Category Archives: जाति प्रश्‍न

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उप वर्गीकरण – मेहनतकशों को आपस में बाँटने का एक नया हथकण्डा !!

सच्चाई यह है कि जब नवउदारवादी दौर में सरकारी नौकरियाँ ही नहीं हैं, तो किसी जाति को औपचारिक तौर पर कितना आरक्षण दिया जाता है, दलितों के आरक्षण के बीच में कितना और कैसा उपवर्गीकरण कर दिया जाता है, उससे इस समूचे वर्ग की नियति पर, उनके हालात पर कोई गुणात्मक फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। जब नौकरियों की पैदा होने की दर ही शून्य के निकट है और अगर उसे काम करने योग्य आबादी में होने वाली बढ़ोत्तरी के सापेक्ष रखें, तो नकारात्मक में है, तो फिर इन श्रेणीकरणों और वर्गीकरणों को आरक्षण की लागू नीति में घुसा देने से किसे क्या हासिल हो जायेगा? पूँजीवादी व्यवस्था में नगण्य होते अवसरों के लिए दलित मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय जनता में ही आपस में सिर-फुटौव्वल होगा, दलित जातियों के बीच ही आपस में विभाजन की रेखाएँ खिंच जायेंगी और इसका पूरा फ़ायदा देश के हुक़्मरान उठायेंगे।

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न और मण्डल कमीशन की राजनीति

भारतीय बुर्जुआ राजनीति में दो शब्दों, मण्डल और कमण्डल को अक्सर एक दूसरे के विलोम के तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन वास्तव में दोनों ही राजनीतिक धाराओं का यह अन्तर केवल सतही है, और वस्तुत: ये एक दूसरे के पूरक का काम करती हैं। पिछले 40 वर्षों के राजनीतिक इतिहास ने तो यही दर्शाया है कि दोनों ही धाराएँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज भारत में कमण्डल की राजनीति के जरिये फ़ासीवाद की विषबेल भी मण्डल की राजनीति के कारण बनी ज़मीन पर ही पनपी है। कभी मण्डल की राजनीति के जरिये कमण्डल का जवाब देने की बात करने वाले नीतीश कुमार व शरद यादव भी सत्ता का सुख पाने के लिए भाजपा के साथ गलबहियाँ करने से नहीं हिचके। और यह अनायास नहीं था, बल्कि वर्गीय राजनीति में इसकी वजहें निहित थीं।

मोदी सरकार के अमृतकाल में दलितों का बर्बर उत्पीड़न चरम पर

अल्पसंख्यक, स्त्रियों और दलितों-आदिवासियों के दमन-उत्पीड़न में इस फ़ासीवादी सरकार ने सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। दलितों द्वारा नाम के साथ सिंह आदि टाइटल लगाना, घोड़ी पर चढ़ना, मूँछ रखना, सवर्णों के बर्तन में पानी पी लेना, काम करने से मना करना, बराबरी से व्यवहार करना आदि ही सवर्णों द्वारा दलितों के अपमान और उनके बर्बर उत्पीड़न की वजह बन जा रहा है। दलित लड़कियों से बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या जैसे जघन्य अपराधों में बहुत तेज़ी आयी है। इसी तरह विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में संघ परिवार के बगलबच्चा संगठन एबीवीपी के कार्यकर्ताओं द्वारा दलित प्रोफ़ेसरों के साथ मारपीट, अपमानित करने की कई घटनाएँ सामने आयी हैं।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण : मेहनतकश जनता को बाँटने की शासक वर्ग की एक और साज़िश

भाजपा की मोदी सरकार जनता को बाँटने के एक नये उपकरण के साथ सामने आयी है : ईडब्ल्यूएस आरक्षण। इसका वास्तविक मक़सद जनता के बीच जातिगत पूर्वाग्रहों को हवा देना और सवर्ण मध्यवर्गीय वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना है। यह आरक्षण की पूरी पूँजीवादी राजनीति में ही एक नया अध्याय है। जातिगत आधार पर मौजूद आरक्षण की पूरी राजनीति का भी देश के पूँजीपति वर्ग ने बहुत ही कुशलता से इस्तेमाल किया है, जबकि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के हावी होने के साथ आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़ी राजनीति का आधार लगातार कमज़ोर होता गया है।

अय्यंकालि के स्मृति दिवस पर – जाति-उन्मूलन आन्दोलन को अय्यंकालि से सीखना होगा

कई जाति-विरोधी व्यक्तित्वों को ख़ुद भारत की सरकार ने आज़ादी के बाद से ही प्रचारित-प्रसारित किया है लेकिन अय्यंकालि को नहीं। क्यों? क्योंकि अय्यंकालि आमूलगामी तरीक़े से और जुझारू तरीक़े से सड़क पर उतरकर संघर्ष का रास्ता अपनाते थे; क्योंकि अय्यंकालि सरकार की भलमनसाहत या समझदारी के भरोसे नहीं थे, बल्कि जनता की पहलक़दमी पर भरोसा करते थे। वह कोई सुधारवादी या व्यवहारवादी नहीं थे, बल्कि एक रैडिकल जाति-विरोधी योद्धा थे। यही कारण है कि सरकार अय्यंकालि के रास्ते और विचारों के इस पक्ष को हमसे बचाकर रखती है। क्योंकि यदि मेहनतकश दलित और दमित जनता उनके बारे में जानेगी, तो उनके रास्ते के बारे में भी जानेगी और यह मौजूदा पूँजीवादी व जातिवादी सत्ता ऐसा कभी नहीं चाहेगी कि उसके विरुद्ध रैडिकल संघर्ष के रास्ते को जनता जाने और अपनी पहलक़दमी में भरोसा पैदा करे। यही कारण है कि अय्यंकालि की विरासत को जनता की शक्तियों को याद करना चाहिए। उनकी स्मृतियों को, प्रगतिशील ताक़तों को जीवित रखना चाहिए। उनके आन्दोलन के रास्ते को व्यापक मेहनतकश और दलित जनता में हमें ले जाना होगा। केवल ऐसा करके ही हम अय्यंकालि को सच्ची आदरांजलि दे सकते हैं। उनको याद करने का यही सबसे बेहतर तरीक़ा हो सकता है।

मण्डल-कमण्डल की राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू : त्रासदी से प्रहसन तक

90 के दशक के उपरान्त सामाजिक न्याय व हिन्दुत्व सम्भवतः भारतीय चुनावी राजनीति में दो अहम शब्द बन चुके हैं। हर चुनाव में इन्हें ज़रूर उछाला जाता है। यह दीगर बात है कि हाल के एक दशक के दौरान कमण्डल या यूँ कहें कि उग्र हिन्दुत्ववादी राजनीति का बोलबाला रहा है। मौजूदा यूपी चुनाव में एक चुनावी सभा में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यह चुनाव 80 बनाम 20 की लड़ाई है, जिसका तात्पर्य बनता है यह बहुसंख्यक हिन्दू बनाम मुस्लिमों की लड़ाई है।

हरियाणा के निजी क्षेत्र के रोज़गार में 75 प्रतिशत स्थानीय आरक्षण के मायने

गत 15 जनवरी से राज्य में ‘हरियाणा स्टेट एम्प्लॉयमेण्ट ऑफ़ लोकल कैण्डिडेट्स एक्ट, 2020’ को लागू कर दिया है। इस एक्ट के अनुसार हरियाणा राज्य के निजी क्षेत्र में 75 फ़ीसदी नौकरियाँ प्रदेश के निवासियों के लिए आरक्षित कर दी गयी हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करने वाला हरियाणा दूसरा राज्य है, इससे पहले आन्ध्रप्रदेश ने प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण लागू कर रखा है। इस एक्ट के लागू होने के बाद, अब हरियाणा में निकलने वाली ऐसी निजी भर्तियाँ जिनमें सकल वेतन 30,000 रुपये से कम होगा, उनमें नियोक्ताओं को 75% नौकरियाँ हरियाणा के निवासियों को देनी होंगी। हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री दुष्यन्त चौटाला इसे एक ऐतिहासिक फ़ैसला बता रहे हैं।

ओबीसी आरक्षण बिल, जाति आधारित जनगणना और आरक्षण पर अस्मितावादी राजनीति के निहितार्थ

जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक बार फिर से सियासत तेज़ होती दिखायी दे रही है। विभिन्न अस्मितावादी जातिवादी पार्टियाँ अपना जातीय समर्थन और जनाधार क़ायम रखने के लिए रस्साकशी हेतु आ जुटी हैं। राजग की सहयोगी पार्टी जद(यू) के नीतीश कुमार भाजपा की तरफ़ आँखें निकाल रहे हैं तो दूसरी ओर अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी राजद के लालूप्रसाद यादव के लाल तेजस्वी यादव तथा अन्य दलों को साथ लेकर इस मसले पर प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात भी कर रहे हैं।

किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया

अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।

13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम और शिक्षा एवं रोज़गार के लिए संघर्ष की दिशा का सवाल

आरक्षित वर्ग की शिक्षा और नौकरियों में भागीदारी वैसे ही कम हो रही है, ऊपर से यदि 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम लागू होता है तो यह आरक्षित श्रेणियों के ऊपर होने वाला कुठाराघात साबित होगा। पहले ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों से सम्बन्धित नौकरियों के बैकलॉग तक पारदर्शिता के साथ नहीं भरे जाते, ऊपर से अब 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम थोप दिया गया! इसकी वजह से नौकरियों में लागू किये गये आरक्षण या प्रतिनिधित्व की गारण्टी का अब कोई मतलब नहीं रह जायेगा। यही कारण है कि तमाम प्रगतिशील और दलित व पिछड़े संगठन 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम का विरोध कर रहे हैं। निश्चित तौर पर आरक्षण के प्रति शासक वर्ग की मंशा वह नहीं थी जिसे आमतौर पर प्रचारित किया जाता है। आरक्षण भले ही एक अल्पकालिक राहत के तौर पर था किन्तु यह अल्पकालिक राहत भी ढंग से कभी लागू नहीं हो पायी।