वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त
एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!
अदिति
पिछले 9 सितम्बर से दक्षिण कोरिया की कम्पनी सैम्संग प्रौद्योगिकी के लगभग 1,500 मज़दूर दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हड़ताल पर थे। ज्ञात हो भारत में सैम्संग के दो कारख़ाने हैं, जिसमें से एक चेन्नई में है, जहाँ लगभग 2,000 मज़दूर काम करते हैं और यहाँ घरेलू उपकरणों का उत्पादन होता है। इससे भारत में कम्पनी के वार्षिक 12 अरब डॉलर राजस्व में लगभग एक तिहाई का योगदान होता है। तमिलनाडु के श्रीपेरम्दूर स्थित सैम्संग फैक्ट्री में, जिसकी स्थापना 2007 में हुई थी, लगभग 1723 परमानेन्ट मज़दूर काम करते हैं, जिसमें से 1350 मज़दूर हड़ताल में शामिल हैं। 9 सितम्बर से हड़ताली मज़दूर फैक्ट्री के पास इकट्ठा होकर नारे लगा रहे थे और वेतन बढ़ोतरी की माँग कर रहे थे।
पिछले तीन साल से मज़दूरों के वेतन में बढ़ोतरी नहीं हुई थी और मज़दूर वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे। साथ ही यूनियन को मान्यता देने की माँग भी मज़दूर उठा रहे थे। हड़ताली मज़दूरों की एकता तोड़ने के लिए सैम्संग प्रबन्धन द्वारा मज़दूरों के हड़ताल को “अवैध” क़रार दिया गया था। सैम्संग प्रबन्धन ने दो सप्ताह पहले ज़िला अदालत में प्रदर्शनकारी मज़दूरों के ख़िलाफ़ मुक़दमा भी दायर किया था, जिसमें फैक्ट्री के अन्दर और आसपास नारे लगाने और भाषण देने पर रोक लगाने की माँग की गयी थी। साथ ही सैम्संग प्रबन्धन द्वारा मज़दूरों को ई-मेल भेज कर काम पर लौटने का दबाव बनाया गया और उन्हें काम से निकालने के लिये धमकी दी जा रही थी।
सैम्संग कम्पनी को राज्य सरकार से पूरा समर्थन मिल रहा था। मुख्यमन्त्री से लेकर श्रम मन्त्री हड़ताल को जल्द से जल्द समाप्त करने की बात कर रहे थे। केन्द्रीय श्रम मन्त्री तक पत्र लिखकर राज्य सरकार को हड़ताल जल्द से जल्द वापस करवाने के लिए कह रहे थे , ताकि विदेशी निवेश प्रभावित न हो और विदेशी कम्पनियों पर हड़ताल का ग़लत प्रभाव न जाये। इसके बाद सैम्संग कम्पनी ने तथाकथित 7 मज़दूरों की एक कमेटी से वार्ता की, जिनके साथ वार्ता के बाद प्रबन्धन ने अपनी ओर से हड़ताल समाप्ति की घोषणा कर दी। राज्य सरकार ने भी इसी तरह का प्रचार किया और हड़ताल जारी रहने पर पूरे आन्दोलन को बदनाम करने का काम शुरू कर दिया। इससे यह भी समझा जा सकता है कि किस तरह “उपद्रवी” मज़दूरों की हड़ताल को तोड़ने के लिए कम्पनी और सरकार की एकता काम करती है। हड़ताल तोड़ने की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूर डटे रहे। सैम्संग प्रबन्धन वेतन बढ़ोतरी की माँग को स्वीकार करने की बात तो कर रही थी, लेकिन उनका कहना है कि वेतन में बढ़ोतरी सिर्फ़ कुछ महीनों के लिए व नाममात्र की ही की जायेगी। इसी के साथ यूनियन को मान्यता देने से प्रबन्धन ने साफ़ मना कर दिया था। 8 अक्टूबर को विरोध प्रदर्शन जारी रखने पर पुलिस द्वारा मज़दूरों पर लाठीचार्ज किया गया था। साथ ही धरना स्थल पर लगे टेण्ट को उखाड़ कर मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया था। पुलिस ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 191(2), 296(बी), 115(2), 132, 121(1), 351(2) और 49 के तहत अपराधों के लिए कई मज़दूरों पर एफ़.आई.आर दर्ज की है।
बता दें कि सैम्संग कम्पनी मज़दूरों के अधिकारों का दमन करने के लिए कुख्यात है। इसी साल जुलाई में साउथ कोरिया के सैम्संग प्लाण्ट में काम करने वाले मज़दूर वेतन बढ़ाने व अवकाश की संख्या बढ़ाने हेतु हड़ताल पर गये थे। जहाँ तक चेन्नई की हड़ताल का सवाल है तो प्रबन्धन, प्रशासन व पुलिस द्वारा दवाब बनाये जाने के कारण कई मज़दूरों के काम पर वापस जाने की ख़बर भी आयी, लेकिन मज़दूर अड़े रहे। हालाँकि आख़िर में यह हड़ताल समझौते में समाप्त हो गयी। समझौते में तय हुआ कि सैम्संग प्रबन्धन कुछ महीनों तक वेतन में बढ़ोतरी करेगा, हड़लाती मज़दूरों को काम से नहीं निकाला जायेगा और न ही कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जायेगी। यूनियन बनाने की माँग को नहीं माना गया है, यह माँग अभी कोर्ट में विचाराधीन है। यूनियन बनाने की माँग इस हड़ताल की मुख्य माँगों में से एक थी। हड़ताल ख़त्म होते ही तमिलनाडु सरकार, श्रम मन्त्री, सीटू नेता और सैम्संग प्रबन्धन आपस में खूब गलबहियाँ कर रहे थे और एक दूसरे को बधाई दे रहे थे।
सीटू की रस्मी–कवायद
सैम्संग कम्पनी की हड़ताल में सीटू सक्रिय रही है, लेकिन मज़दूरों के शानदार संघर्ष को गड्डे में धकेलने का काम सीटू द्वारा ही किया गया है। पूरे घटनाक्रम के बाद सीटू द्वारा 21 अक्टूबर को औद्योगिक क्षेत्र में एक दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया गया था। लेकिन सैम्संग की हड़ताल ख़त्म होने पर यह आह्वान भी वापस हो गया। हड़ताल मज़दूरों के लिए सशक्त हथियार है, लेकिन सीटू जैसी संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें इस हथियार पर लगातार ज़ंग की परत चढ़ाने का काम करती हैं। इनके द्वारा मज़दूरों के सारे गुस्से को एक या दो दिवसीय रस्मी हड़ताल तक सीमित कर दिया जाता है। इससे मज़दूर आन्दोलन को कमतर करने और मज़दूरों के उस अग्रणी हिस्से को, जो हड़ताल में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं, और उनके गुस्से को ग़लत दिशा दे दी जाती है। वहीं सीटू अपनी आका पार्टी सीपीएम पर कभी सवाल खड़ा नहीं करती और न ही कर सकती है। बता दें कि सीपीएम ने तमिलनाडु की स्टालिन सरकार को भी अपना समर्थन दिया हुआ है जो जी-जान से हड़ताल को तोड़ने में सैम्संग प्रबन्धन के साथ लगी हुई थी।
अपने को मज़दूरों का हितैषी बताने वाले मज़दूर वर्ग के ग़द्दार, जब मज़दूर-विरोधी बिल संसद में पास हो रहे होते हैं, तब ये लोग अपने मुँह में दही जमा कर बैठ जाते हैं, तब इनकी आका पार्टी के मुँह से एक शब्द तक नहीं निकलता और अगर शब्द निकलते भी हैं तो वे ज़ुबानी जमाखर्च से ज़्यादा कुछ नहीं होते। सोचने की बात है कि सीपीआई, सीपीएम व सीपीआई(एमएल) लिबरेशन जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ संसद और विधानसभाओं में हमेशा मज़दूर-विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? ज़्यादा से ज़्यादा संशोधनवादी पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें रस्मी प्रदर्शन या विरोध की नौटंकी ही करती हैं। इनका मज़दूर वर्ग व आन्दोलन से ग़द्दारी का लम्बा इतिहास रहा है। नन्दीग्राम-सिंगूर से लेकर कई जगहों पर इन्हीं संशोधनवादियों ने मज़दूर व ग़रीब किसानों के आन्दोलनों को कुचलने का काम किया है। तो इनकी ट्रेड यूनियनों से किसी आन्दोलन को आगे लेकर जाने की उम्मीद करना बेमानी होगा। ऐसी ट्रेड यूनियनें इस व्यवस्था के लिए सुरक्षा कवच का काम करती हैं और ऐसी रस्मी कवायदों व अनुष्ठानो के ज़रिये और सिर्फ़ वेतन-भत्ते की लड़ाई तक समूची मज़दूरवर्गीय राजनीति को सीमित कर मज़दूर आन्दोलन को गड्ढे में ले जाने का काम करती हैं।
आज देखा भी जाये तो इन ग़द्दार यूनियनों का आधार सिर्फ़ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच है, जो कुल मज़दूर आबादी का महज़ 7 प्रतिशत है और अब स्थायी मज़दूरों के बीच से भी इनका आधार ख़त्म होता जा रहा है। इस आन्दोलन को भी इन्होंने स्थायी मज़दूरों तक ही सीमित रखा। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँगें इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर आती हैं और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। ऐसी एक दिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो।
आगे का रास्ता
सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा। भयंकर पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न और अपमान से कसमसा रहे मज़दूर वर्ग को यह समझना होगा कि अपने तमाम लाव-लश्कर के बावजूद पूँजीवाद का कवच अभेद्य नहीं है। यदि मज़दूर वर्ग सही राजनीति और क्रान्तिकारी नेतृत्व के तहत संगठित होकर लड़े और व्यापक मेहनतकश अवाम की अगुवाई करे तो इस व्यवस्था को चूर-चूर किया जा सकता है। सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की हड़ताल हमें सबक़ देती है कि बिना व्यापक एकता के आज के दौर में जीत सम्भव नहीं है या फिर बहुत मुश्किल है। आज हमें अपनी एकता को व्यापक बनाना के लिए पूरे इलाक़े व सेक्टर के मज़दूरों के बीच प्रचार कर उन्हें जोड़ना होगा, इलाक़ाई और सेक्टरगत यूनियनें खड़ी करनी होंगी और बड़े पैमाने पर इलाक़े का चक्का ज़ाम करना होगा, तभी ऐसी लड़ाइयों को जीता भी जा सकता है।
सवाल उठता है कि लाखों-लाख सदस्य होने का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर भी कोई जुझारू आन्दोलन क्यों नहीं कर पातीं? अगर इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ देते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियनों के इन मौक़ापरस्त, दलाल, धन्धेबाज़ नेताओं का चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को अब ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। एक जुझारू, ताक़तवर संघर्ष के लिए व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि उनके बीच इन नक़ली मज़दूर नेताओं का, लाल झण्डे के इन सौदागरों का पूरी तरह पर्दाफ़ाश किया जाये। (‘मज़दूर बिगुल’, अप्रैल, 2022 से)
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2024
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