गिग प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के मज़दूरों के श्रम अधिकारों को छीनने के लिए कर्नाटक की कांग्रेस सरकार लायी ख़तरनाक मसविदा क़ानून

गायत्री भारद्वाज

राहुल गाँधी की “मुहब्बत की दुकान” में मज़दूरों के लिए कोई जगह नहीं है। वहाँ मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, कुलकों और मुश्किल से मध्यम वर्ग तक के लिए जगह है। इसका सबूत लगातार कांग्रेस की राज्य सरकारें दे रही हैं। चुनाव के पहले भी दे रही थीं और अब भी दे रही हैं। चाहे हसदेव के जंगल को कारपोरेट धन्नासेठों के हाथों बरबाद होने के लिए सौंपना हो, या गिग व प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के मज़दूरों को मज़दूर पहचान से ही वंचित करने वाला राजस्थान की भूतपूर्व कांग्रेस सरकार का क़ानून हो, या फिर अब, कर्नाटक की सिद्दरमैया सरकार द्वारा 9 जुलाई को पेश कर्नाटक प्लेटफॉर्म-बेस्ड गिग वर्कर्स (सोशल सिक्योरिटी एण्ड वेलफेयर) बिल, 2024 का मसविदा हो। ज्ञात हो कि प्लेटफॉर्म आधारित गिग वर्कर्स वे होते हैं जो ओला, ऊबर, स्विगी, ज़ोमैटो, इंस्टामार्ट, अर्बन कम्पनी आदि जैसे प्लेटफॉर्मों के लिए काम करते हैं, मसलन, कैब चालक, होम डिलिवरी मज़दूर आदि। इन मज़दूरों की संख्या 2020 में ही 77 लाख थी। अब यह करीब 85 लाख तक पहुँच चुकी होगी और यह अनुमान लगाया गया है कि 2029-30 तक इनकी संख्या 2.35 करोड़ होगी। यह भारत की कुल कार्यशक्ति (मज़दूरों की तादाद) का करीब 1.5 प्रतिशत है।

कर्नाटक सरकार द्वारा पेश उपरोक्त बिल का मसविदा बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि राजस्थान की भूतपूर्व कांग्रेस सरकार द्वारा पेश बिल का था। इसका मुख्य लक्ष्य यह है कि इन गिग मज़दूरों और प्लेटफॉर्म कम्पनियों के बीच के रोज़गार सम्बन्ध को ही नकार देना, ताकि इन मज़दूरों की मज़दूर पहचान ही उनसे छीन ली जाय। इसका प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के पूँजीपतियों को क्या फ़ायदा होगा? इसका यह फ़ायदा होगा कि औपचारिक तौर पर मज़दूरों को जो थोड़े-बहुत श्रम अधिकार प्राप्त हैं, उन पर इन गिग मजदूरों का कोई दावा नहीं होगा। यानी पुराने श्रम क़ानूनों के तहत और नये फ़ासीवादी लेबर कोड के तहत ये मज़दूर आयेंगे ही नहीं। ये प्लेटफॉर्म अपने आपको नियोक्ता नहीं मानते। ये कहते हैं कि हम तो ‘एग्रीगेटर’ हैं, यानी बस सूचना जुटाने का काम करते हैं। ये उपभोक्ताओं की सूचना और सेवा-प्रदाताओं की सूचना जुटाते हैं और उनको एक-दूसरे से साझा कर देते हैं, बदले में वे अपना हिस्सा यानी कमीशन लेते हैं। इनका दावा है कि ये मज़दूर उनके कर्मचारी नहीं हैं क्योंकि अपने काम के मालिक वे खुद हैं।

लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या? नहीं। सच्चाई यह है कि सेवा की कीमत ये कम्पनियाँ तय करती हैं, सेवा की स्थितियाँ और शर्तें भी ये कम्पनियाँ ही तय करती हैं। मिसाल के तौर पर, एक ऊबर कैब चालक को देखिये। राइड की कीमत कम्पनी तय करती है, राइड की शर्तें व स्थितियाँ कम्पनी तय करती है, और इनका इस्तेमाल कर बात-बात पर चालकों के भुगतान से कटौती भी करती हैं। यहाँ पर श्रम और पूँजी का सम्बन्ध इसलिए छिप जाता है क्योंकि कैब चालक सीधे कम्पनी के साथ किसी क़रार के तहत नौकरी में नहीं है। लेकिन ऐसा तो सभी कैजुअल मज़दूरों के साथ होता है। यह भी सच है कि कैब चालक कुछ मामलों में अपनी गाड़ी के मालिक होते हैं। यानी, वे अपने श्रम के उपकरण के मालिक हैं। यह भी आम तौर पर सभी कैजुअल मज़दूरों के साथ होता है जैसे कि इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, मिस्त्री आदि। लेकिन वे इन श्रम के उपकरणों का पूँजी के रूप में उपयोग नहीं कर पाते क्योंकि उत्पादन की स्थितियों पर उनका नियन्त्रण नहीं है। ऊबर या ओला जैसी कैब कम्पनियों के मामले में जिस माल का उत्पादन हो रहा है वह एक सेवा है, यानी परिवहन। यह एक ऐसा विशेष माल होता है जिसका उत्पादन और उपभोग एक साथ होता है, अलग-अलग समय में नहीं। एक इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर आदि के पास भी अपने श्रम के उपकरण होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक स्वतन्त्र माल उत्पादक है। वजह यह कि उसके द्वारा दी जाने वाली सेवा, यानी माल का उत्पादन, उसके फ़ैसलों पर निर्भर नहीं करता है। उसे कोई काम देता है। यदि कोई कम्पनी उसे काम देती है और उसके द्वारा उत्पादित सेवा (जो कि एक माल ही है) को बेचती है, तो वह कम्पनी यह माल उत्पादन करवा रही है, उसे बेच रही है और उस इलेक्ट्रीशियन या प्लम्बर के बेशी श्रम का शोषण कर रही है, यानी उसे महज़ उसकी श्रमशक्ति का मूल्य दे रही है, जबकि उसके द्वारा उत्पादित माल का मूल्य उससे कहीं ज़्यादा है। यह अन्तर ही बेशी मूल्य है जो कम्पनी के पास मुनाफ़े के रूप में आ रहा है।

इसी प्रकार, एक गाड़ी का स्वामी कैब चालक यदि किसी प्लेटफॉर्म कम्पनी से सम्बद्ध नहीं है, खुद ही अपनी टैक्सी शहर में चला रहा है, अपनी इच्छा से सवारी लेता या छोड़ता है, तो वह एक स्वतन्त्र माल उत्पादक हुआ। कहने के लिए राइड न लेने का अधिकार औपचारिक तौर पर ओला या ऊबर के चालक के पास भी होता है। लेकिन यदि कोई चालक कई राइड्स को मना करता रहेगा, तो उसके पास राइड आना ही कम होता जायेगा। नतीजतन, उत्पादन की स्थितियों पर यह नियन्त्रण केवल औपचारिक और कागज़ी है। वास्तव में, नियन्त्रण कम्पनी के पास होता है। लुब्बेलुआब यह कि एक प्लेटफॉर्म-आधारित कम्पनी के लिए काम करने वाला गिग मज़दूर वास्तव में उस कम्पनी का ही मज़दूर है, वह कम्पनी ही उसकी नियोक्ता है और उसके उजरती श्रम का शोषण करती है। सीधा क़रार न होना और अक्सर अपने श्रम के उपकरणों का मालिक होना, इन मज़दूरों की मज़दूर पहचान पर रहस्य का पर्दा डाल देती है। लेकिन यह पर्दा झीना ही होता है और ज़रा-सी बारीक निगाह आपका साबका सच्चाई से सामना करवा देती है।

कर्नाटक सरकार द्वारा पेश बिल का मसविदा वास्तव में इस रहस्य के पर्दे का इस्तेमाल करता है। यह मसौदा इन कम्पनियों के लिए वही शब्द इस्तेमाल करता है, जो ये कम्पनियाँ ख़ुद अपने लिए इस्तेमाल करती हैं ताकि अपनी नियोक्ता की पहचान को छिपा सकें। यह शब्द है ‘एग्रीगेटर’, यानी एक निर्दोष मासूम धन्नासेठ जिसकी कम्पनी महज़ सूचना एकत्र करके साझा करने का महान पवित्र काम कर रही है। इन कम्पनियों के पास एक उन्नत तकनोलॉजी है, एक उन्नत उत्पादन का साधन है जिसके ज़रिये ये इन तमाम स्वतन्त्र माल उत्पादकों को अपने उजरती मज़दूर में तब्दील करती हैं और वह भी उन्हें उनकी मज़दूर पहचान दिये बग़ैर। इसी चाल को कर्नाटक कांग्रेस सरकार का बिल स्वीकार करता है। यह इन मज़दूरों को भी स्वतन्त्र संविदाकार/स्वरोज़गार-प्राप्त मज़दूर बोलता है और कम्पनी से उनके औद्योगिक सम्बन्ध, यानी रोज़गार के सम्बन्ध को स्वीकार करने से इन्कार कर देता है। यह बिल इन मज़दूरों को 8 घण्टे से ज़्यादा समय देने के बावजूद न्यूनतम मज़दूरी, कार्यदिवस की लम्बाई, स्वैच्छिक ओवरटाइम व डबल रेट से भुगतान, व सुरक्षा प्रावधानों सम्बन्धी अधिकारों से वंचित कर देगा। कैब कम्पनियों द्वारा अतिश्रम के कारण तमाम कैब चालकों से एक्सीडेण्ट हो रहे हैं क्योंकि उनका मेहनताना इतना कम है कि परिवार के गुज़ारे लायक कमा पाने के लिए उन्हें 12 से 15 घण्टों तक भी काम करना पड़ता है। नतीजतन, उनकी जान भी ख़तरे में पड़ती है और सवारियों की जान भी। यह और कुछ नहीं बल्कि इन कम्पनियों की मुनाफ़े की अन्धी हवस है जिसके नतीजे के तौर पर यह हो रहा है।

जब तक इन गिग मज़दूरों को नियोक्ता-नियुक्त सम्बन्ध, यानी पूँजी व श्रम के सम्बन्ध के संस्थागत रूप में नहीं लाया जायेगा, दूसरे शब्दों में, जब तक इन मज़दूरों को मज़दूर की पहचान नहीं दी जायेगी और इन प्लेटफॉर्म आधारित एग्रीगेटर कम्पनियों की नियोक्ता के तौर पर पहचान कर वह सारी जिम्मेदारी व जवाबदेही लेने की क़ानूनी व्यवस्था बहाल नहीं की जायेगी जो कि श्रम अधिकारों के तहत एक नियोक्ता की होती है, तब तक ऐसी स्थिति बनी रहेगी। सवाल यह है कि गिग मज़दूरों व इन कम्पनियों के बीच के रिश्ते को औद्योगिक सम्बन्ध, रोज़गार सम्बन्ध माना जाये ताकि वे सभी अधिकार औपचारिक तौर पर इन गिग मज़दूरों को मिलें, जो कम-से-कम क़ानूनी तौर पर हरेक कर्मचारी या मज़दूर को मिलने चाहिए। लेकिन कांग्रेस सरकार ने एक सामाजिक सुरक्षा का क़ानून इन्हें दिया है, जबकि ज़रूरत थी इन्हें औद्योगिक व श्रम क़ानूनों के मातहत लाने की। ऐसे कल्याणकारी क़ानूनों का न तो अतीत में कोई ख़ास लाभ लोगों को मिला है न अब मिलेगा। निर्माण मज़दूर कल्याण क़ानून (1996) का हश्र क्या हुआ है वह सबके सामने है। उसी प्रकार असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा क़ानून का क्या हुआ है, यह भी सबको पता है। असल बात थी ऐसे सभी मज़दूरों के लिए सख्त श्रम क़ानूनों को बनाना। लेकिन उसकी जगह इस प्रकार के सामाजिक सुरक्षा या कल्याणकारी क़ानून लाये जाते हैं। क्यों?

इसका कारण यह है कि ऐसे क़ानून पूँजीपतियों को सभी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर देते हैं। अब मज़दूर पूँजीपति को क़ानूनी तौर पर कठघरे में नहीं खड़ा कर सकता, चाहे उसे उसके बुनियादी श्रम अधिकार मिलें या न मिलें। पूँजीपति उसे न्यूनतम मज़दूरी न दे, काम के घण्टे 8 से ज़्यादा रखे, सुरक्षा के उपकरण व इन्तज़ामात मुहैया न कराये, तो मज़दूर पूँजीपति के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता है। उसे बस इस अमानवीय शोषण व गुलामी को स्वीकार करने के बदले सरकार की ओर से कुछ कल्याणकारी राहत दिये जाने का वायदा किया जाता है और वह भी कभी पूरा नहीं किया जाता। यानी, पूँजीवादी मालिक औपचारिक व अनौपचारिक दोनों प्रकार से कठघरे से बाहर, तथा पूँजीवादी सरकार वास्तव में यानी अनौपचारिक तरीके से कठघरे से बाहर। पूँजीपति का सिरदर्द ख़त्म और सरकार को भी इन कल्याणकारी क़ानूनों से वास्तव में कोई ख़ास सिरदर्द नहीं होगा क्योंकि इन योजनाओं का फ़ायदा भी मज़दूरों को तभी मिलेगा जब वे संगठित होकर इसके लिए संघर्ष करें।

संक्षेप में, कांग्रेस पार्टी और उसकी विभिन्न राज्य सरकारों की नीति और फ़ासीवादी मोदी सरकार की नीति में एक ही फ़र्क है। कांग्रेस सरकारें भी मोदी सरकार के ही समान पूँजीपतियों को सभी विनियमनकारी व वैधिक बाध्यताओं से मुक्त कर रही है, हालाँकि उस आक्रामकता व रफ़्तार से नहीं जिससे मोदी सरकार कर रही है, लेकिन साथ में कांग्रेस सरकार इसकी एवज़ में कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बना रही है जिससे कि मज़दूर वर्ग का असन्तोष व गुस्सा कालान्तर में फट न पड़े। यह दीगर बात है कि भारत का पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती औसत दर से इस कदर बिलबिलाया और किलकिलाया हुआ है कि वह यह भी नहीं चाहता कि पूँजीवादी सरकार ऐसे कल्याणवाद का ख़र्च उठाये। या फिर अगर ऐसा दिखावटी कल्याणवाद करना भी है तो इसके लिए प्रत्यक्ष कर व कारपोरेट करों में बढ़ोत्तरी कतई न की जाये और इसका बोझ भी बढ़े हुए अप्रत्यक्ष करों के रूप में आम मेहनतकश जनता पर डाला जाय। मोदी सरकार ठीक इन्हीं आदेशों का पालन करती आयी है। अव्वलन तो उसने वेलफेयर का ही फेयरवेल पूरा कर दिया है, और जहाँ कहीं लोकरंजकता की राजनीति द्वारा उपस्थित बाध्यताओं के कारण उसे कुछ दिखावटी कल्याणवाद करना भी पड़ता है, वहाँ उसका ख़र्च वह जनता से ही वसूलती है। लेकिन कांग्रेस सरकार पूँजीपतियों की सेवा के प्रति कोई कम प्रतिबद्धता नहीं रखती है। राहुल गाँधी चाहे “मुहब्बत की दुकान” की जितनी भी बात करें, हमें यह समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस भी कुछ अलग अन्दाज़ में पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करने का काम करती है। मज़दूरों को एक स्वर में राहुल गाँधी को यह बता देना चाहिए कि हमें “मुहब्बत की दुकान” और “सर्वधर्म सम्भाव” की हवा मिठाई नहीं चाहिए बल्कि मेहनतकश अवाम के सदस्य के तौर पर हमारे जायज़ श्रम अधिकार और सच्चा सेक्युलरिज़्म चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2024


 

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