मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? 
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (ग्यारहवीं क़िस्त)

शिवानी

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पिछले अंक में हमने देखा कि किस प्रकार रूस में अर्थवाद के पैरोकार, लेनिन व उनके साथियों पर “षड्यन्त्रकारी” होने का आरोप लगाते हैं और किस प्रकार लेनिन इन आरोपों का तर्कपूर्ण खण्डन प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही लेनिन यह भी बताते हैं कि एक मज़बूत केन्द्रीय ढाँचे वाली हिरावल पार्टी का अभिप्राय जनवाद की अनुपस्थिति नहीं होता है बल्कि सही मायने में जनवाद को सुचारू तरीक़े से लागू करने के लिए ऐसे ही सांगठनिक ढाँचे की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत पार्टी संगठन में “व्यापक जनवाद” की कोरी दलीलें “एक बेकार और हानिकारक खिलौने से अधिक कुछ नहीं हो सकता है।” दरअसल खुलेपन और जनवाद की वक़ालत करने वाला इस तरह का शुद्ध सिद्धान्त वस्तुगत परिस्थितियों का मूल्यांकन किये बगैर एक बेहद बचकानी समझदारी का प्रदर्शन करता हैं और राज्यसत्ता के दमनकारी चरित्र की अनदेखी करता है। ऐसी समझदारी बुर्जुआ उदारतावादी विभ्रम से प्रस्थान करते हुए क्रान्तिकारी संगठनों को राज्यसत्ता के रहमोकरम पर छोड़ने की ज़िद पाले रहती है और हिरावल पार्टी की भूमिका को कम करके आँकती है। लेनिन बताते हैं कि ऐतिहासिक अनुभव ने इस समझदारी को ग़लत साबित किया है । लेनिन क्या करें?’ में लिखते हैं:

“हमारे आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए एकमात्र गम्भीर और सच्चा सांगठनिक उसूल यही होना चाहिए कि वे संगठन के कामों को सख्ती से गुप्त रखें, सदस्यों का चुनाव करते समय ज़्यादा से ज़्यादा सख्ती बरतें और पेशेवर क्रान्तिकारी तैयार करें। इतना हो जाये, तो “जनवाद” से भी बड़ी एक चीज़ की हमारी लिए गारण्टी हो जायेगी: वह यह कि क्रान्तिकारियों के बीच सदा पूर्ण, कॉमरेडाना और पारस्परिक विशवास क़ायम रहेगा।”

इसके बाद लेनिन स्थानीय कामों अखिल रूसी कामों (केन्द्रीय देशव्यापी कामों) के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में क्रान्तिकारी दृष्टिकोण स्पष्ट करते हैं। लेनिन कहते हैं कि आम तौर पर यह भय प्रकट किया जाता है कि एक केन्द्रीकृत संगठन बनने से हो सकता है कि  स्थानीय काम के मुक़ाबले अखिल रूसी काम को ज़्यादा महत्व दिया जाने लगे, मज़दूर आन्दोलन को धक्का पहुँचे, आम मेहनतकश जनसमुदायों से हमारा सम्पर्क कमज़ोर हो और स्थानीय उद्वेलन की जड़ें आम तौर पर कमज़ोर हों। लेनिन लिखते हैं कि इस ऐतराज़ का हम यह जवाब दते हैं कि पिछले चन्द वर्षों से हमारे आन्दोलन की यही कमज़ोरी रही है कि हमारे स्थानीय कार्यकर्ता स्थानीय काम में बहुत ज़्यादा डूबे हुए रहे हैं; और इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि अब देशव्यापी काम को थोडा ज़्यादा महत्व दिया जाये। लेनिन के अनुसार ऐसा करने से स्थानीय व देशव्यापी कामों के सम्बन्ध टिकाऊ हो जायेंगे और इससे स्थानीय उद्वेलन और मज़बूत होगा।

लेनिन अपनी इस बात को स्पष्ट करने के लिए स्थानीय अखबारों व अखिल रूसी अखबार का उदाहरण देते हैं और बताते हैं कि अनियमित तौर पर कई स्थानीय अखबार निकालने से कहीं ज़्यादा बेहतर है कि नियमित तौर एक एक अखिल रूसी अखबार निकाला जाये। लेनिन के अनुसार स्थानीय अखबारों की यह अनियमितता दरअसल क्रान्तिकारी कामों को संगठित करने की दिशा में बिखराव और नौसिखुआपन ही दर्शाती है और यह भी दिखलाती है कि आन्दोलन की स्वतःस्फूर्त प्रगति की तुलना में क्रान्तिकारी संगठन बहुत पिछड़ा हुआ है। यही काम यदि बिखरे तरीक़े से कई स्थानीय दलों द्वारा नहीं बल्कि केन्द्रीकृत तौर पर एक ही संगठन द्वारा अंजाम दिया जाये तो लेनिन के अनुसार न सिर्फ क्रान्तिकारी शक्तियों की बहुत-सी मेहनत बचेगी बल्कि कामों में भी कहीं अधिक टिकाऊपन आयेगा और उनके आपसी तार भी नहीं टूटेंगे। लेनिन जोड़ते हैं कि अपने अखबार को सिद्धान्त के मामले में दृढ़ बनाये रखना और उसे एक राजनीतिक मुखपत्र के स्तर तक उठा ले जाने का काम कोई केन्द्रीकृत तौर पर मज़बूत संगठन ही कर सकता है।

लेनिन आगे कहते हैं कि इस बात से किसी को ऐतराज़ नहीं होगा कि हमारे पास स्थानीय अखबार होने चाहिए, हमारे पास क्षेत्रीय अखबार भी होने चाहिए और हमारे पास अखिल रूसी अखबार भी होने चाहिए। लेकिन जब हम किसी ठोस सांगठनिक समस्या को हल करने चलते हैं तो हमें समय और परिस्थिति का ध्यान रखना पड़ता है और आज की बिखराव की स्थिति में क्रान्तिकारियों के समक्ष सबसे ज़रूरी कार्यभार एक देशव्यापी अखबार का प्रकाशन है। इसके अलावा, अखबार का स्तर हमें ऊपर उठाना चाहिए, न कि नीचे गिराकर उसे कारख़ाने के पर्चे के धरातल पर ले आना चाहिए। लेनिन यह भी इंगित करते हैं कि केन्द्रीय अखबार के मुकाबले स्थानीय अखबारों की प्रधानता आन्दोलन के निचले व आदिम स्तर का परिचायक भी हो सकता है और आन्दोलन के उन्नत स्तर का भी। यानी यदि किसी जगह अभी केवल स्थानीय अखबार ही निकलते हैं तो यह दिखलाता है कि आन्दोलन अभी नौसिखुएपन के दलदल में फँसकर हाथ-पैर मार रहा है और इसके विपरीत यदि केन्द्रीय अखबार के साथ स्थानीय अखबार भी प्रकाशित हो रहे हैं तो यह दिखलाता है कि उस जगह मज़दूर आन्दोलन सर्वांगीण भण्डाफोड़ और सर्वांगीण उद्वेलन के काम में महारत हासिल कर चुका है और अब आन्दोलन केन्द्रीय अखबार के अलावा स्थानीय अखबारों को भी निकालने की आवश्यकता महसूस कर रहा है। लेनिन कहते हैं कि अभी फ़िलहाल रूस में पहली स्थिति मौजूद है और अभी आन्दोलन काफ़ी दरिद्र अवस्था में है। लेनिन लिखते हैं:

“अभी तक हमारे अधिकतर स्थानीय संगठन प्रायः केवल स्थानीय अखबारों के बारे में ही सोचते रहे हैं और उनका लगभग सारा काम इन्हीं को लेकर होता रहा है। यह ठीक नहीं है – इसकी बिलकुल उलटी हालत होनी चाहिए: अधिकतर स्थानीय संगठनों को प्रधानतया एक अखिल रूसी अखबार के प्रकाशन के बारे में सोचना चाहिए और उनके काम का मुख्य उद्देश्य भी यही होना चाहिए। जब तक यह नहीं किया जाता तक तक हम एक भी ऐसा अखबार स्थापित नहीं कर पायेंगे जो सर्वांगीण प्रेस उद्वेलन के ज़रिये आन्दोलन की सेवा कर सके। जब यह काम हो जायेगा तब आवश्यक केन्द्रीय अखबार और आवश्यक स्थानीय अखबारों के बीच अपने आप सही तरह के सम्बन्ध स्थापित हो जायेंगे।”

कुल मिलाकर कहें तो देशव्यापी केन्द्रीय कामों की वजह से स्थानीय काम प्रभावित नहीं होते हैं, उल्टे केन्द्रीकरण के साथ स्थानीय कामों में भी गतिशीलता आती है, बिखराव कम होता जाता है और नौसिखुएपन और स्वतःस्फूर्तता की सीमा को लाँघकर क्रान्तिकारी आन्दोलन एक उन्नत सचेतन धरातल पर पहुँच जाता है।

लेनिन अलग से यह भी स्पष्ट करते हैं कि आर्थिक संघर्ष के क्षेत्र में भी स्थानीय काम के बजाय अखिल रूसी काम को अधिक महत्व देने की आवश्यकता है। लेनिन याद दिलाते हैं कि आर्थिक संघर्ष एक ट्रेड/उद्योग का संघर्ष होता है और ठीक इसी कारण से आर्थिक संघर्ष के लिए ज़रूरी होता है कि मज़दूरों का संगठन न केवल उनके काम करने के स्थान के अनुसार हो बल्कि पूरे उद्योग के अनुसार हो। देखें लेनिन कितनी सटीक बात चिह्नित करते हैं जो आज तक भी अर्थवादियों की समझ से बाहर है:

“हमारे मालिक जितनी तेज़ी से तरह-तरह की कम्पनियों और सिण्डीकेटों में संगठित होते जा रहे हैं मज़दूरों के लिए उद्योग/ट्रेड के अनुसार अपना संगठन बनाना उतना ही अधिक आवश्यक होता जा रहा है। हमारा बिखराव और हमारा नौसिखुआपन संगठन के उस काम के रास्ते में एक बड़ी भारी रुकावट है, जिसके लिए क्रान्तिकारियों का एक ऐसा अखिल-रूसी निकाय (यानी पार्टी – लेखिका) का होना आवश्यक है जो मज़दूरों की अखिल रूसी ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व कर सके।” (ज़ोर हमारा)

जैसा कि हमने पहले भी ज़िक्र किया था रूसी अर्थवादी एक अखिल रूसी अखबार की ज़रूरत को ख़ारिज करते थे और लेनिन व अन्य इस्क्रावादियों पर आरोप लगा रहे थे कि वे अखिल रूसी अखबार की योजना के ज़रिये पार्टी के संगठनों और समितियों को दरकिनार कर रहे हैं। लेनिन इन सभी आरोपों का भी नुक्तेवार अपनी रचना क्या करें?’ में जवाब देते हैं। अभी की हमारी चर्चा के लिए उसके विस्तार और विवरण में जाने की ज़रूरत हमें नहीं है। अर्थवाद पर अपनी शुरुआती चर्चा में हमने यह भी बताया था कि लेनिन के अनुसार एक अखिल रूसी अखबार सामूहिक प्रचारक, सामूहिक उद्वेलक और सामूहिक संगठनकर्ता की भूमिका अदा कर सकता है जिस बात पर भी अर्थवादियों की आपत्ति थी क्योंकि उन्हें आम तौर पर ही क्रान्तिकारी राजनीति से परहेज़ था और संघर्ष का क्षितिज ही उनके लिए आर्थिक संघर्ष का क्षेत्र था। यह अर्थवादी सोच से उपजी उनकी राजनीतिक समझदारी की शून्यता थी कि वे पार्टी निर्माण के लिए एक देशव्यापी अखबार की अहमियत को समझने में नाकाम थे। लेनिन का स्पष्ट मत था कि “असल बात (यह) है कि मज़बूत राजनीतिक संगठनों को प्रशिक्षित करने का एक अखिल रूसी अखबार के अलावा और कोई तरीक़ा नहीं है।” इसके साथ ही अखिल रूसी राजनीतिक अखबार भण्डाफोड़, प्रचार और उद्वेलन की गतिविधियों को भी संगठित करने में महती भूमिका निभाता है। देखें लेनिन अर्थवाद के पैरोकारों को किन शब्दों में जवाब देते हैं जब वे एक अखिल रूसी राजनीतिक अखबार की योजना को महज़ “कागज़ी” कार्यवाई घोषित करते हैं:

“वे लोग जो इस्क्रा की “योजना” को “किताबीपन” का सूचक समझते हैं, उन्होंने योजना का सारतत्व ज़रा भी नहीं समझा है और वे सोचते हैं कि इस समय सबसे उपयोगी साधन के रूप में जिस चीज़ का सुझाव दिया गया है, वही लक्ष्य है। प्रस्तावित योजना के स्पष्टीकरण के लिए जो दो उपमाएँ दी गयी थीं, उनका अध्ययन करने की तकलीफ़ इन लोगों ने गवारा नहीं की है। इस्क्रा ने लिखा था: एक अखिल रूसी राजनीतिक अखबार का प्रकाशन वह मुख्य सूत्र होना चाहिए, जिसके सहारे हम इस संगठन को (अर्थात एक ऐसे क्रान्तिकारी संगठन को, जो प्रत्येक विरोध और प्रत्येक विस्फोट का समर्थन करने के लिए हमेशा तैयार रहे) अडिग भाव से विकसित कर सकेंगे तथा उसे अधिक गहरा और व्यापक बना सकेंगे। अब मुझे कृपया यह बताइये: जब राजमिस्त्री कोई बहुत बड़ी इमारत खड़ी करने के लिए, जितनी बड़ी इमारत पहले कभी न देखी गयी हो, उसके अलग-अलग हिस्सों में ईंटें बिछाते हैं, तब वे यदि प्रत्येक ईंट के वास्ते ठीक स्थान का पता लगाने के लिए, पूरे काम के अन्तिम लक्ष्य को हमेशा अपने सामने रखने के लिए और न केवल हरेक ईंट का, बल्कि ईंट के हरेक टुकड़े का सही इस्तेमाल करने के लिए, ताकि वह पहले बिछायी गयी और बाद में बिछायी जानेवाली ईंटों के साथ जुड़कर एक पूर्ण और सबको साथ मिलाकर चलनेवाली रेखा बन जाये- इस सबके लिए यदि वे एक डोरी इस्तेमाल करते हैं, तो क्या उसे “कागज़ी” काम कहा जायेगा? और क्या अपने पार्टी जीवन में हम ठीक एक ऐसे ही समय से नहीं गुज़र रहे हैं, जबकि हमारे पास ईंटें और राजमिस्त्री तो हैं, पर सबका पथप्रदर्शन करने वाली वह डोरी नहीं है, जिसे सब देख सकें और जिसके मुताबिक सभी काम कर सकें?”

लेनिन इसके बाद दूसरी उपमा पर आते हैं जिसकी चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं:

“अखबार न केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक उद्वेलक का, बल्कि सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर बाँधे गये पाड़ (स्कैफोल्डिंग) से की जा सकती है; इससे इमारत की रूपरेखा प्रकट होती है और इमारत बनाने वालों को एक-दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है, इससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं, अपने संगठित श्रम द्वारा प्राप्त आम परिणाम देख सकते हैं।”

यह पाड़ कोई स्थायी इन्तज़ाम नहीं होता है, लेकिन फिर भी इमारत को खड़ा करने के लिए ज़रूरी होता है जब तक कि इमारत का ढाँचा बनकर तैयार नहीं हो जाता है। और लेनिन एक बार फिर ज़ोर देकर रेखांकित करते हैं कि बिना इस पाड़ को बाँधे, आज के दौर में जिस इमारत की हमें ज़रूरत है, यानी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी, उसे खड़ा नहीं किया जा सकता है।

इसके आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।

(अगले अंक में जारी)

 

 

 

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2024


 

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