Category Archives: असंगठित मज़दूर

धनी किसान आन्दोलन में लग रहे ‘मज़दूर-किसान एकता’ के नारों के बीच भी जारी है खेत मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न!

दिल्ली की सीमाओं पर जारी धनी किसान आन्दोलन को चलते हुए सात महीने का समय बीत चुका है। इन सात महीनों के दौरान धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र अधिकाधिक बेपर्द होता गया है। हमारा यह शुरू से ही कहना रहा है कि मौजूदा किसान आन्दोलन धनी किसानों और कुलकों का आन्दोलन है। यह हम इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र के कारण कहते रहे हैं।

अनियोजित लॉकडाउन में बदहाल होते मुम्बई के मेहनतकशों के हालात

मानखुर्द, मुम्बई के सबसे बाहरी छोर पर आता है और सबसे ग़रीब इलाक़ों में से एक है। यहाँ मज़दूरों, मेहनतकशों और निम्न मध्यम वर्ग के रिहायशी इलाक़े आपस में गुँथे-बुने ढंग से मौजूद हैं। मुम्बई की इन्हीं बस्तियों में रहने वाली मज़दूर-मेहनतकश आबादी, पूरे मुम्बई के तमाम इलाक़ों को चलाने और चमकाने का काम करती है।

पंजाब के खेत मज़दूरों के बदतर हालात का ज़िम्मेदार कौन?

पंजाब का नाम आते ही हरेक के मन में एक ख़ुशहाल प्रदेश की छवि ही आती होगी। आये भी क्यों नहीं? यह राज्य हरित क्रान्ति की प्रयोगशाला बना और इसने खाद्यान्न उत्पादन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन इस ख़ुशहाल छवि के पीछे एक चीज़ को हमसे छिपा दिया जाता है। वह चीज़ है इस चमक-दमक के पीछे ख़ून-पसीना बहाने वाले खेत मज़दूरों का जीवन।

बिना योजना थोपा गया लॉकडाउन और मज़दूरों के हालात

हमारा देश आज ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा धधक रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे देश का नीरो बाँसुरी बजा रहा है। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी स्वास्थ्य व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा कर के रख दिया है। एक तरफ़ देश में लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे हैं, दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार आपदा को अवसर में बदलते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में मग्न है। जब कोरोना की पहली लहर के ख़त्म होने के बाद देश भर की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए था, तब यह निकम्मी सरकार चुनाव लड़ने में व्यस्त थी।

खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।

डिलीवरी बॉय का काम करने वाले मज़दूरों का शोषण

मैं सचिन कुमार, उम्र 21 साल, उत्तर पूर्वी दिल्ली के करावल नगर इलाक़े में रहता हूँ। मैं अलग-अलग कम्पनियों के बिस्कुट, सेवईं, मैक्रोनी और पास्ता दुकानों पर सप्‍लाई करने का काम करता हूँ। मैं सुबह 10 बजे तक काम पर पहुँच जाता हूँ, वहाँ पहुँचने पर मालिक मुझे दुकानों पर पहुँचाने वाले सामान की लिस्‍ट देता है और फिर मुझे गोदाम से सारा सामान बाहर निकालना होता है, जिसका वज़न लगभग 150 से 200 किलो होता है।

फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों में कर्मचारियों के नारकीय हालात

कोरोना लॉकडाउन के दौरान फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों ने जमकर मुनाफ़ा कमाया। महामारी के दौरान घरों में बन्द लोगों को खाने-पीने की चीज़ें पहुँचाने के काम पर सरकार द्वारा रोक नहीं लगायी गयी थी इसलिए अपनी रोज़ी कमाते रहने के लिए अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में भी फ़ूड डिलीवरी कर्मचारी कोरोना महामारी के साये में यह काम करते रहे। सरकार और कम्पनी दोनों की तरफ़ से ही उनके इस कठिन काम की तारीफ़ की जाती रही। मोदी ने उन्हें ‘फ़्रण्टलाइन वर्कर’ कहा तो वहीं कम्पनियों ने उन्हें ‘हीरो’ कहा।