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मौजूदा बजट में मनरेगा के लिए आवण्टन से मनरेगा मज़दूरों को सिर्फ 40 दिन ही काम मिलेगा।

मनरेगा बजट के लिए 86000 हजार करोड़ आबण्टित किये गये हैं जो वित्तीय वर्ष 2023-24 के मद 1,05,299 करोड़ रुपये के वास्तविक व्यय से 19,298 करोड़ रुपये कम है। वहीं कुल जीडीपी के प्रतिशत के रूप में वित्त वर्ष 24-25 के लिए आबण्टन केवल 0.26 प्रतिशत के आसपास है। इस बजट कटौती का सीधा अर्थ है मजदूरों के कार्यदिवस की कटौती।

क्रान्तिकारी मनरेगा यूनियन (हरियाणा) द्वारा सदस्यता कार्ड जारी किये गये और आगामी कार्य योजना बनायी गयी

कलायत, कैथल में मनरेगा के काम की जाँच-पड़ताल में पता चला है कि यहाँ किसी भी मज़दूर परिवार को पूरे 100 दिन का रोज़गार नहीं मिलता है, जैसा कि क़ानूनन उसे मनरेगा के तहत मिलना चाहिए। असल में सरकारी क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक मज़दूर परिवार को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी मिलना चाहिए। साथ ही क़ानूनन रोज़गार के आवदेन के 15 दिन के भीतर काम देने या काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है।

अम्बेडकरनगर के गाँवों के कारख़ानों में खटते मज़दूरों के हालात

कुछ समय पहले तक हमारे गाँवों में मिट्टी के बर्तनों को कुम्हार अपने परिवार वालों के साथ मिलकर चाक पर बनाया करते थे। अब आप जिन कुल्हड़ों में शहरों में, ढाबों पर चाय पीते हैं वह कुम्हार के चाक पर नहीं, बल्कि कारख़ानों में बने होते हैं। अम्बेडकरनगर के ग्रामीण इलाकों में भी ऐसे कई कारख़ाने खुल चुके हैं। लेकिन इन कारख़ानों में चाक की जगह उन्नत मशीनों पर काम करने के बावजूद लोगों का काम आसान होने के बजाय मुश्किल हो गया है क्योंकि मालिकों ने मशीनों का प्रयोग लोगों के काम को सरल बनाने के लिए नहीं बल्कि मुनाफ़ा कमाने के लिए किया है। पहले जब हाथों से चाक पर मिट्टी का बर्तन बनाया जाता था तो उत्पादन कम होता था। परन्तु मशीन का प्रयोग करने से उत्पादन ज़्यादा होता है जिससे मालिकों का मुनाफ़ा बढ़ता जाता है।

गाँव के ग़रीबों का हित किसके साथ है?

बात यह है कि किसान भी तरह-तरह के हैं: ऐसे भी किसान हैं, जो ग़रीब और भूखे हैं, और ऐसे भी हैं, जो धनी बनते जाते हैं। फलतः ऐसे धनी किसानों की गिनती बढ़ रही है, जिनका झुकाव ज़मींदारों की ओर है और जो मज़दूरों के विरुद्ध धनियों का पक्ष लेंगे। शहरी मज़दूरों के साथ एकता चाहने वाले गाँव के ग़रीबों को बहुत सावधानी से इस बात पर विचार करना और उसकी छानबीन करनी चाहिए कि इस तरह से धनी किसान कितने हैं, वे कितने मज़बूत हैं और उनकी ताक़त से लड़ने के लिए हमें किस तरह के संगठन की ज़रूरत है। अभी हमने किसानों के बुरे सलाहकारों का जि़क्र किया था। इन लोगों को यह कहने का बहुत शौक़ है कि किसानों के पास ऐसा संगठन पहले ही मौजूद है। वह है मिर या ग्राम-समुदाय। वे कहते हैं, ग्राम-समुदाय एक बड़ी ताक़त है। ग्राम-समुदाय बहुत मज़बूती के साथ किसानों को ऐक्यबद्ध करता है; ग्राम-समुदाय के रूप में किसानों का संगठन (अर्थात संघ, यूनियन) विशाल (मतलब कि बहुत बड़ा, असीम) है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (दूसरी किस्‍त) ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों की प्रमुख माँगें और उनकी अपनी यूनियन की ज़रूरत

खेतिहर और ग्रामीण मज़दूर अधिकांश मौकों पर न्यूनतम मज़दूरी से बेहद कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं। कई बार उन्हें मिलने वाली मज़दूरी उन्हें ज़िन्दा रखने के लिए भी मुश्किल से ही काफ़ी होती है। खेती के सेक्टर में जारी मन्दी के समय तो उनके लिए हालात और भी भयंकर हो गये हैं। आज देश के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी खेती में मन्दी के कारण मंझोले और धनी किसानों की दिक्कतों पर तो काफ़ी टेसू बहाते हैं, लेकिन उन खेतिहर और ग्रामीण मज़दूरों के बारे में कम ही शब्द ख़र्च करते हैं, जो तेज़ी और मन्दी दोनों के ही समय में ज्यादातर भुखमरी और कुपोषण में जीते रहते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में नरोदवाद की गहरी पकड़ की ओर इशारा करता है। बहरहाल, ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों के लिए जो दूसरी सबसे अहम माँग है वह है न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून की माँग। अभी ये मज़दूर पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों और धनी और मँझोले किसानों के भरोसे होते हैं। वे पूर्णतया अरक्षित हैं और उनके हितों की रक्षा के लिए कोई भी क़ानून मौजूद नहीं है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (पहली किस्‍त) सर्वहारा आबादी के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब हिस्से की माँगों के लिए नये सिरे से व्यवस्थित संघर्ष की ज़रूरत

भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह सबसे बड़ा हिस्सा सबसे ज्यादा ग़रीब, सबसे ज्यादा असंगठित, सबसे ज्यादा शोषित, सबसे ज्यादा दमन-उत्पीड़न झेलने वाला और सबसे अशिक्षित हिस्सा है। इस हिस्से को उसकी ठोस माँगों के तहत एकजुट और संगठित किये बिना भारत के मज़दूर अपनी क्रान्तिकारी राजनीति को देश के केन्द्र में स्थापित नहीं कर सकते हैं। सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बारी में लगा होता है और गाँवों में रहता है, वहाँ खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने का सवाल ज़रूरी बन जाता है

देहाती मज़दूर यूनियन द्वारा 8 दिन की क्रमिक भूख हड़ताल सफल

संघर्ष की इस छोटी-सी अवधि में ही मज़दूर संगठन का महत्त्व समझने लगे हैं। दूर-दराज के गाँवों से नरेगा के मज़दूर सम्पर्क कर रहे हैं और अपने यहाँ भी संगठन की शाखाएँ खोलने की माँग कर रहे हैं। क्रमिक अनशन में हुई जीत भले ही कितनी ही छोटी क्यों न हो, आज वह इस क्षेत्रा के मज़दूरों के लिए महत्त्वपूर्ण बन गयी है

मर्यादपुर में देहाती मज़दूर यूनियन एक बार फिर संघर्ष की तैयारी में

राशन कार्ड, मिट्टी के तेल एवं खाद्यान्नों के वितरण में धाँधली की जाँच कर पात्र व्यक्तियों को उचित राशन कार्ड व निर्धारित मात्र में अनाज और मिट्टी के तेल का वितरण सुनिश्चित कराया जाये, विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन व निर्बल आवास योजना की धाँधलियों की जाँच कर लोगों को योजना का लाभ दिलवाने के साथ ही इन तमाम धाँधालियों में लिप्त लेखपाल, सचिव को बर्खास्त किया जाये। इसके अलावा स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए डीप बोर हैण्ड पम्प लगाये जाये, बन्द पड़े जच्चा- बच्चा केंद्र को चालू कराया जाये, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोला जाये और सार्वजनिक उपयोग की भूमि को निजी कब्ज़े से आज़ाद कराया जाये। माँग-पत्रक में नाली-खड़ंजा-चकरोड की भू-अभिलेखों के अनुसार आम पैमाइश कराने की माँग भी शामिल थी जिससे ग्राम सभा में आये दिन होने वाले विवादों से छुटकारा मिल सके।