने अभिव्यक्ति के लगभग हर रूप पर नियन्त्रण किया – रेडियो, थियेटर, सिनेमा, ललित कला, प्रेस, चर्च और स्कूल। स्कूलों पर नियन्त्रण मार्च 1933 में पहले शैक्षिक आदेश के जारी होने के साथ शुरू हुआ, जिसमें कहा गया था कि “जर्मन संस्कृति का पूरी तरह से ख़्याल रखा जाना चाहिए।” अब इसकी तुलना हम अपने देश के फ़ासीवादियों से करें तो देखते हैं कि यही हमारे देश के तथाकथित भारतीय संस्कृति के ठेकेदार भी कह और कर रहे हैं, हालाँकि इसके लिए हमारे देश के फ़ासीवादी कहीं ज़्यादा चतुराई से काम कर रहे हैं।

हिटलर की नाज़ी सरकार ने युवाओं के दिमाग़ को नियन्त्रित करने के लिए अन्य तरीक़ों के अलावा, स्कूली पाठ्यक्रम में नाज़ी मान्यताओं को शामिल किया था। जीवविज्ञान का एक बड़ा हिस्सा “नस्ल विज्ञान” बन गया, और स्वास्थ्य शिक्षा और शारीरिक प्रशिक्षण नस्ली तनाव से बच नहीं पाये। इसमें छात्रों को श्वेत व आर्य लोगों की महानता और श्रेष्ठता के बारे में बताया गया और सभी काले, भूरे आदि लोगों को हीन बताया गया। इस आधार पर जर्मनी के विश्वविजय के नाज़ी सपने के बीज बच्चों और युवाओं के दिमाग़ में डाले गये और  भूगोल भू-राजनीति बन गया , जिसमें पितृभूमि का अध्ययन मौलिक था।

पाठ्यक्रम में इस बदलाव के पीछे संघ और भाजपा सरकार का असल मक़सद हम सभी जानते हैं। जब तक यह सत्ता नहीं थे तब तक यह काम आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर,  विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा संचालित एकल अभियान और इलाक़ों में नियमित लगने वाली शाखाएँ बचपन से बच्चों के दिमाग़़ में ज़हर घोलने का काम करती रही हैं। लेकिन अब सत्ता में आने के बाद इन्होंने इसी काम को हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के माध्यम से करने की क़वायद तेज़ कर दी है।

इतिहास राजा रानी के क़िस्से नहीं होता, बल्कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। दुनिया में कहीं का इतिहास उठाकर देखें तो यही पता चलता है कि शासक वर्ग की तुलना में उत्पादन करने वाली  मेहनतकश आबादी की जीवन स्थितियाँ बदतर ही रही हैं। जब मेहनतकश जनता एकजुट होकर अपने शासक वर्ग के ख़िलाफ़ संघर्ष करती है तब समाज आगे बढ़ता है। अतीत कभी भी भविष्य से बेहतर नहीं होता। 

प्राक् इतिहास से लेकर आधुनिक इतिहास का मिथ्याकरण फ़ासीवाद की मुख्य अभिलाक्षणिकताओं में से एक होता है। इसके ज़रिये वह समाज की एक बड़ी आबादी को भ्रम में रखते हैं और किसी रामराज्य जैसे मिथकीय समाज का सपना दिखाते हैं। जहाँ सब चंगा था, दूध घी की नदियाँ बह रही थीं। (यहीं सवाल आता है कि क्या वह दूध घी की नदियाँ आम मेहनतकश आबादी के लिये बह रहीं थी।)

भारतीय फ़ासीवादियों का इतिहास को बदलने की एक वजह और है। वह है भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में इनकी ग़द्दारी। आज यह कितना भी ख़ुद को सबसे बड़ा देशभक्त होने के तमगे दे लें लेकिन सच्चाई से सब वाकिफ़ हैं कि आज़ादी की लड़ाई में इन्होंने एक ठेला तक नहीं उठाया उल्टे चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों की मुखबिरी की। वी डी सावरकर जैसे इनके नेताओं ने माफ़ीनामे लिखकर दिये।

यह इतिहास के बारे में एक खण्डित दृष्टिकोण विकसित करके  ऐतिहासिक तथ्यों और पौराणिक कथाओं के बीच मौजूद रेखा को धुँधला कर देना चाहते हैं। हिटलर ने जर्मनी के टुटपुँजिया वर्गों और मज़दूरों के एक हिस्से के लिए यहूदियों को एक काल्पनिक शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया था। जब लोग समस्या के असली कारणों को नहीं देख पाते तो उन्हें एक शत्रु की आवश्यकता होती है; वास्तविक या काल्पनिक। क्रान्तिकारी ताक़तें उन्हें असली शत्रु यानी पूँजीपति वर्ग से परिचित कराती हैं, और फ़ासीवादी ताक़तें असली शत्रु की रक्षा करने के लिए उनके सामने किसी काल्पनिक शत्रु को पेश करती हैं। इसके लिए अतीत के “गौरव”, कल्पित “सांस्कृतिक वैभव” का सहारा लिया जाता है; अफवाहों और मिथकों का सहारा लिया जाता है और राजनीतिक चेतना के अभाव से पीड़ित, पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी महँगाई, बेरोज़गारी, बेघरी, भूख से त्रस्त जनता इस लहर में बह चलती है। यही फ़ासीवाद की कार्यपद्धति है, इसी पर भारतीय फ़ासीवादी ताक़तें अमल कर रही हैं।

मेहनतकश अवाम को भी फ़ासीवादी ताक़तों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बाक़ी हिस्सों तक लेकर जाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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