नया साल मज़दूर वर्ग के फ़ासीवाद-विरोधी प्रतिरोध और संघर्षों के नाम! साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्षों के नाम!

सम्पादकीय अग्रलेख

मज़दूर और मेहनतकश साथियो, एक और साल फ़ासीवादी उभार के घटाटोप, मेहनतकश वर्गों के बिखराव, पस्तहिम्मती और क़दम पीछे हटाने में बीत गया। हमारे देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के हमले बदस्तूर जारी रहे, जबकि दुनिया ज़ायनवादी इज़रायल और उसके आक़ा साम्राज्यवादी अमेरिका के हाथों फ़लस्तीन में एक ऐसे क़त्ले-आम की गवाह बन रही है, जिसकी कोई मिसाल इतिहास में मौजूद नहीं है। दुनिया भर में जनता चुप बैठ गयी हो, ऐसा नहीं है। आये-दिन कभी दुनिया के इस कोने में तो कभी उस कोने में जनता और मज़दूर वर्ग के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन फूटते रहते हैं। लेकिन ये आन्दोलन जनता के सब्र का प्याला छलक जाने का नतीजा होते हैं। इनके पीछे कोई निश्चित राजनीतिक लाइन या राजनीतिक नेतृत्व मौजूद नहीं होता। नतीजतन, ये बिखराव की अवस्था में ही समाप्त हो जाते हैं। आर्थिक संकट से बीते साल भी पूँजीवादी दुनिया निजात नहीं पा सकी है। उसकी सही तस्वीर आपको सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर या शेयर मार्केट के उछाल से नहीं मिल सकती है, जो मूलत: और मुख्यत:, सट्टेबाज़ पूँजी द्वारा पैदा किया गया बुलबुला होता है। असल में, उत्पादक अर्थव्यवस्था निरन्तर एक मन्द मन्दी से गुज़र रही है, जो बीच-बीच में गम्भीर संकटों में फूट पड़ रही है। जैसा कि सभी आर्थिक संकटों के दौर में होता है, सबसे बड़े पूँजीपति दूसरे छोटे और मँझोले पूँजीपतियों को निगलकर और तुन्दियल हो जाते हैं। 2024 में ही मोदी के चहेते अडाणी, अम्बानी, बिड़ला, टाटा और भारती मित्तल ने ग़ैर-वित्तीय कारपोरेट क्षेत्र की कुल पूँजी का 20 प्रतिशत अपने हवाले कर लिया! उनके मुनाफ़े दिखाकर हमें बताया जाता है कि अर्थव्यवस्था कैसे दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की कर रही है। हमें पूँजीवादी मीडिया बताता है कि हम बेरोज़गारी और महँगाई से टूटती अपनी कमर पर ध्यान न दें! हम हमारे देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या पर गर्व करें! यही तो हमारे “राष्ट्रवादी” होने की निशानी है कि हम एक कम्पनी के अरबपति मालिक के आदेश में हफ़्ते भर में कम-से-कम 90 घण्टे काम करें, देश की तरक्की के लिए अपने पेट पर पट्टी बाँध लें, उनकी तिजोरियाँ अपने ख़ून को सिक्कों में ढालकर भरते जायें और कोई चूँ-चपड़ न करें! तब यह मान लिया जायेगा कि हम “देशभक्त” और “राष्ट्रवादी” हैं। इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ वर्ग अपने राष्ट्रवाद की चक्की में इसी प्रकार मज़दूरों-मेहनतकशों को पीसता है। इसलिए जहाँ आप “राष्ट्र” या “राष्ट्रवाद” शब्द पढ़ें या सुनें तो उसकी जगह पर ‘पूँजी’ और ‘पूँजी की चाकरी’ शब्द पढ़ें: “राष्ट्र की तरक्की” यानी धन्नासेठ पूँजीपतियों की तरक्की और “राष्ट्रवादी” होने का सबूत मतलब बिना चूँ-चपड़ किये पूँजी की चाकरी और उजरती गुलामी करते जाना।

बीते साल 18वें लोकसभा चुनावों में फ़ासीवादी भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गयीं। कई लोग इसे देखकर फूले नहीं समा रहे थे और इसे फ़ासीवाद को लगे भयंकर झटके के रूप में देख रहे थे। ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादकीय में हमने तभी चेताया था कि फ़ासीवादी शासन के हमलावर रुख़ और मेहनतकश वर्ग के लिए उसके ख़तरे को चुनावी नतीजों के आधार पर कम करके आँकना मज़दूर वर्ग के लिए भारी भूल होगी। गठबन्धन सरकार बनाने के कारण भाजपा की नीतियों में बस एक ही बदलाव आयेगा: सीएए-एनआरसी, अपने साम्प्रदायिक ‘यूनीफॉर्म’ सिविल कोड जैसे कुछ केन्द्रीय प्रतीकात्मक मुद्दों पर कानून आदि बनाने का शोर वह कम कर देगी, हालाँकि बिना कोई क़ानून बनाये वह देश में मुसलमानों के अलगाव को, उनके विरुद्ध साम्प्रदायिक भावनाओं को उसी प्रकार या उससे भी ज़्यादा गति से भड़कायेगी। देश में भर में मस्जिदों के नीचे मन्दिर ढूँढने के लिए सर्वेक्षण करवाने से लेकर मॉब लिंचिंग व बुलडोज़र राज के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ टुटपुँजिया व लम्पट सर्वहारा वर्ग के बीच दंगाई माहौल तैयार करने की पिछले कुछ महीनों के दौरान ही भाजपा व संघ परिवार द्वारा की गयी साज़िशों से फ़ासीवादियों के इरादे साफ़ हो चुके हैं। नीतीश कुमार व चन्द्रबाबू नायडू इन हरक़तों पर बोलने के लिए मुँह खोलें इससे पहले ही उनके मुँह में उनके राज्यों के लिए ‘विशेष पैकेज’ की गड्डी ठूँस दी जाती है ताकि वे अपने-अपने राज्यों में अपनी क्षेत्रीय राजनीति चमका सकें, हालाँकि इससे भी ज़्यादा फ़ायदा अन्त में भाजपा को ही मिलता है। फिर भी न मानें तो ईडी, सीबीआई आदि का और संघ परिवार के काडर-आधारित ढाँचे का डर तो है ही जिसे दिखाकर नायडू और नीतीश जैसों की बाँह मरोड़ी जा सकती है।

हमने लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद ही स्पष्ट किया था कि मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए की गठबन्धन सरकार के दौरान क्या नहीं बदलेगा: पहला, मज़दूरों के हक़ों पर हमले, जो कि सरकार बनने के तत्काल बाद ही नये लेबर कोड्स को लागू कर देने की तैयारियों से स्पष्ट हो जाता है; दूसरा, जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों पर हमले, जो मोदी सरकार के नये कार्यकाल में नयी फ़ासीवादी दण्ड संहिताओं के लागू होने और उसके बाद से तमाम मज़दूर वर्ग के राजनीतिक कार्यकर्ताओं, जनपक्षधर जनवादी व नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं व पत्रकारों, वक़ीलों आदि पर मुकदमे ठोंकने, उनकी हत्याएँ करने और उन पर हमले करवाने की फ़ासीवादी कार्रवाइयों से स्पष्ट हो गया; तीसरा, मुसलमानों के विरुद्ध साम्प्रदायिकता की लहर को और भी ज़्यादा भड़काने की कार्रवाइयाँ जो मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में सम्भल और अजमेर शरीफ़ तक की घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है; और चौथा, नवउदारवादी जन-विरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को पहले से भी तेज़ रफ्तार से लागू करना क्योंकि यह इस समय समूचे पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है और सभी अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ दलों की इस पर मोटी सहमति है, जैसा कि बिजली वितरण की समूची प्रक्रिया को चण्डीगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश तक में निजी हाथों में सौंपने से लेकर जनता के जल-जंगल-ज़मीन को मध्य भारत के इलाके में बड़े पूँजीपतियों को सौंपने के लिए आदिवासी मेहनतकश जनता के बढ़ते राजकीय दमन और क़त्ले-आम से स्पष्ट हो जाता है। मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का एक साल पूरा होने से पहले ही ये बातें स्पष्ट तौर पर सामने आ चुकी हैं।

इतना स्पष्ट है कि चुनावी नतीजों के आधार पर ऐसे क़यास लगाना कि मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी और जन-विरोधी फ़ासीवादी हमलों में कोई कमी आने वाली है, भयंकर भूल होगी और यह सिद्ध भी हो चुका है।

इसके जवाब में क्या आम मेहनतकश जनता शान्त है? नहीं। ऐसा नहीं है। चाहे तमिलनाडु में सैमसंग के मज़दूरों की 37 दिन लम्बी चली हड़ताल हो, जो माकपा की केन्द्रीय ट्रेड यूनियन ‘सीटू’ की समझौतापरस्ती के कारण अपनी प्रमुख माँगों को पूरा करने से पहले ही समाप्त हो गयी; मारुति के अस्थायी मज़दूर यह सम्पादकीय लेख लिखे जाने के समय आन्दोलन की राह पर थे, हालाँकि उनके आन्दोलन के भीतर भी ऐसी विजातीय शक्तियाँ मौजूद हैं, जिनको उन्होंने परिधि पर नहीं पहुँचाया तो इस आन्दोलन का अन्त भी एक धीमी मौत मरने में हो सकता है। चण्डीगढ़ और उत्तर प्रदेश में बिजली के ख़िलाफ़ आन्दोलन से लेकर आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य स्कीम वर्करों के आन्दोलन तक, विशाखापत्तनम इस्पात संयंत्र के निजीकरण के विरुद्ध हुए संघर्ष से लेकर छात्रों-युवाओं के राष्ट्रीय शिक्षा नीति और एनटीए के विरुद्ध हुए संघर्षों तक, जनता स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती रही, कभी-कभार कुछ आंशिक सफलता भी हासिल करती रही और अधिकांश मामलों में स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम व नेतृत्व के अभाव में बिखरती भी रही। लेकिन इन स्वत:स्फूर्त संघर्षों से भी इतना तो साफ़ है कि जनता चुप नहीं बैठ गयी है और नही वह पीठ झुकाकर कोड़े खाने को तैयार है। जब भी उसका धीरज जवाब देता है, तो वह सड़कों पर उतरती है। पूरे 2024 में उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक और पश्चिमी से लेकर पूर्वी भारत तक जनता महँगाई, बेरोज़गारी, पहुँच से बाहर होती शिक्षा, चिकित्सा, आवास से आजिज़ आकर बार-बार आन्दोलन का रास्ता पकड़ती रही है। भाजपा की सीटों में गिरावट लोगों के असन्तोष को प्रदर्शित करने वाला एक अहम निशान था।

लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि मज़दूर व मेहनतकश जनता समेत आम तौर पर जनता के जनसमुदाय स्वत:स्फूर्त संघर्षों के बूते ही हुक्मरानों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाइयाँ नहीं जीत पाते। एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के अभाव में जनता के तमाम संघर्ष कुछ समय के बाद बिखराव का शिकार हो जाते हैं, भले ही कभी-कभार उनकी कुछ मामूली माँगें मान भी ली जाएँ। एक क्रान्तिकारी पार्टी मज़दूर वर्ग के संघर्ष का मुख्यालय होता है। यह सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी ही होती है जो जनसमुदायों के बीच एक सही राजनीतिक लाइन के वर्चस्व को स्थापित करती है और सही राजनीतिक लाइन व नेतृत्व के बूते इन जनसमुदायों को वह शक्ति प्रदान करती है कि वे शासक पूँजीपति वर्ग से अपनी लड़ाइयों को एकजुट और संगठित तरीक़े से लड़ सकते हैं और न सिर्फ़ अपनी तात्कालिक माँगों के संघर्षों को प्रभावी तरीक़े से चला सकते हैं, बल्कि समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर पूँजीवादी व्यवस्था का नाश करने के अपने दूरगामी ऐतिहासिक लक्ष्य को भी पूरा कर सकते हैं। 2024 ने एक बार फिर हम मज़दूरों-मेहनतकशों के सामने एक ऐसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के प्रधान कार्यभार को स्पष्ट कर दिया है। आज यह कार्यभार इसलिए भी अहम हो गया है कि फ़ासीवादी निज़ाम के हमलों का प्रभावी प्रतिरोध भी ऐसी पार्टी के अभाव में संगठित नहीं किया जा पा रहा है। ‘मज़दूर बिगुल’ ऐसी पार्टी के निर्माण की मुहिम का ही एक हिस्सा है। इस मुहिम से सभी मज़दूर-मेहनतकश भाई-बहन को जुड़ना चाहिए। यह हमारे नये वर्ष का मज़दूर संकल्प होना चाहिए।

हमारे देश में बीते साल मोदी-शाह सरकार द्वारा कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों तक में दमित राष्ट्रों के दमन में और भी ज़्यादा तीव्रता आयी। मणिपुर के हालात से हम वाक़िफ़ है। मैतेयी और कुकी-  दो समुदायों के बीच जातीय व साम्प्रदायिक हिंसा के फलस्वरूप लगभग 300 लोग अपनी जानें गवाँ चुके हैं और हिंसा अभी भी पूरी तरह से थमी नहीं है। यह पूरा मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार के कुकर्मों का ही नतीजा था। हर जगह संघ परिवार समाज में मौजूद विभाजन की रेखाओं को देखता है और उसे आधार बनाकर जनता को बाँटने के लिए फ़िरकापरस्त और दंगाई माहौल तैयार करता है, ताकि पूरे सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस कर जनता को निशस्त्र और अशक्त बना दिया जाये। क्यों? क्योंकि पूँजी के हितों की सेवा के लिए जनता को तोड़ देना ज़रूरी होता है और फ़ासीवादियों से बेहतर यह काम कोई नहीं कर सकता है। साथ ही, मणिपुर के राष्ट्रीय दमन को बढ़ावा देने और उसके जन-प्रतिरोध को नष्ट कर देने में भी यह संघी फ़ासीवादियों के लिए उपयोगी साबित होगा। कश्मीर में जनता का अकथनीय दमन पहले के ही समान जारी है और उसकी आकांक्षाओं को फौजी बूटों तले रौंदने का काम फ़ासीवादी सरकार पहले की पूँजीवादी सरकारों से बेहतर तरीक़े से करती रही है। लेकिन राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध दशकों से जारी ये संघर्ष कभी तीव्र तो कभी मद्धम गति से जारी ही रहेंगे। वे अगर जीत नहीं सकेंगे तो वे हारेंगे भी नहीं।

सर्वहारा वर्ग हर प्रकार के दमन और उत्पीड़न का विरोध करता है, चाहे वह हमारे देश के शासक वर्ग द्वारा किसी राष्ट्र या राष्ट्रीयता का ही क्यों न हो। जो सर्वहारा वर्ग अपने देश के पूँजीपति वर्ग द्वारा दमित कौमों के दमन के विरुद्ध नहीं लड़ता, वह ख़ुद भी अपने देश के पूँजीपति वर्ग के हाथों शोषित और उत्पीड़ित होने के लिए अभिशप्त होता है। सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स ने बताया था कि ब्रिटिश मज़दूर वर्ग की राजनीतिक अक्षमता के सबसे प्रमुख कारणों में से एक यह था कि वह ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग के द्वारा आयरलैण्ड को गुलाम बनाये जाने और उसके राष्ट्रीय दमन पर एक क्रान्तिकारी अवस्थिति अपनाने में नाक़ाम रहा था। तमाम साम्राज्यवादी देशों में मज़दूर वर्ग अपने देश के शासक वर्ग के हाथों अन्धराष्ट्रवाद के हाथों ठगा जाता रहा और उनके साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने में उनकी मदद कर उनकी शक्ति को बढ़ाता रहा। यानी, अपने दुश्मन की ताक़त को ही बढ़ाता रहा। जब हम भी अन्धराष्ट्रवाद की लहर में बहकर, मिसाल के तौर पर, कश्मीर की जनता को फौजी बूटों तले रौंदे जाने की हिमायत करते हैं, तो हम अपने देश के पूँजीपति वर्ग, मालिकों-धन्नासेठों का हाथ मज़बूत कर रहे होते हैं, यानी अपने ही दुश्मनों के हाथों का खिलौना बन जाते हैं। नतीजतन, हम स्वयं उनके हाथों लुटने और दबाये जाते रहने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं।

इसीलिए सर्वहारा वर्ग के एक अन्य महान शिक्षक लेनिन ने बताया था कि मज़दूर वर्ग सभी राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करता है। वह साझा सहमति, जनवाद और बराबरी पर बने अधिकतम बड़े राज्य और देश का पक्षधर होता है, लेकिन ऐसी एकता ज़ोर-ज़बर्दस्ती के आधार पर नहीं बन सकती है। वह केवल जनवाद और समानता के आधार पर ही बन सकती है। जब सर्वहारा वर्ग ने रूस में सभी दमित कौमों मसलन जॉर्जियाई, यूक्रेनी, अजरबैज़ानी, आर्मेनियाई, आदि को कौमी आज़ादी का हक़ दिया, तो कुछ ही समय में ये राष्ट्र स्वयं समाजवादी सोवियत गणराज्य में शामिल हो गये। हम किसी भी राष्ट्र के अलग होने का समर्थन नहीं करते, हम उनके अलग होने के अधिकार का समर्थन करते हैं। इन दोनों में उसी प्रकार फ़र्क है जैसे कि तलाक का समर्थन करने और तलाक के अधिकार का समर्थन करने में। हम सभी वैवाहिक जोड़ों के बीच तलाक का समर्थन नहीं करते और न ही ऐसी कामना करते हैं। लेकिन हम उनके तलाक व अलग होने के अधिकार का समर्थन करते हैं, जो कि किसी का भी जनवादी अधिकार है। इस जनवादी अधिकार का समर्थन करके ही सर्वहारा वर्ग एक सही क्रान्तिकारी अवस्थिति को अपना सकता है और अपने शोषक और शत्रु पूँजीवादी शासक वर्ग को सही मायने में चुनौती दे सकता है।

यही वजह है कि आज दुनिया के पैमाने पर हो रही साम्राज्यवादी-पूँजीवादी बर्बर दमन की सबसे अभूतपूर्व और प्रातिनिधिक घटना पर भी भारत के मज़दूरों-मेहनतकशों को अपनी जानकारी बढ़ानी होगी और दमित-उत्पीड़ित जनता के पक्ष में खड़े होना होगा। हम यहाँ फ़लस्तीन की बात कर रहे हैं, जिसकी जनता के ख़िलाफ़ साम्राज्यवादी अमेरिका और मध्य-पूर्व में उसका भाड़े का लठैत ज़ायनवादी इज़रायल एक ऐसे हत्याकाण्ड को अंजाम दे रहे हैं, जिसकी कोई मिसाल इतिहास में ढूँढ पाना मुश्किल है।

हमारे देश के फ़ासीवादी फ़लस्तीन के मसले को भी हिन्दू-मुसलमान का मसला बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन वास्तव में इसका मुसलमान पहचान या किसी साम्प्रदायिक मसले से कोई रिश्ता नहीं है। यह वास्तव में फ़लस्तीन की जनता की पश्चिमी साम्राज्यवाद की शहर पर किये गये ज़ायनवादी कब्ज़े के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई है, जो पिछले सात दशकों से भी ज़्यादा समय से जारी है। फ़लस्तीन की जनता में मुसलमानों के अलावा फ़लस्तीनी यहूदी व ईसाई भी शामिल हैं, जो इज़रायली-अमेरिकी कब्ज़े के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। यह भी समझना ज़रूरी है कि इज़रायल कोई देश या राष्ट्र नहीं है, बल्कि एक औपनिवेशिक परियोजना है, जिसे पश्चिमी साम्राज्यवाद के बल पर चलाया जाता रहा है। साथ ही, इज़रायल का यहूदी लोगों से भी कोई लेना-देना नहीं है। उल्टे दुनिया भर की यहूदी जनता का बड़ा हिस्सा आज इज़रायल के ख़िलाफ़ खड़ा है और फ़लस्तीन का समर्थन करता है। भारत की शुरुआती दौर की विदेश नीति, विशेष तौर पर, इन्दिरा गाँधी के दौर तक की, फ़लस्तीन की आज़ादी का कम-से-कम औपचारिक तौर पर समर्थन करती थी। भारत के पूँजीपति वर्ग के ही एक प्रतिनिधि होने के बावजूद महात्मा गाँधी ने भी फ़लस्तीन की आज़ादी का समर्थन किया था। लेकिन इन सच्चाइयों से भारत के मेहनतकश अवाम और छात्रों-युवाओं का बड़ा हिस्सा वाक़िफ़ नहीं है। सवाल धर्म या सम्प्रदाय का है ही नहीं, सवाल है इंसाफ़ और नाइंसाफ़ी का। फ़लस्तीन इंसाफ़ का हक़दार है, जिस अमेरिकी साम्राज्यवादी और इज़रायली ज़ायनवादी ख़ून के दलदल में डुबो देना चाहते हैं।

गज़ा में पिछले लगभग 13 महीनों में इज़रायल ने एक लाख से भी ज़्यादा लोगों का बर्बर क़त्लेआम किया है, जिसमें से 60 प्रतिशत औरतें और बच्चे हैं। योजनाबद्ध तरीक़े से एक हत्याकाण्ड को अंजाम दिया जा रहा है। हमें अपने देश में जल्द से जल्द इस हत्याकाण्ड के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी और जनता को सच्चाई से वाक़िफ़ कराना होगा। हमें हमारे देश में इज़रायल से किसी भी रूप में रिश्ता रखने वाली हर कम्पनी, संगठन, विश्वविद्यालय, सरकारी या ग़ैर-सरकारी उपक्रम का पूरा बहिष्कार करने की मुहिम छेड़नी चाहिए, भारत सरकार पर इज़रायल से हर प्रकार के सम्बन्ध समाप्त करने की माँग उठानी चाहिए ताकि जारी क़त्लेआम को रोकने के लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक मेहनतकश जनता द्वारा बनाये जा रहे दबाव को बढ़ाया जा सके। यह भी 2025 में हमारा एक महत्वपूर्ण कार्यभार होना चाहिए। यह भारत के सर्वहारा वर्ग का अन्तरराष्ट्रीयतावादी कर्तव्य है। दुनिया के अधिकांश देशों में सर्वहारा वर्ग यह फ़र्ज़ निभा रहा है, लेकिन हम इसके बारे में अभी पर्याप्त चेतना के अभाव में पीछे हैं। यह कमी इस साल हमें दूर करनी होगी।

यह सच है कि बीता साल भी पूरी दुनिया में मेहनतकश अवाम के लिए प्रतिक्रिया और पराजय के अन्धकार में बीता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। यह समय पस्तहिम्मती का नहीं, बल्कि अपनी हार से सबक लेकर उठ खड़े होने का है। रात चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह को आने से नहीं रोक सकती। इस नये साल हमें सूझबूझ, जोशो-ख़रोश और ताक़त के साथ गोलबन्द और संगठित होने को अपना नववर्ष का संकल्प बनाना होगा। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के ख़िलाफ़, हर रूप में शोषण, दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ समूची मेहनतकश जनता को संगठित करने के काम को नये सिरे से, रचनात्मक तरीक़े से अपने हाथों में लेना होगा। ‘मज़दूर बिगुल’ की तरफ़ से हम सभी मेहनतकश साथियो, भाइयों-बहनों को ललकारते हैं:

बजा बिगुल मेहनतकश जाग

चिंगारी से लगेगी आग!

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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