फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास केसाम्प्रदायिकीकरण का विरोध करो!
अपने असली इतिहास को जानो! (भाग-1)
भारत
आज हम ऐसे फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं, जहाँ हमारे सामने सच को लगातार छुपाने का काम किया जा रहा है। सच को छुपाने के लिए झूठ की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ खड़ी की जा रही हैं। फ़ासीवादी ताक़तें लगातार झूठे-मनगढ़न्त, अवैज्ञानिक और अतार्किक प्रचार के ज़रिये आम जनमानस की चेतना को भोथरा बना रही हैं। इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहते हैं बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण भी करते हैं, जिससे वे अपनी जनविरोधी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है।
2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से संघ परिवार और भाजपा द्वारा पूरे इतिहास के विकृतिकरण और साम्प्रदायिकीकरण की यह मुहिम कई गुना तेज़ हो चुकी है। संचार-क्रान्ति के इस दौर में पूँजीपतियों का साथ पाकर संघी फ़ासीवादियों ने इतिहास के विकृतिकरण की अपनी मुहिम को नया आयाम दिया है। फ़िल्मों, टीवी चैनलों से लेकर फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के हर प्लैटफ़ॉर्म पर आज फ़ासिस्टों का बोलबाला है। आरएसएस से जुड़े फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों में इतिहास के सही तथ्यों को उलटकर पेश कर रहे हैं। जानबूझकर इतिहास से छेड़खानी करते हुए फ़िल्मों में मुसलमानों को दुश्मन के रूप में पेश करने, टीवी चैनलों पर इतिहास के फ़ासीवादी संस्करण पर आधारित सीरियल दिखाये जाने जैसी बातें आम हो चुकी हैं। दिन-रात विषवमन करते हज़ारों यूट्यूब चैनल युवाओं की बहुत बड़ी आबादी के दिमाग़ में ज़हर घोल रहे हैं। इन क़दमों के ज़रिये आज पूरे देश को ये फ़ासिस्ट दंगों की प्रयोगशाला बनाने पर आमादा हैं।
यह सब अचानक नहीं हुआ है। भारत में फ़ासीवादी ताक़तें विगत एक शताब्दी में एक लम्बी प्रक्रिया में देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में मिथकों को ‘कॉमन सेंस’ (सामान्य बोध) के रूप में स्थापित करने के लिए लगातार प्रयासरत रहे हैं और काफ़ी हद तक उन्होंने इसमें सफ़लता भी प्राप्त की है। किसी कल्पित अतीत के गौरव की वापसी का एक धार्मिक-भावनात्मक प्रतिक्रियावादी स्वप्न “रामराज्य” की स्थापना और भारत को विश्वगुरु बनाने जैसे नारों के रूप में संघी फ़ासिस्टों ने देश की हिन्दू मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय आबादी के बड़े हिस्से में भरा है। भारतीय समाज के ताने-बाने में तर्कणा, वैज्ञानिक चिन्तन और जनवाद का अभाव भी एक हद तक आरएसएस के फ़ासीवादी एजेण्डे के लिए उर्वर ज़मीन का काम करता है। पूँजीवादी विकास अपनी स्वाभाविक गति से ग्रामीण और शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ग की एक आबादी को उजाड़कर असुरक्षा और अनिश्चितता की तरफ़ धकेलता रहता है। असुरक्षा और अनिश्चितता की यह स्थिति इस टुटपुँजिया वर्ग में प्रतिक्रियावाद की ज़मीन तैयार करती है। यह प्रतिक्रियावादी ज़मीन और जनमानस में जनवाद, तर्कणा और वैज्ञानिक चिन्तन की कमी टुटपुँजिया वर्ग को फ़ासीवादी प्रचार का आसान शिकार बना देती है।
फ़ासीवाद टुटपुँजिया वर्ग का एक संगठित प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है। यह इस टुटपुँजिया वर्ग को एक तरफ़ तो नस्ली, जातीय, धार्मिक आधार पर एक नक़ली दुश्मन प्रदान करता है। दूसरी तरफ़ वह इसके सामने एक गौरवशाली अतीत का मिथक रचता है। भारतीय फ़ासीवादी इसी तरह लम्बे समय से देश की हिन्दू आबादी को अतीत का वह स्वप्न दिखाते रहे हैं, जब इस महान जम्बूद्वीप भारतखण्ड पर “स्वर्ण युग” था, जिसे मुगलों तथा यवनों ने छीन लिया। आइए यह भी जान लेते हैं कि संघ द्वारा “गौरवशाली अतीत” के मिथक गढ़ने की शुरुआत कब और कैसे हुई!
अंग्रेज़ों के समय में औपनिवेशिक इतिहास-लेखन में भारत के इतिहास को विकृत रूप में पेश करते हुए यूरोपीय उपनिवेशवाद के नज़रिये के आधार पर उसकी व्याख्या की गयी थी। ज़ाहिर है कि इस पूरे लेखन में औपनिवेशिक हितों के हिसाब से भारत के इतिहास का पाठ प्रस्तुत किया गया। यह व्याख्या एक तरफ़ अनैतिहासिक दृष्टिकोण से भारतीय समाज को एक ठहरे हुए समाज के रूप में प्रस्तुत करती थी, तो दूसरी ओर औपनिवेशिक इतिहास लेखन की इस धारा ने भारतीय समाज के इतिहास को हिन्दू काल, मुसलमान काल और ब्रिटिश काल के रूप में विभाजित किया था। इस विभाजन को खड़ा करने में सबसे अग्रणी नाम जेम्स मिल का है। संघियो ने भी जेम्स मिल की इस अवधारणा को अपना लिया क्योंकि अंग्रेज़ो के साथ-साथ यह संघ के लिए भी फ़ायदेमन्द था। इतिहास का यही विभाजन आज के समय में भी संघी फ़ासीवादियों के कुपाठ को एक आधार प्रदान कर रहा है। ग़ौरतलब है कि संघी फ़ासिस्ट भी इतिहास की व्याख्या करते समय एक तरफ़ तो तरह-तरह के अनैतिहासिक-अनर्गल दावे करते हैं, दूसरी तरफ़ इतिहास की इस औपनिवेशिक व्याख्या की ही तरह इतिहास में हिन्दुओं के शासन और उसके बाद मुस्लिमों की ग़ुलामी और ब्रिटिश काल के रूप में इतिहास की व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। अपनी इस कुत्सित व्याख्या को व्यापक तौर पर फैलाने के लिए फ़ासीवादी तमाम संस्थाओं में घुसपैठ कर अपनी पकड़ बना चुके हैं। पाठ्यक्रमों में बदलाव करके युवा आबादी के इतिहासबोध को कुन्द करने में भी जी-जान से लगे हुए हैं। वहीं पिछले सौ सालों में समाज के ताने-बाने में अपनी पैठ बनाकर और अनगिनत प्रयोगों, मिथ्याप्रचारों और आन्दोलनों के ज़रिये फ़ासिस्टों ने अपने फ़ासीवादी प्रचार की ज़द में एक विचारणीय आबादी को ले लिया है।
पर हमें यह भी पता होना चाहिए कि फ़ासिस्ट इतिहास से ख़ौफ़ खाते हैं। ये इतिहास को इसलिए भी बदल देना चाहते हैं क्योंकि इनका अपना इतिहास राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन से ग़द्दारी, माफ़ीनामे लिखने, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने, साम्प्रदायिक हिंसा और उन्माद फैलाने का रहा है। जब भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में अपनी शहादत दे रहे थे, तो उस दौर में संघी फ़ासिस्टों के पुरखे लोगों को समझा रहे थे कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने की बजाय मुसलमानों और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए! संघी फ़ासिस्टों के गुरु “वीर” सावरकर का माफ़ीनामा, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों द्वारा मुख़बिरी और गाँधी की हत्या में संघ की भूमिका और ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफ़ादारी के इतिहास को अगर फ़ासिस्ट सात परतों के भीतर छिपा देना चाहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
ठीक यही कारण है कि आज हमें भी अपने असल इतिहास से परिचित होना होगा, जिसे संघियो द्वारा लगातार दबाया-छुपाया जाता रहा है। हमारे देश में भी इतिहासकारों की प्रगतिशील धारा रही है, जिन्होंने सही तथ्यों और तर्कों तथा वैज्ञानिक विश्लेषण के ज़रिये भारत के इतिहास की सही समझ विकसित की है। ऐसे इतिहासकारों की धारा संघी फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास के विकृतिकरण और साम्प्रदायिकीकरण के ख़िलाफ़ एक दीवार की तरह खड़ी है। डी.डी. कोसाम्बी, रामशरण शर्मा, डी.एन. झा, सुमित सरकार, सतीश चन्द्रा, इरफ़ान हबीब, बिपन चन्द्र, सुवीरा जायसवाल जैसे इतिहासकारों ने औपनिवेशिक इतिहासलेखन से विच्छेद करते हुए इतिहास की वैज्ञानिक और भौतिकवादी समझदारी विकसित करते हुए भारत के सही इतिहास को सामने लाने में योगदान दिया है। डी.डी कोसाम्बी ने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक भौतिकवादी इतिहासलेखन की नींव रखी और बाद में रामशरण शर्मा उनके कार्य को आगे बढ़ाते हुए उसे नयी ऊँचाइयों पर ले गये। इन इतिहासकारों ने इतिहास को राजा-रानी के क़िस्सों, इतिहास के अति महिमामण्डन और उसके चारों ओर लिपटे हुए मिथकीय आवरण से मुक्त कराया तथा इतिहास को गतिहीन और व्यक्तियों, घटनाओं व संयोगों के समुच्चय मात्र के रूप में देखने की धारणा पर चोट की। यही वजह है कि प्राचीन भारत के इतिहास को स्वर्णयुग की तरह पेश करने और “रामराज्य’ के नाम पर दंगा-बलवा करने वाले फ़ासीवादियों को इस इतिहासबोध से सबसे ज़्यादा ख़तरा नज़र आता है।
फ़ासीवादियों के मनगढ़न्त व अवैज्ञानिक इतिहास की अवधारणा को जानने के बाद अब आगे बढ़ते हैं और शुरुआत करते हैं अपने देश के असल इतिहास को जानने की।
भारत के इतिहास को जानने की शुरुआत हम सबसे पहले करते हैं, उस शब्द से जिसे आज के फ़ासिस्ट सबसे ज़्यादा अलापते हैं, वह शब्द है ‘हिन्दू’। आइए जानते हैं आख़िर ‘हिन्दू’ शब्द का क्या अर्थ है और यह कितना प्राचीन है! प्रख्यात विद्वान गुणाकार मुले अपनी पुस्तक ‘इतिहास, संस्कृति और साम्प्रदायिकता, में लिखते हैं:
“वेदों में ‘हिन्दू’ शब्द कहीं भी नहीं मिलता। वैदिक आर्यों के धर्म को भी हम ‘हिन्दू धर्म’ नहीं कह सकते। बाद के धर्मसूत्रों तथा स्मृति ग्रन्थो में चातुर्वर्ण्य तथा पुनर्जन्मवाद के दर्शन होते हैं…‘सिन्धु’ और ‘सप्तसिन्धव’ शब्द नदी और सात नदियों के अर्थ में कई बार ऋग्वेद में आये हैं। इसी अर्थ में ‘हैन्दु’, ‘हिन्दु’ तथा ‘हफ्तहिन्दव’ शब्द पारसियों के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में मिलते हैं। उस ज़माने में सिन्धु या हिन्दु शब्द का जाति, धर्म या समाज के लिए कभी भी इस्तेमाल नहीं हुआ। पहली बार सातवीं-आठवीं शताब्दी में अरबों तथा ईरानियों ने सिन्धु प्रदेश को ‘हिन्दू’ नाम दिया और उसके बाद ही हमारे देश के सारे निवासियों के लिए ‘हिन्दू’ शब्द रूढ़ हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक अर्थ वाला यह हिन्दू शब्द मुश्किल से एक हज़ार साल पुराना है। पुराने ग्रन्थों में हिन्दू शब्द या हिन्दू धर्म की कोई व्याख्या नहीं मिलती। ठीक यही कारण है कि आज के हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को हिन्दू शब्द की मनमाने ढंग से व्याख्या करने की छूट मिल गयी है। यहाँ तक कि सारे संसार को मिथ्या समझने वाले ब्रह्मवादी आदि शंकराचार्य भी ‘हिन्दू’ शब्द की कोई व्याख्या नहीं करते।
“संघी जिस “हिन्दू स्वर्ण काल” की बात करते हैं, यानी हर्षवर्धन या गुप्त सम्राटों के समय के किसी भी धर्म को ‘हिन्दू धर्म’ के नाम से नहीं जाना जाता था। उनके समय की या उनके पहले की भारतीय संस्कृति के लिए किसी भी ग्रन्थ में ‘हिन्दू संस्कृति’ शब्द नहीं मिलता। वास्तव में, ‘हिन्दू’ शब्द ही इस पूरे दौर में कहीं नहीं मिलता। ईसा की नौवीं-दसवीं सदी से पहले के ऐतिहासिक काल में यह शब्द कहीं मिलता ही नहीं है। उस समय के लोग भी अपने को हिन्दू नहीं कहते थे। उस समय के किसी भी भारतीय ग्रन्थ या अभिलेख में ‘हिन्दू’ शब्द देखने को नहीं मिलता। इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं कि ‘हिन्दू’ शब्द विदेशी व्युत्पत्ति का है, पहले पहल विदेशियों ने इसका इस्तेमाल किया और तदनन्तर ईसा की नौवीं-दसवीं सदी के बाद भारत की जनता ने इस शब्द को अपने लिए स्वीकार किया। और इस शब्द का इस्तेमाल उत्तर-पश्चिमी सीमान्त से आने वाले विदेशी ईरानियों व अरबी लोगों ने किसी धर्म के लिए नहीं किया था, बल्कि एक निश्चित भूभाग (सिन्धु के पार का क्षेत्र) और उसमें रहने वाले लोगों के लिए किया था। इन लोगों में विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ थीं, जिनमें से कुछ वैदिक धर्म से ही निकली थीं और कुछ अन्य थीं जो वैदिक धर्म के दायरे में कभी नहीं आयीं थीं।”
संघ के लिए ‘हिन्दू’ की परिभाषा क्या है, आइये जानते हैं संघियों के गुरुजी और माफ़ीवीर विनायक दामोदर से। सावरकर ने ‘हिन्दू’ की जो परिभाषा दी है, वह इस प्रकार है:
“आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः॥”
अर्थात्, सिन्धु नदी से लेकर समुद्र तक की भारतभूमि जिसकी पितृभूमि और पवित्र भूमि हो, वह हिन्दू है।
सावरकर का मानना था कि जिन लोगों के तीर्थस्थल इस इलाक़े में पड़ते हैं, वे हिन्दू ही हैं। सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म को सावरकर हिन्दू धर्म की ही धाराएँ मानता था, क्योंकि उनके पवित्र स्थल सिन्धु और सप्तसिन्धु के बीच हैं। वे ही एक राष्ट्र, हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करते हैं और वे ही उसके सदस्य माने जायेंगे। लेकिन भारत में ही सदियों से रह रहे ईसाई और मुसलमान नहीं क्योंकि उनके पवित्र स्थान मक्का, मदीना, येरुशलम आदि में हैं! यानी सावरकर ने धर्म और राष्ट्र के बीच का अन्तर मिटा दिया और धर्म को ही राष्ट्रीयता का आधार बना दिया।
अब आइये देखते हैं कि संघियों के दूसरे गुरु गोलवरकर का इस विषय पर क्या कहना है:
“हिन्दुओं के अन्तर्गत सभी मतों और विविध जातियों की परिभाषा हो सकती है, किन्तु ‘हिन्दू’ पद की परिभाषा नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें उन सभी का समावेश है। हमारे समाज का मूल तथा कब से हम यहाँ सुसभ्य जीवन व्यतीत करते आ रहे हैं, उसकी तिथि से इतिहास के विद्वान अनभिज्ञ हैं। एक प्रकार से हम ‘अनादि’ हैं। ऐसे समाज की व्याख्या करना ठीक उसी प्रकार असम्भव है, जैसे उस परमसत्य की परिभाषा, क्योंकि शब्दों का उद्भव तो उसके बाद ही हुआ है। यही बात हिन्दू समाज के लिए है। हमारा अस्तित्व उस काल से है जबकि किसी भी नाम की आवश्यकता ही नहीं थी।” (विचार नवनीत, जयपुर, संवत् 2057, पृष्ठ 55-56)
गोलवलकर यदि हिन्दू धर्म के लिए अनादि, अनन्त तथा परमसत्य जैसे निरर्थक और निस्सार विशेषणों की आड़ ले रहे हैं तो इसलिए क्योंकि गोलवलकर जानते थे कि ‘हिन्दू’ की परिभाषा करने से वह फँस जायेंगे! क्योंकि किसी प्राचीन या वैदिक ब्राह्मण ग्रन्थ में हिन्दू शब्द का कोई उल्लेख ही नहीं है। यह तो ईरानियों का दिया हुआ शब्द था, उस भूमि के लिए और वहाँ रहने वाले लोगों के लिए जिसे आज भारत के नाम से जाना जाता है। तब राजनीति के मंच से हिन्दू व हिन्दू धर्म के बारे में मनमाने, असंगत विचार व्यक्त करने के लिए उन्हें और उनके अण्डभक्तों को खुली छूट नहीं मिलेगी। इसलिए आज भी अण्डभक्त जिस ‘हिन्दुत्व’ का झण्डा उठाये घूम रहे हैं, ज़्यादातर तो जानते ही नहीं ‘हिन्दू’ शब्द या ‘हिन्दू धर्म’ का क्या इतिहास है!
आइए अब एक बार भारत में बदलते धर्म के स्वरूप पर भी सरसरी निगाह मार लें। गुणाकर मुले अपनी उपरोक्त पुस्तक में लिखते हैं:
“वैदिक आर्यों के भारत में स्थायी हो जाने के बाद, यहाँ के विशाल भूभाग पर धीरे-धीरे फैल जाने के बाद, साथ ही यहाँ के मूल निवासियों के साथ घुल-मिल जाने के बाद, वैदिक धर्म तथा रीति-रिवाजों में आमूल परिवर्तन हुए। समाज-व्यवस्था बदली, शासन-प्रणाली बदली, भारत के मूल निवासियों के बहुत से धर्म-तत्व एवं रीति-रिवाज आर्यों ने अपना लिए, रक्त-संकरता बढ़ी। इसी काल में धर्मसूत्रों तथा स्मृति-ग्रन्थों की रचना हुई, समाज के एक वर्ग-विशेष ने अपने निहित स्वार्थो के लिए चातुर्वर्ण्य, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था समाज पर लादी। वेदों की भाषा पुरानी पड़ गयी, तो वेदों को मनमाना अर्थ देने की छूट मिल गयी। देश-काल की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार धर्म का स्वरूप भी बदलता रहता है। वैदिक-कालीन कबीलाई जन-समुदाय के लिए बहुत-सी प्राकृतिक घटनाएँ रहस्यमयी थीं। इसी कारण अग्नि, वायु, वर्षा के देवताओं का जन्म हुआ। वैदिक देवता ऐसी ही घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। वर्षा, सन्तान-प्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु-विनाश, धन-समृद्धि, पशु-वृद्धि आदि के लिए उस समय यज्ञ हुआ करते थे। मन्त्र, तन्त्र, जारण-मारण, यज्ञकर्म आदि से देवताओं को खुश करने की कोशिश की जाती थी। ऐसी क्रियाओं वाले धर्म को हम ‘यातु-धर्म’ कहते हैं। अथर्ववेद ऐसी यातु-क्रियाओं से भरा पड़ा है। उपनिषद्-काल में नई आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का उदय हुआ। राजतन्त्र की नींव पड़ चुकी थी। ग़ैर-वैदिक श्रमण-संस्कृति की परम्परा में बौद्ध, जैन आदि नये धर्मों और सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। इन नई परिस्थितियों में अब पुराने वैदिक देवता निरर्थक सिद्ध हो रहे थे। ब्राह्मण-पुरोहितों ने वैदिक काल के सबसे बड़े देवता इन्द्र को त्याग दिया; इन्द्र का अण्डकोष गिराकर उसे हत्यारा घोषित कर दिया। उपनिषदकारों ने देवता, ईश्वर, यज्ञकर्म आदि की शव परीक्षा शुरू कर दी। याज्ञवल्क्य ने आगे बढ़कर एक प्रकार से वैदिक देवताओं का ‘क़त्लेआम’ ही कर डाला (बृहदारण्यक उपनिषद)। सामन्ती युग में धर्म का स्वरूप फिर बदला। विष्णु और शिव जैसे वैदिक-अवैदिक देवता देव-सम्राट बना दिये गये और बहुत-से छोटे-मोटे देवता उनके सामन्त व सेवक बने; अर्थात्, उनकी गृहस्थी में शामिल कर दिये गये।”
सारांश यह कि इतिहास में हर चीज़ व परिघटना की तरह धर्म का स्वरूप भी निरन्तर बदलता रहा है। यहाँ हमने गुणाकार मुले के ही शब्दों में कहें तो केवल ‘ब्राह्मण-धर्म’ (ब्राह्मणवाद) की बेहद संक्षिप्त चर्चा की है। मुले इसे ‘ब्राह्मण-धर्म’ इसलिए कहते हैं क्योंकि यह ब्राह्मण-पुरोहितों के हित-साधन के लिए, ब्राह्मण-पुरोहितों द्वारा चलाया हुआ, प्रमुखतः ब्राह्मण-पुरोहितों का धर्म रहा है जो ज़ाहिरा तौर पर उस दौर के शासक वर्गों की विचारधारात्मक ज़रूरत भी था। पर ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा धर्मसूत्रों के काल का धर्म शुद्ध अर्थों में ‘हिन्दू धर्म’ नहीं था, वह ‘वैदिक धर्म’ था, वह वैदिक सूक्तों के आध्यात्मिक परम्परा वाले अर्थों पर आधारित ‘वैदिक कर्मकाण्ड’ वाला धर्म था। उस समय के साहित्य में भी न ‘हिन्दू’ शब्द मिलता है, न ‘हिन्दू धर्म’ शब्द। बौद्ध और जैन धर्मों ने हिन्दू धर्म का नहीं, बल्कि वैदिक कर्मकाण्ड का, यज्ञों में होनेवाली पशुबलि आदि का विरोध किया था।
प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि किसी समय हमारे देश में नास्तिकों की संख्या आस्तिकों से अधिक ही थी। जैन तथा बौद्ध दर्शन, दोनों ही अनीश्वरवादी हैं। न्याय-वैशेषिक और वेदान्त को छोड़कर हमारे सारे पुराने दर्शन मूलतः अनीश्वरवादी ही थे। उत्तरवैदिक काल से हमारे देश में तथाकथित नास्तिकों की एक स्वस्थ चिन्तन-परम्परा मौजूद रही है। इस परम्परा के लिए ‘लोकायत’, अर्थात् जनसमुदाय पर आधारित दर्शन का नाम मिलता है। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन-सभी ने इस परम्परा की अपने ग्रन्थों में भर्त्सना की है। इसी से पता चलता है कि हमारे देश में बुद्धिवादी नास्तिकों की संख्या पुराने ज़माने में काफ़ी ज़्यादा थी। ईश्वर में विश्वास न करनेवाला नास्तिक (नअस्ति; अर्थात्, कोई स्थायी सत्ता, यानी ईश्वर नहीं) है, ऐसा कहकर आज इस शब्द को हेय समझा जाता है। वेदों की निन्दा करने वालों को भी नास्तिक कहा गया (नास्तिको वेदनिन्दकः)। भारत के इतिहास में सिर्फ़ रामायण-महाभारत-गीता जैसे ग्रन्थ ही नहीं लिखे गये, जिसे फ़ासिस्ट इतिहास बताने पर तुले हैं, बल्कि भारत में भौतिकवादी दार्शनिकों की भी एक धारा रही है, जो कि उतनी ही पुरानी है, जितने पुराने सभी धर्मग्रन्थ रहे हैं। लेकिन इस इतिहास के बारे में हमें कभी नहीं बताया जाता है और इस समूची भौतिकवादी परम्परा को ही ग़ायब करने का सचेतन तौर पर प्रयास किया जाता है। भारत के इतिहास में भी जनता के बीच से उपजी परम्परा रही है, जिसे ‘लोकायत-चार्वाक’ नाम से जाना जाता है। इस इतिहास को जानने की और उसकी हिफ़ाज़त करने की ज़िम्मेदारी आज हमारी है।
मज़दूर बिगुल, जून 2025