मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (नौवीं क़िस्त)
शिवानी
सबसे पहले तो ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों से माफ़ी चाहेंगे कि इस श्रृंखला को जिस नियमितता के साथ चलाये जाने की आवश्यकता थी, उसका अभाव रहा है। इसके लिए हम पाठकों के समक्ष आत्मालोचना प्रस्तुत करते हैं। भविष्य में पूरी कोशिश रहेगी कि यह श्रृंखला नियमित तौर पर चले। यह लेखमाला इस मक़सद के साथ शुरू की गयी है कि मज़दूर आन्दोलन में मौजूद उन प्रवृत्तियों की शिनाख़्त की जाये जो आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के तात्कालिक आर्थिक-राजनीतिक और दूरगामी राजनीतिक हितों के लिए बेहद ख़तरनाक हैं। यह वे प्रवृत्तियाँ हैं जो कहने के लिए बात तो मज़दूर वर्ग की करती हैं लेकिन सचेतन या अचेतन तौर पर, सेवा मालिकों की जमात की करती हैं। चूँकि ये सभी बातें मज़दूर वर्ग के “हितों” और उसकी “राजनीति” को आगे बढ़ाने के नाम पर की जाती हैं, इसलिए मज़दूर साथियों और संगठनकर्ताओं को इन ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों के बारे में जानना चाहिए, उनसे सचेत हो जाना चाहिए और उनके ख़िलाफ़ हर मोर्चे पर समझौताविहीन विचारधारात्मक व व्यावहारिक संघर्ष चलाना चाहिए।
हमने पिछली आठ किश्तों में मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवाद की प्रवृत्ति पर अपनी बात रखी थी जो चर्चा अभी भी जारी है। अर्थवाद पर केन्द्रित अब तक की चर्चा में हमने बताया कि किस प्रकार अर्थवाद मज़दूर आन्दोलन में एक ख़तरनाक अवसरवादी प्रवृत्ति है। अर्थवाद मज़दूर आन्दोलन के अन्तिम लक्ष्य को वेतन-वृद्धि, कार्य-स्थितियों में सुधार, बोनस-ग्रैचुटी आदि के लिए आर्थिक संघर्ष तक सीमित कर देता है। अर्थवाद आर्थिक संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष के बीच में दीवार खड़ी करके मज़दूर वर्ग को केवल आर्थिक संघर्ष के गोल चक्कर में घुमाते रहने का पक्षधर होता है और इसके लिए उसकी दलील यह होती है कि मज़दूरों की राजनीतिक मसलों में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती है और मज़दूर केवल वेतन-भत्तों की लड़ाई में ही रुचि रखते हैं। अर्थवाद के रूसी संस्करण की बात करते हुए हमने देखा था कि रूस में अर्थवादी वहाँ की विशिष्ट स्थितियों में राजनीतिक संघर्ष को चलाने की ज़िम्मेदारी उदार बुर्जुआ वर्ग पर डाल देते थे और मज़दूरों के लिए केवल फ़ैक्ट्री-आधारित आर्थिक संघर्षों को चलाने का काम आरक्षित रखते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक मामलों में अर्थवादी मज़दूर वर्ग को पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनने का उपदेश देते थे और सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति और पक्ष की अनदेखी करते थे।
दरअसल, अर्थवाद हिरावल पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को नकारता है और मानता है कि पार्टी का काम केवल आन्दोलन की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया को देखते रहना है और घटनाओं को मात्र दर्ज करते रहना है। हमने अपनी चर्चा में यह भी देखा कि स्वतःस्फूर्तता की पूजा करते हुए अर्थवादी क्रान्तिकारी सिद्धान्त और सचेतना के पहलू को कोई विशेष महत्व नहीं देते हैं और मानते हैं कि समाजवादी विचारधारा स्वतःस्फूर्त रूप से मज़दूर आन्दोलन के भीतर से पैदा होती है और आर्थिक संघर्ष अपने आप एक ख़ास मंज़िल पर राजनीतिक संघर्ष में तब्दील हो जाते हैं। इसके विपरीत मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी दर्शन और विज्ञान, यानी कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद बताता है कि समाजवादी विचारधारा स्वतःस्फूर्त आर्थिक व ट्रेड यूनियन संघर्षों के ज़रिये अपने आप आन्दोलन में पैदा नहीं होती है और न ही अपने आप मज़दूर आन्दोलन में उसका प्राधिकार स्थापित हो जाता है। सर्वहारा विचारधारा का प्रवेश आन्दोलन में ‘बाहर से’ होता है यानी उन क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों (जिन्हें लेनिन ने ‘क्या करें?’ में क्रान्तिकारी जीवाणुओं (revolutionary bacilli) की संज्ञा दी थी) के ज़रिये होता है जिन्होंने राजनीतिक तौर पर सर्वहारा वर्ग का पक्ष चुना होता है और जो उसके संघर्षों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े होते हैं। और ठीक इसीलिए वे सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्षों के ऐतिहासिक अनुभवों का समाहार कर पाते हैं जिसके आधार पर सर्वहारा विचारधारा निःसृत होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई मज़दूर यह भूमिका नहीं निभा सकता। इसका अर्थ केवल इतना है कि जब कोई मज़दूर भी इस भूमिका को निभाता है तब वह राजनीतिक वर्ग के तौर पर मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व एक क्रान्तिकारी विचारक और बुद्धिजीवी के रूप में करता है, न कि मज़दूर वर्ग में पैदा होने के लिहाज़ से सामाजिक वर्ग के तौर पर वह यह भूमिका अदा करता है। इस पूरी चर्चा को तफ़सील से जानने के लिए पाठक अब तक प्रकाशित हुई किश्तों को पढ़ सकते हैं।
यानी कुल मिलाकर कहें तो अर्थवाद की ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्ति की आम चारित्रिक विशिष्टताएँ हैं: सचेतना के तत्व और क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बरक्स स्वतःस्फूर्तता की पूजा करना, मज़दूर आन्दोलन में कम्युनिस्ट राजनीति की जगह ट्रेड यूनियनवादी राजनीति की ओर भटकाव, राजनीतिक कार्य के दायरे को संकुचित व संकीर्ण बनाना, क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन व सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ की कार्रवाई के महत्व को कम करके आँकना, सांगठनिक प्रश्नों पर आदिमता और नौसिखुएपन की वक़ालत करना, पार्टी संगठन और जन संगठन के बीच के फ़र्क को गड्डमड्ड करना इत्यादि। इस पूरी चर्चा में हमने लेनिन के कई उद्धरण भी प्रस्तुत किये। हमने विशेष तौर पर लेनिन की इस प्रश्न पर सबसे महत्वपूर्ण रचना ‘क्या करें?’ से कई ज़रूरी हिस्सों को उद्धृत किया था जो आज भी सर्वहारा दृष्टिकोण से अर्थवाद की सबसे तीखी और प्रासंगिक आलोचना है।
अब आगे बढ़ते हैं। पिछली किश्त में हमारी चर्चा का मुख्य विषय जन संगठन और पार्टी संगठन के बीच का लेनिनवादी फ़र्क था। लेनिन ने इन दोनों के बीच के अन्तर को सुस्पष्ट तरीक़े से रखा है जैसा कि हमने पिछली चर्चा में देखा और साथ ही यह भी देखा कि किस प्रकार अर्थवादी इस फ़र्क को गड्डमड्ड करने का प्रयास करते हैं। लेनिन अर्थवाद की सांगठनिक प्रश्न पर आलोचना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हमारा काम क्रान्तिकारियों को नौसिखुओं के धरातल पर उतार लाने की पैरवी करना नहीं, बल्कि नौसिखुओं को ऊपर उठाकर क्रान्तिकारियों के धरातल पर पहुँचा देना है। लेनिन के अनुसार ट्रेड यूनियन जैसे जन संगठन के समान पार्टी हर हड़ताली मज़दूर को सदस्यता नहीं देती है बल्कि केवल उन मज़दूरों को सदस्यता देती है जो कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद यानी कि सर्वहारा विश्वदृष्टिकोण अपनाते हैं, मार्क्सवादी विज्ञान को अपनाते हैं और समाजवादी कार्यक्रम को अपनाते हैं। साथ ही, पार्टी सदस्यता केवल उन्हीं को दी जा सकती है जो कि किसी भी मोर्चे पर संगठन के लौह अनुशासन में काम करने को प्रतिबद्ध होते हैं।
इसके साथ ही, लेनिन ‘क्या करें?’ में पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को भी पेश करते हैं जो कि लेनिनवादी पार्टी उसूल के सबसे बुनियादी तत्वों में से एक है। पार्टी में पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा भी कोई हवा में पैदा हुआ अमूर्त सिद्धान्त नहीं है बल्कि इसके पीछे निश्चित ऐतिहासिक और वैज्ञानिक कारण हैं। यह लेनिनवादी पार्टी उसूल ही है जो बताता है कि बुर्जुआ राज्यसत्ता को चलाने का काम पूँजी के अहलकार करते हैं। यह वे पेशेवर लोग होते हैं जिनका काम ही राज्यसत्ता के अलग-अलग निकायों को सुचारू रूप से संचालित करने का होता है। यही नहीं, पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम बुर्जुआ पार्टियों में भी ऐसे लोग मौजूद होते हैं जिनका काम ही बुर्जुआ राजनीति में रहकर पार्टी और सरकार बनाने के ज़रिये पूँजीपति वर्ग की सेवा करना होता है। पेशेवरों द्वारा संचालित ऐसे राज्यसत्ता के ढाँचे का विध्वंस मज़दूरों-मेहनतकशों की ऐसी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में ही सम्भव है जिसका मेरुदण्ड पेशेवर क्रान्तिकारियों का ढाँचा हो यानी ऐसे लोग जिन्होंने सर्वहारा विचारधारा को आत्मसात कर सर्वहारा संघर्षों से एकरूप होकर पेशे के तौर पर सर्वहारा राजनीति को अपनाया हो और जो हर वक़्त, हर जगह और हर स्थिति में क्रान्ति और पार्टी की ज़रूरतों को सर्वोपरि रखते हों और जिनका जीवन पूरी तरह से क्रान्ति को समर्पित हो। यही कारण है कि लेनिन ‘क्या करें?’ में इस अवधारणा पर इतना ज़ोर देते हैं जो अवधारणा आगे चलकर बोल्शेविक पार्टी के सिद्धान्त का अभिन्न अंग बन गयी और आज भी हिरावल पार्टी के सिद्धान्त का अभिन्न अंग है। हालाँकि संशोधनवादियों से लेकर अराजकतावादी संघाधिपत्यवादियों तक ने इस लेनिनवादी अवधारणा पर हमला बोला है जिसका मुँहतोड़ जवाब कम्युनिस्टों द्वारा हर बार दिया गया है।
वास्तव में लेनिन के निशाने पर यहाँ सांगठनिक प्रश्न पर भी अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की प्रवृत्ति है। साथ ही, अर्थवाद सम्पूर्ण क्रान्तिकारी कार्य का दायरा इतना संकुचित और संकीर्ण बना देता है कि क्रान्तिकारियों के अलग संगठन की ज़रूरत ही वस्तुगत तौर पर ख़ारिज हो जाती है। रूसी अर्थवादी इस संकीर्णता को उचित और वैध ठहराने के लिए इसे एक विशेष “सिद्धान्त” के स्तर पर पहुँचाने की कोशिश कर रहे थे। वहीं लेनिन के मुताबिक़ क्रान्तिकारी कार्यों का दायरा अत्यधिक व्यापक होता है जिसकी पूर्वशर्त क्रान्तिकारियों के एक अखिल–रूसी संगठन का निर्माण है यानी पार्टी निर्माण का कार्य। यह अपने आप में सचेतन व सुव्यवस्थित प्रयासों, तैयारी और योजना की माँग करता है लेकिन अर्थवादी इस मामले में भी समस्त कार्रवाइयों को स्वतःस्फूर्तता के हवाले छोड़ देते हैं और इसलिए पार्टी के उन्नत सांगठनिक रूप की जगह ट्रेड यूनियन जैसे आदिम सांगठनिक रूपों की पैरवी करने लगते हैं। पार्टी सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक और विचारधारात्मक रूप से सबसे उन्नत तत्वों का दस्ता और उसका क्रान्तिकारी केन्द्र होती है और समस्त जनसमुदायों का प्रतिनिधित्व करती है। अर्थवाद दरअसल सभी राजनीतिक और सांगठनिक कार्यभारों को रोज़मर्रा के तात्कालिक आर्थिक संघर्षों के स्तर पर उतार लाता है और इसलिए हिरावल पार्टी की अवधारणा को वस्तुगत तौर पर नकार देता है क्योंकि इन तात्कालिक आर्थिक संघर्षों को संचालित करने के लिए मज़दूरों की ट्रेड यूनियनें ही काफ़ी होती हैं।
हमने पिछली बार इस बात की भी चर्चा की थी कि पेशेवर क्रान्तिकारियों से लैस गुप्त ढाँचे वाली हिरावल पार्टी का अर्थ यह नहीं है कि आन्दोलन के सभी कामों का केन्द्रीयकरण इस छोटे से समूह के हाथों में हो जाएगा। उल्टे लेनिन बताते हैं कि इस ढाँचे के कारण ही जनसमुदायों की पहलक़दमी और सक्रिय भागीदारी निर्बन्ध हो सकती है यानी जन संगठनों के काम भी सुचारू और व्यवस्थित तरीक़े से इसके ज़रिये ही चल सकते हैं। इनके अन्तर्गत मज़दूरों की ट्रेड यूनियनें, मज़दूरों के आत्म-शिक्षा मण्डल, ग़ैर-क़ानूनी साहित्य पढ़ने वाले मण्डल, जनसमुदायों के अन्य तमाम हिस्सों में काम करने वाले समाजवादी मण्डल और जनवादी मण्डल आदि का काम आता है। लेनिन कहते हैं:
“ऐसे मण्डलों, ट्रेड यूनियनों और संगठनों को हर जगह और बड़ी से बड़ी संख्या में होना चाहिए और उन्हें तरह-तरह के काम करने चाहिए। पर इन संगठनों और क्रान्तिकारियों के संगठन (यानी पार्टी – लेखिका) को एक चीज़ समझना, उनके बीच जो विभाजक रेखा है उसको मिटा देना और पहले से ही मौजूद इस बात की धुंधली मान्यता को कि जन आन्दोलन में काम करने के लिए कुछ ऐसे लोगों का होना ज़रूरी है जो केवल सामाजिक–जनवादी (कम्युनिस्ट) कार्य करते हों, और कि ऐसे लोगों को बड़े धैर्य और अध्यवसाय के साथ अपने को पेशेवर क्रान्तिकारी बनने की प्रशिक्षा देना चाहिए – और भी धुंधला बना देना बेतुकी और हानिकर बात है।” (ज़ोर हमारा)
लेनिन एक बार फिर अर्थवादियों की निम्न निर्मम शब्दों में आलोचना प्रस्तुत करते हैं जिन्होंने अपने नौसिखुएपन से क्रान्तिकारियों और क्रान्तिकारी कार्य की प्रतिष्ठा को नीचे गिराया है:
“जो व्यक्ति सिद्धान्त के मामले में ढीला-ढाला और ढुलमुल है, जिसका दृष्टिकोण संकुचित है, जो अपनी काहिली को छिपाने के लिए जनता की स्वतःस्फूर्तता की दुहाई देता है, जो जनता के प्रवक्ता के तौर पर कम बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के तौर पर अधिक काम करता है, जो ऐसी कोई व्यापक तथा साहसी योजना पेश करने में असमर्थ है जिसका विरोधी भी आदर करें और जो ख़ुद अपने पेशे की कला में – राजनीतिक पुलिस को मात देने की कला में – अनुभवहीन और फूहड़ साबित हो चुका है, ज़ाहिर है ऐसा आदमी क्रान्तिकारी नहीं, दयनीय नौसिखुआ है!” (ज़ोर हमारा)
हमने चर्चा की थी कि अर्थवाद की प्रवृत्ति आम तौर पर सांगठनिक कार्यों के दायरे और विस्तार को संकीर्ण बनाने की हिमायती होती है; हालाँकि इसके लिए वह अपनी इस समझदारी को कठघरे में खड़ा नहीं करती है बल्कि परिस्थितियों पर ही इसका ठीकरा फोड़ती है। राबोचेये द्येलो के एक अर्थवादी लेखक को उद्धृत करते हुए लेनिन उसकी इस धारणा का खण्डन पेश करते है कि क्रान्तिकारी कार्य करने के योग्य बहुत कम लोग होते हैं। लेनिन अर्थवादी तर्क से उपजी इस भ्रामक धारणा पर चोट करते हुए टिप्पणी करते हैं कि वास्तव में समाज क्रान्तिकारी कार्य के योग्य बहुत से व्यक्तियों को जन्म देता है लेकिन हम उन सबसे काम नहीं ले पाते हैं। पूँजीवाद अपनी नैसर्गिक गति से मज़दूर वर्ग और जनसमुदायों के अलग-अलग हिस्सों में असन्तोष को जन्म देता रहता है और अपने इस असन्तोष को वे व्यक्त भी करना चाहते हैं लेकिन राजनीतिक नेताओं और क़ाबिल संगठनकर्ताओं की कमी के कारण इस गुस्से को सुचारू और समुचित ढंग से ठोस आकार दे पाने में क्रान्तिकारी शक्तियों की असमर्थता रही है। लेनिन बताते हैं कि क्रान्तिकारी संगठनों का विकास और प्रगति न केवल मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के विकास की तुलना में पिछड़ा हुआ है बल्कि जनवादी आन्दोलन के विकास की तुलना में भी पिछड़ा हुआ है। लेनिन अर्थवादी संकीर्णतावादी नज़रिये के विपरीत सर्वहारा वर्गीय नज़रिया पेश करते हुए ‘क्या करें?’ में लिखते हैं:
“आन्दोलन का स्वतःस्फूर्त आधार जितना विशाल है, उसकी तुलना में क्रान्तिकारी कार्य का विस्तार बहुत संकुचित है, उसे चारों ओर से “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” के तुच्छ सिद्धान्त ने जकड़ रखा है। फिर भी इस समय न सिर्फ़ सामाजिक-जनवादी राजनीतिक उद्वेलनकर्ताओं को, बल्कि सामाजिक-जनवादी संगठनकर्ताओं को भी “आबादी के सभी वर्गों में जाना” चाहिए। शायद ही किसी व्यावहारिक कार्यकर्त्ता को इस बात में सन्देह होगा कि सामाजिक-जनवादी अपने सांगठनिक कामों की हज़ारों छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियों को विभिन्न वर्गों के अलग-अलग प्रतिनिधियों के बीच बाँट सकते हैं।”
इसके बाद लेनिन इस काम की पूर्वशर्त के तौर पर एक बार फिर पेशेवर क्रान्तिकारियों के संगठन की अनिवार्यता पर बल देते है। लेनिन कहते हैं:
“…काम के इन तमाम छोटे-छोटे टुकड़ों को एक लड़ी में पिरोने के लिए, जिससे की काम तो बंटे, पर आन्दोलन न बाँट जाये, और इस प्रकार के छोटे-मोटे काम करनेवालों के मन में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि उनका काम आवश्यक और महत्वपूर्ण है, जिस विश्वास के बिना वे कभी काम नहीं करेंगे, यह ज़रूरी है कि हमारे पास परखे हुए क्रान्तिकारियों का एक मज़बूत संगठन हो। ऐसा संगठन जितना ही गुप्त होगा, जनता को पार्टी में उतना ही व्यापक और उतना ही दृढ़ विश्वास होगा। जैसा कि हम जानते हैं, युद्ध के समय न केवल अपनी सेना का ख़ुद अपनी शक्ति में विश्वास दृढ़ करना, बल्कि दुश्मन को और सभी तटस्थ लोगों को भी इस ताक़त का यक़ीन दिलाना आवश्यक होता है, कभी-कभी तो कुछ शक्तियों की मित्रतापूर्ण तटस्थता ही मामले का निपटारा कर देती है। यदि हमारे पास ऐसा संगठन हो, जो मज़बूत सैद्धान्तिक नींव पर खड़ा हो और जिसके पास एक सामजिक–जनवादी मुखपत्र भी हो, तो इसका कोई डर नहीं रहेगा कि आन्दोलन की ओर जो बहुत–से “बाहरी” लोग आकर्षित हुए हैं, वे उसे पथभ्रष्ट कर देंगे। … संक्षेप में, विशेषीकरण लाज़िमी तौर से केन्द्रीकरण की पूर्वापेक्षा करता है और उसकी बिना शर्त माँग भी करता है।” (ज़ोर हमारा)
लेनिन आगे यह भी बताते हैं कि हिरावल पार्टी स्थानीय कामों के साथ ही पूरे देश के पैमाने पर क्रान्तिकारी कामों को संचालित करती है। लेनिन ऐसे तमाम लोगों को भी आड़े हाथों लेते हैं जो कहते हैं कि पार्टी के केन्द्रीकृत ढाँचे के कारण स्थानीय काम प्रभावित होंगे और केवल राष्ट्रीय स्तर के कामों को तरजीह दी जायेगी। लेनिन जवाब देते हैं कि यह हिरावल पार्टी का केन्द्रीकृत ढाँचा ही है जो यह सुनिश्चित करता है कि स्थानीय कामों और देशव्यापी कामों के बीच द्वन्द्वात्मक तालमेल हो और स्थानीयतावाद के भटकाव से बचा जाये। इसके साथ ही लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए भी आलोचना पेश करते हैं कि वे एक मज़बूत क्रान्तिकारी संगठन की ज़रूरत को षड्यन्त्रकारी दृष्टिकोण से जोड़ते हैं और सामाजिक-जनवादियों यानी लेनिन व उनके साथियों पर राजनीतिक संघर्ष को एक षड्यन्त्र तक सीमित करने का आरोप लगाते हैं। लेनिन इस ग़लत अर्थवादी दलील का तर्कपूर्ण खण्डन प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इसके आगे की चर्चा अब अगले अंक में।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, मई 2024
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन