उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

अविनाश

इलाहाबाद में हज़ारों प्रतियोगी छात्रों का शानदार संघर्ष 5 दिनों तक लोक सेवा आयोग कार्यालय पर चला। उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों समेत बिहार, दिल्ली, मध्यप्रदेश और देश के विभिन्न हिस्सों से आये लगभग 20 हज़ार छात्रों ने 5 दिनों तक लोक सेवा आयोग के सभी द्वारों पर कब्ज़ा कर लिया था। इस दौरान लोक सेवा आयोग के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को कार्यालय में ही रात गुजारनी पड़ी। प्रदर्शनकारी छात्र यह माँग कर रहे थे कि आयोग द्वारा आयोजित होने वाली परीक्षाएँ एक दिन एवं एक शिफ्ट में ही करायी जाय और परीक्षा परिणाम से नॉर्मलाइजेशन ख़त्म किया जाय। छात्रों का यह गुस्सा इसलिए फूटा क्योंकि पिछले दिनों आयोग द्वारा एक अधिसूचना जारी किया गया कि उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा प्रस्तावित यूपीपीसीएस-2024 और इस साल फरवरी में पर्चा लीक होने की वजह से रद्द की गयी आरओ/एआरओ-2023 की परीक्षा को 2-2 दिनों के 2 या 2 से अधिक पालियों में कराया जायेगा और चूँकि परीक्षा एक से अधिक पालियों में होगी इसलिए परीक्षा परिणाम में  नॉर्मलाइज़ेशन की प्रक्रिया अपनायी जायेगी। आयोग द्वारा यूपीपीसीएस-2024 प्री की परीक्षा 17 मार्च, 2024 को प्रस्तावित था, लेकिन इसे स्थगित कर दिया गया था। इसी तरह समीक्षा अधिकारी और सहायक समीक्षा अधिकारी के लिए परीक्षा 11 फ़रवरी को आयोजित की गयी थी जिसमें पर्चा लीक हो गया। जिसके बाद छात्रों के भारी विरोध और लोकसभा चुनाव के सिर पर होने की वजह से 6 महीने में दोबारा परीक्षा करवाने के आश्वाशन के साथ इस परीक्षा को भी रद्द कर दिया गया।

लेकिन 6 महीने के भीतर तो छोड़िए, जब 10 महीने बाद दोबारा परीक्षा आयोजित होने से पहले आयोग ने नॉर्मलाइजेशन का नया शिगूफ़ा छोड़ दिया है। इसके पहले यूपीपीसीएस समेत आयोग द्वारा करायी जाने वाली अधिकांश परीक्षाएँ एक दिन और एक शिफ़्ट में आयोजित होती थीं। ग़ौरतलब है कि आयोग ने इससे पहले जब भी परीक्षाओं में नॉर्मलाइज़ेशन की प्रक्रिया को अपनाया है तो लगभग हर बार भर्ती कोर्ट में सालों तक अटकी रहती है। सालों से बेरोज़गारी की मार झेल रहे नौजवानों को आयोग का यह फ़ैसला नागवार गुजरा और उत्तर प्रदेश के विभिन्न शैक्षिक शहरों समेत दिल्ली में इसके ख़िलाफ़ छात्रों ने नुक्कड़ सभाएँ और विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया। लेकिन आयोग के कान में तेल डाल कर सोता रहा। फिर छात्र 11 नवम्बर को उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के कार्यालय पर इकठ्ठा हुए। 

शुरू में आयोग ने छात्रों की माँग अड़ियल रुख अपनाया और पुलिस के दम पर आन्दोलन को कुचलने की हर सम्भव कोशिश की। लेकिन आयोग का यह हथकण्डा उल्टा पड़ गया और फ़ासीवादी योगी सरकार, आयोग तथा पुलिस प्रशासन के इस कायराना हरक़त से छात्रों-नौजवानों की जुझारू एकता और मज़बूत हुई। अन्ततः 4 दिन के संघर्ष के बाद आयोग को घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा और पीसीएस परीक्षा को पूर्व की भाँति एक दिन और एक शिफ़्ट में कराने की छात्रों की माँग मनानी पड़ी। लेकिन इसके साथ ही आरओ/एआरओ के सम्बन्ध में छात्रों की माँग आयोग ने समिति बनाकर विस्तृत रिपोर्ट पेश करने की बात कह कर टाल दिया। इस फैसले के बाद छात्र आरओ/एआरओ की माँग माने जाने तक आन्दोलन चलाने के पक्ष में थे। लेकिन अगले ही दिन आयोग द्वारा पीसीएस परीक्षा की तिथि घोषित कर दी गयी, जिसके बाद आन्दोलन में बिखराव की स्थिति बनने लगी। इसका फ़ायदा प्रशासन के दलालों ने और फ़ासीवादी संघ परिवार के अनुषंगी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) जैसे संगठनों ने उठाया। शुरू से ही ये लोग आन्दोलन में प्रशासन की दलाली कर रहे थे और आन्दोलन का जुझारू तरीके से नेतृत्व कर रहे दिशा छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं समेत अन्य छात्रों की निशानदेही कर रहे थे। इनकी निशानदेही पर पुलिस प्रशासन सिविल ड्रेस में आकर ‘दिशा छात्र संगठन’ के दो कार्यकर्ताओं से संगठन के नेतृत्वकारी साथियों के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित जानकारियाँ जुटाने में लगी रही। साथ ही अख़बारों के ज़रिये आन्दोलन में “अराजक तत्व”, “बाहरी लोग घुस आये हैं” आदि का भ्रम फैला रहे थे। प्रशासन के दलाल और एबीवीपी, आयोग के इस फैसले का स्वागत कर छात्रों के बीच भ्रम फ़ैलाने की कोशिश करते रहे और इस प्रक्रिया में भाजपा और आयोग के छात्र विरोधी और जन विरोधी चेहरे को बेनक़ाब होने से बचाने में लगे रहे। दलाली कर रहे ये एजेण्ट छात्रों को पुलिस, एफ़आईआर आदि का डर दिखा कर आन्दोलन ख़त्म करने का दबाव बना रहे थे। अन्ततः पाँचवें दिन शाम को इस चेतावनी के साथ इस आन्दोलन को तात्कालिक तौर पर स्थगित करने का निर्णय लिया गया कि अगर समिति का फैसला छात्रों के पक्ष में नहीं आता है तो हम दोबारा आन्दोलन शुरू करेंगे।

हम मज़दूर साथियों के लिए भी इस आन्दोलन से कुछ ज़रूरी सबक निकलता है। पहला सबक यह कि जब भी पूँजीपति वर्ग या पूँजीवादी सरकार के ख़िलाफ़ कोई जुझारू आन्दोलन शुरू होता है तो शोषक वर्गों द्वारा सबसे पहले आन्दोलन में फूट डालने के हथकण्डे अपनाये जाते हैं। शोषक वर्ग के लिए इस काम में सबसे बड़े उनके सहयोगी बनते हैं हमारे बीच मौजूद भितरघाती और सत्ता के दलाल, जैसा कि छात्रों के इस आन्दोलन में भाजपा के बगलबच्चा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे संगठन और जिला प्रशासन के दलालों ने किया। इसी तरह हमारे मज़दूर आन्दोलन में भारतीय मज़दूर संघ, एटक, इंटक, सीटू जैसे दलाल संगठन काम कर रहे है जो हमारे बीच में बहुत क्रान्तिकारी बनते हैं लेकिन जैसे ही हमारा कोई जुझारू आन्दोलन खड़ा होता है तत्काल ही ये संगठन पूँजीपतियों की दलाली करने लगते है और हमारे आन्दोलन को कमज़ोर बनाने की कोशिश करने लगते है। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपने आन्दोलन को ऐसे दलाल यूनियनों से मुक्त करें और पूँजीपति वर्ग से राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र क्रान्तिकारी मज़दूर यूनियन या संगठन कायम करें।

दूसरा और ज़रूरी सबक यह है कि बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।

इस छात्र आन्दोलन में दिशा छात्र संगठन के साथी क्रान्तिकारी नेतृत्व देने की कोशिश कर रहे थे लेकिन तमाम आत्मगत और वस्तुगत परिस्थितियों की वजह से एक क्रान्तिकारी नेतृत्व पूर्णतः स्थापित नहीं हो पाया जिसकी वजह से इस आन्दोलन को आंशिक सफलता ही मिली। मज़दूर आन्दोलन की सफलता भी बिना किसी मज़बूत क्रान्तिकारी नेतृत्व के सम्भव नहीं है। इसलिए हम मजदूरों को अपनी एक क्रन्तिकारी यूनियन बनाने की दिशा में गम्भीरता से सोचना होगा और साथ ही यूनियन संघर्षों की चौहद्दियों से आगे बढ़कर समूचे समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना होगा। मज़दूर वर्ग ही यह कर सकता है और उसे करना ही होगा।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2024


 

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