तेलंगाना में जातिगत जनगणना : युवाओं को रोज़गार देने में फिसड्डी रेवन्त रेड्डी सरकार का नया शिगूफ़ा
आनन्द
तेलंगाना में रेवन्त रेड्डी नीत कांग्रेस सरकार ने हाल ही में तेलंगाना सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, रोज़गार और राजनीतिक सर्वेक्षण (संक्षेप में जातिगत जनगणना) का काम सम्पन्न किया है जिसका घोषित उद्देश्य तेलंगाना की क़रीब साढ़े तीन करोड़ आबादी की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, रोज़गार सम्बन्ध एवं राजनीतिक व जाति सम्बन्धित स्थिति का समग्रता में जायज़ा लेना है। इसका इस्तेमाल तेलंगाना में पिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने के औचित्य प्रतिपादन के लिए किये जाने की सम्भावना है। गत 4 फ़रवरी को इस सर्वेक्षण की एक संक्षिप्त रिपोर्ट तेलंगाना की विधानसभा में प्रस्तुत की गयी। उसके बाद से राज्य में राजनीतिक तापमान अचानक बढ़ गया है क्योंकि सभी बुर्जुआ पार्टियाँ पिछड़ी जातियों की वास्तविक प्रतिनिधि होने का दावा ठोंक रही हैं। परन्तु इस राजनीतिक उठापठक में बेरोज़गारी की असली समस्या को पृष्ठभूमि पर धकेल दिया जा रहा है।
बिहार व कर्नाटक के बाद तेलंगाना जातिगत जनगणना कराने वाला तीसरा राज्य बन गया है। कांग्रेस पार्टी ने ऐसी ही क़वायद राष्ट्रीय स्तर पर भी कराने की माँग उठायी है। कई लोग जातिगत जनगणना को मण्डल 2.0 की संज्ञा दे रहे हैं और इसे हिन्दुत्व की राजनीति के ख़िलाफ़ तुरुप का पत्ता बता रहे हैं। इस लेख में आगे हम देखेंगे कि भाजपा व संघ परिवार से लड़ने की यह रणनीति क्यों कारगर साबित नहीं होने वाली है।
तेलंगाना की जातिगत जनगणना में यह तथ्य सामने आया है कि राज्य की आबादी का क़रीब 56 प्रतिशत पिछड़ी जातियों से आता है जिसमें मुस्लिम समुदाय की पिछड़ी जातियाँ भी शामिल हैं। ग़ैर-मुस्लिमों में पिछड़ी जातियों की आबादी कुल आबादी का लगभग 46 प्रतिशत है। इस डेटा के आधार पर तेलंगाना की कैबिनेट ने सार्वजनिक शिक्षा व सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के कोटा को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत करने के बिल को मंज़ूरी दे दी है।
विभिन्न बुर्जुआ पार्टियाँ तथा जाति-आधारित संगठनों ने चुनावी गणित के मद्देनज़र जातिगत जनगणना को लेकर आपत्तियाँ उठायी हैं। इस जनगणना की पद्धति को लेकर भी तमाम सवाल उठाये जा रहे हैं। रेवन्त रेड्डी सरकार के ऊपर आरोप लगाये जा रहे हैं कि उसने जातिगत जनगणना में पिछड़ी जातियों की संख्या जानबूझकर कम दिखायी है। बीआरएस यह आरोप लगा रही है कि जनगणना में उच्च जाति की संख्या को बढ़ाचढ़ाकर दिखाया गया है। जबकि भाजपा का आरोप यह है कि सरकार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने के लिए उनमें पिछड़ी जातियों की संख्या को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रही है।
सवाल यह उठता है कि जातिगत जनगणना के मुद्दे पर चल रही राजनीति पर मज़दूर वर्ग का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश के अन्य भागों की ही तरह तेलंगाना में भी पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी संख्या देश के मज़दूर वर्ग व मेहनतकश जनता का हिस्सा है। परन्तु सवाल यह भी है कि पिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने के बाद भी पिछड़ी जातियों के कितने प्रतिशत लोगों का लाभ होने वाला है। तेलंगाना में कुल 162 ऐसी जातियाँ हैं जिन्हें सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना गया है। किसी भी अन्य जातीय समुदाय की ही तरह ये जातियाँ भी वर्गों में विभाजित हैं। इनमें से बेहद छोटी आबादी ऐसी है जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाती है और हैदराबाद में अशोक नगर, आरटीसी क्रॉस रोड तथा दिलसुखनगर जैसे इलाक़ों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए भेज पाती है, जहाँ कोचिंग सेण्टर, लायब्रेरी, रीडिंग रूम और किराये के घर तथा पेइंग गेस्ट जैसी सुविधाएँ बेहद मँहगे दामों पर उपलब्ध हैं।
पिछड़ी जातियों का बहुलांश कारीगर, छोटे व सीमान्त किसान या खेतों व फ़ैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूर हैं जिनके लिए सरकारी नौकरियाँ पाना आकाश कुसुम के समान है। यही नहीं, 162 पिछड़ी जातियों में मुन्नुरू कापू, मुदीराज और यादव जैसी चन्द जातियों की स्थिति, अन्य जातियों की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर है। पिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने का असली फ़ायदा इन मुट्ठीभर जातियों में की बेहद छोटी-सी आबादी को होने वाला है। पिछड़ी जातियों की विशाल जनसंख्या के लिए इस बढ़ोत्तरी के कोई मायने ही नहीं हैं। उनके बच्चे भी बड़ी संख्या में हैदराबाद में आते हैं, परन्तु अच्छी शिक्षा व नौकरी के लिए नहीं बल्कि जीडीमेटला व गाँधीनगर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में स्थित फ़ैक्ट्रियों में हेल्पर या वर्कर का काम करने के लिए या फिर काम की तलाश में शहर के क़रीब 200 लेबर चौकों पर खड़े होने के लिए।
पिछड़ी जातियों में से जो लोग अपने बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए हैदराबाद भेजने में सक्षम हैं, उस छोटे-से हिस्से को भी सरकारी नौकरी मिलने की सम्भावना बेहद कम है। मिसाल के लिए पिछले साल तेलंगाना में ग्रुप वन की 563 पोस्टों के लिए 4 लाख से ज़्यादा लोगों ने परीक्षा दी थी, यानी हर 700 उम्मीदवारों में से महज़ एक को नौकरी मिलेगी। इस प्रकार पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण को बढ़ा देने के बाद भी अधिकांश उम्मीदवारों के लिए सरकारी नौकरी पाने की सम्भावना बेहद कम ही रहेगी और उनकी नियति बेरोज़गारों की औद्योगिक रिज़र्व फ़ौज में शामिल रहने की ही रहेगी जिन्हें भविष्य में कम तनख़्वाह व बिना सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा वाली निजी अनौपचारिक नौकरियों के अलावा और कुछ भी नहीं मिलने वाला है।
तेलंगाना की जातिगत जनगणना को एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और ऐसी ही क़वायद राष्ट्रीय स्तर पर किये जाने की बात की जा रही है। बीएसपी के विचारक कांशीराम के नारे ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ को एक नया रूप देते हुए राहुल गाँधी ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का नारा उछाल रहे हैं। यह नारा कई स्तरों पर गुमराह करने वाला है। इस नारे के समर्थकों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या वे इस देश के संसाधनों व उत्पादन के साधनों के मालिकाने पर भी यहाँ की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को हिस्से के अनुसार हक़ दिलवाने के लिए आगे आयेंगे? ज़ाहिरा तौर पर इसका उत्तर है, नहीं! क्योंकि राहुल गाँधी और रेवन्त रेड्डी जैसे लोग व उनके तमाम समर्थक यह मानकर चलते हैं कि देश के संसाधनों व उत्पादन के साधनों पर तो मुट्ठीभर पूँजीपतियों का ही हक़ होना चाहिए जो देश की कुल आबादी का बेहद छोटा-सा हिस्सा हैं!
अगर केवल सरकारी नौकरियों की ही बात करें तो भी चूँकि ऐसी नौकरियों की संख्या बेहद कम है और नवउदारवाद के दौर में दिन-ब-दिन कम होती जा रही है, इसलिए उत्पीड़ित समुदायों में से भी अधिकांश आबादी के लिए यह लोकलुभावन नारा बेमतलब है। तेलंगाना के मामले में हमने देखा कि 162 पिछड़ी जातियों में से अधिकांश लोगों को पिछड़ी जातियों का आरक्षण बढ़ा देने के बावजूद कोई फ़ायदा नहीं होगा, ख़ासकर तब जबकि सरकारी नौकरियों की संख्या में कोई विचारणीय वृद्धि न हो। यही बात पूरे देश के सन्दर्भ में लागू होती है। इस प्रकार समानुपातिक प्रतिनिधित्व का नारा एक छलावा है जो लोगों को उनको यह समझने से रोकता है कि उनका असली दुश्मन पूँजीवादी व्यवस्था है न कि अन्य जातियों के लोग।
जातिगत जनगणना के समर्थन में एक अन्य तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे भाजपा व संघ परिवार की हिन्दुत्व की राजनीति को मात दी जा सकती है। इस प्रकार का तर्क देने वाले यह मानकर चलते हैं कि यह हिन्दुत्व की राजनीति के द्वारा निर्मित हिन्दू एकता को निश्चय ही तोड़ेगा। परन्तु ऐसे लोग यह नहीं समझ पाते कि अन्य फ़ासीवादी विचारधाराओं की ही तरह हिन्दुत्व की विचारधारा का भी सबसे महत्वपूर्ण अंग व्यवहारवाद है। हिन्दुत्व फ़ासीवादी जहाँ एक ओर मुस्लिमों को दुश्मन बताते हुए एक पूर्ण रूप से विचारधारात्मक हिन्दू पहचान का निर्माण करते हैं वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने से भी कोई परहेज़ नहीं है। अलग-अलग मंचों पर अलग-अलग श्रोताओं के अनुसार वे अलग-अलग पहलुओं पर ज़ोर देते हैं। उच्च जातियों के बीच घोर ब्राह्मणवादी श्रेष्ठतावादी प्रचार करने के साथ ही साथ उन्होंने पिछड़ी व दलित जातियों के बीच जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने में अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है और साथ ही वे सभी हिन्दुओं के बीच मुस्लिम-विरोधी राजनीति को ज़हर फैलाते रहते हैं। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि भाजपा का उभार मण्डल की राजनीति के साथ-साथ ही हुआ और आज भाजपा के समर्थन आधार का बहुलांश पिछड़ी जातियों, दलितों व आदिवासियों के बीच से आता है। इस प्रकार मण्डल 1.0 कभी भी भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के लिए प्रभावी चुनौती नहीं रहा है और यह मानने की कोई वजह नहीं है कि मण्डल 2.0 ऐसा करने में सक्षम होगा। ऐसा तेलंगाना के ही उदाहरण से समझा जा सकता है जहाँ भाजपा जातिगत जनगणना का विरोध नहीं कर रही है, परन्तु मुस्लिमों में पिछड़ी जातियों को पिछड़ी जातियों की श्रेणी में शामिल करके उन्हें पिछड़ी जाति के आरक्षण का लाभ देने का खुलकर विरोध कर रही है ताकि पिछड़ी जाति के हिन्दुओं के बीच पिछड़ी जाति के मुस्लिमों को प्रतिद्वन्द्वी के रूप में पेश किया जा सके ना कि उच्च जाति के हिन्दुओं को। इस प्रकार वह जाति-आधारित पहचान की राजनीति व साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादी राजनीति दोनों एक-साथ कर रही है। ग़ौरतलब है कि तेलंगाना में हाल के वर्षों में भाजपा के वोट में इज़ाफ़े की मुख्य वजह पिछड़ी जातियों के बीच उसके समर्थन में बढ़ोत्तरी रही है। तेलंगाना में बंडी संजय कुमार और एटला राजेन्द्र जैसे भाजपा के प्रमुख नेता पिछड़ी जातियों से ही आते हैं।
अनुसूचित जाति के आरक्षण के मामले में भी भाजपा तेलंगाना में माला और मदीगा दलितों के बीच की खाई का इस्तेमाल मदीगा लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए कर रही है। ग़ौरतलब है कि माला दलित जतियाँ मदीगा दलित जातियों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। मदीगा जातियों के नेता अनुसूचित जाति के आरक्षण के भीतर मदीगा लोगों को आरक्षण देने के लिए मुहिम चला रहे हैं। कांग्रेस सरकार मदीगा लोगों को 9 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए तैयार है, परन्तु सबसे लोकप्रिय मदीगा नेता मन्द कृष्ण मदीगा 11 प्रतिशत आरक्षण की माँग कर रहे हैं। ग़ौरतलब है कि मन्द कृष्ण मदीगा फ़ासिस्ट भाजपा का ख़ुलकर समर्थन कर रहे हैं। तेलंगाना के पिछले विधानसभा चुनावों में उन्होंने चुनावी रैली में नरेन्द्र मोदी से मुतासिर होकर उनके पाँव तक छुए थे। भाजपा ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें पद्मश्री की उपाधि से नवाज़ने के साथ ही साथ अन्य भौतिक प्रोत्साहनों की बौछार भी की है। ऐसे में यह मानने का कोई आधार नहीं है कि भाजपा हिन्दुत्व पर अडिग रहते हुए भी जाति-आधारित पहचान की राजनीति नहीं कर सकती है।
अन्त में यह समझना ज़रूरी है कि रेवन्त रेड्डी द्वारा जातिगत जनगणना पर इतना ज़ोर देने की वास्तविक वजह क्या है। ज़ाहिर है कि रेवन्त रेड्डी और कांग्रेस पार्टी तेलंगाना के मेहनतकशों की विशाल आबादी का कल्याण करने को नहीं आतुर हैं। जातिगत जनगणना के पीछे की असली वजह जानने के लिए हमें दिसम्बर 2023 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौर में जाना होगा। उस चुनाव में सत्तारूढ़ केसीआर नीत बीआरएस पार्टी की तगड़ी हार की मुख्य वजह बेरोज़गारी के मसले पर उसका फिसड्डी प्रदर्शन था। ग़ौरतलब है कि तेलंगाना राज्य बनाने के लिए चले आन्दोलन के तीन प्रमुख मुद्दे नीलू (पानी), निधूलू (कोष) और नियमकालू (बेरोज़गारी) के थे। हैदराबाद में आईटी सेक्टर की चकाचौंध के पीछे अक्सर यह स्याह सच्चाई छिप-सी जाती है कि तेलंगाना में बेरोज़गारी की दर देश की बेरोज़गारी की औसत दर से कहीं ज़्यादा है। सरकार के अपने रिकॉर्ड के अनुसार तेलंगाना में युवा बेरोज़गारों की संख्या 37 लाख से ज़्यादा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि वास्तविक बेरोज़गारों की संख्या इस सरकारी आँकड़े से कहीं ज़्यादा होगी।
कांग्रेस ने अपने कार्यकाल के पहले वर्ष में ही 2 लाख नौकरियाँ देने और 4000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता देने का वायदा किया था। कांग्रेस को सत्ता में आये एक साल से भी ज़्यादा का समय बीत चुका है, फिर भी वह अब तक महज़ कुछ हज़ार नौकरियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित कर सकी है। नयी सरकार द्वारा अपने वायदों से मुकरने की वजह से तेलंगाना के युवाओं में आक्रोश के पनपने की शुरुआत हो चुकी है जिसका एक मुज़ाहिरा पिछले साल अक्टूबर माह में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले हज़ारों छात्रों द्वारा हैदराबाद में भीषण विरोध-प्रदर्शन के दौरान देखने में आया था। युवाओं की अपेक्षाओं को पूरा कर पाने में विफल तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवन्त रेड्डी ने अब जातिगत जनगणना का नया शिगूफ़ा उछाला है ताकि रोज़गार के मोर्चे पर उनकी विफलता से लोगों को ध्यान भटकाया जा सके। मज़दूर वर्ग और छात्रों-युवाओं को इस राजनीति को समझना होगा और बुर्जुआ वर्ग की पार्टियों द्वारा बेरोज़गारी के मुद्दे को आरक्षण और उपवर्गीकरण तक सीमित कर देने के झाँसे में आकर झूठी उम्मीद पालने की बजाय रोज़गार की गारण्टी और बेरोज़गारी भत्ते जैसी माँगों के इर्द-गिर्द लामबन्द होना होगा।
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