मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (दसवीं क़िस्त)
शिवानी
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अर्थवाद की प्रवृत्ति पर अपनी चर्चा जारी रखते हुए हमने पिछली बार सांगठनिक मामलों में भी अर्थवादियों की संकीर्णता पर बात रखी और इस विषय में लेनिन के विचारों को जानने का प्रयास किया। लेनिन के हवाले से हमने बताया कि दृढ़ सैद्धान्तिक बुनियाद पर खड़ा मज़बूत क्रान्तिकारी संगठन, जिसका मेरुदण्ड पेशेवर क्रान्तिकारियों का तपा–तपाया ढाँचा हो, जनसमुदायों के अलग–अलग संस्तरों के बीच क्रान्तिकारी आन्दोलन के वृहद् कार्यभारों को पूरा करने की सबसे आवश्यक व बुनियादी पूर्वशर्त है। इसके साथ ही लेनिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि ऐसे पेशेवर क्रान्तिकारी केवल बुद्धिजीवियों की जमात से नहीं आते बल्कि मज़दूर जमात से भी आते हैं। अब इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।
अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।
लेनिन जर्मनी के क्रान्तिकारी आन्दोलन का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि वहाँ हर योग्य मज़दूर को तुरन्त ऐसी परिस्थितियों में रखने का प्रयत्न किया जाता है, जिनमें वह अपनी क्षमताओं का अधिक से अधिक विकास तथा उपयोग कर सके: उसे पेशेवर उद्वेलनकर्ता बनाया जाता है, उसे अपने कार्य का क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, उसे एक कारख़ाने से बढ़कर पूरे उद्योग में और एक स्थान से बढ़कर पूरे देश में अपना कार्य-क्षेत्र फैलाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी प्रक्रिया में एक मज़दूर-क्रान्तिकारी का दृष्टिकोण व्यापक बनता है और उसका ज्ञान बढ़ता है। लेनिन बल देकर कहते हैं कि “आम मज़दूर इसी तरह और केवल इसी तरह बेबेल और आयर जैसे आदमी पैदा करते हैं”। साथ ही लेनिन यह भी जोड़ते है कि रूस जैसे राजनीतिक रूप से “अस्वतन्त्र” देश में यह काम सचेतन तौर पर और सुनियोजित ढंग से क्रान्तिकारी संगठनों को पूरा करना चाहिए, जो जर्मनी जैसे देशों में प्रायः आसानी से होते हुए नज़र आते हैं। देखें लेनिन क्या लिखते हैं:
“जिस मज़दूर उद्वेलनकर्ता में थोड़ी भी प्रतिभा हो और जो थोड़ा भी होनहार हो, उसे कारख़ाने में ग्यारह घण्टे रोज़ काम करने के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए। हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उसकी आजीविका का भार पार्टी अपने ऊपर ले ले, कि वह ठीक समय पर भूमिगत हो जाये और अपने कार्य–क्षेत्र को बदल दे, अन्यथा उसका अनुभव नहीं बढ़ेगा, उसका दृष्टिकोण व्यापक नहीं बनेगा और वह राजनीतिक पुलिस के ख़िलाफ़ संघर्ष में चन्द साल भी खड़ा नहीं रह सकेगा। जैसे–जैसे मज़दूर जनसमुदायों का स्वतःस्फूर्त उभार विस्तार और गहराई में बढ़ता जाता है, वैसे–वैसे मज़दूर जनसमुदाय अपने बीच से न केवल प्रतिभाशाली उद्वेलनकर्ताओं को, बल्कि प्रतिभाशाली संगठनकर्ताओं, प्रचारकों और “व्यावहारिक कार्यकर्ताओं” को भी बढ़ती हुई संख्या में उत्पन्न करते जाते हैं।…जब हमारे पास ऐसे प्रशिक्षित मज़दूर क्रान्तिकारियों के दस्ते होंगे, जो काफ़ी तैयारियाँ कर चुके होंगे… तब दुनिया की कोई राजनीतिक पुलिस उनका मुक़ाबला नहीं कर सकेगी, क्योंकि क्रान्ति में अटूट निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों के इन दस्तों को आम मज़दूरों के व्यापकतम हिस्सों का पूर्ण विश्वास प्राप्त होगा। यह सीधे–सीधे हमारा दोष है कि हम मज़दूरों को पेशेवर क्रान्तिकारी प्रशिक्षण का यह रास्ता अपनाने के लिए, जो उनके और “बुद्धिजीवियों” के लिए समान रास्ता है, बहुत ही कम “प्रेरित” करते हैं और अक्सर ऐसी बातों के बारे में मूर्खतापूर्ण भाषण सुना-सुनाकर हम उन्हें पीछे घसीटते रहते हैं कि आम मज़दूर या “औसत मज़दूर” किन बातों को समझ सकते हैं, आदि।” (ज़ोर हमारा)
लेनिन यहाँ पर क्रान्तिकारी आन्दोलन की मनोगत कमज़ोरी की ओर इशारा कर रहे हैं जो अपनी विफलता को छिपाने के लिए मज़दूर जनसमुदायों की “पिछड़ी” चेतना का हवाला देकर ख़ुद उनके पीछे घिसटने की वक़ालत का सिद्धान्त देने लगता है। लेनिन आगे इस बात को एक बार फिर दुहराते हैं कि और सभी मामलों की तरह इस मामले में भी हमारे सांगठनिक काम का सीमित विस्तार, जोकि अर्थवाद का ही संगठनात्मक लक्षण है, निस्सन्देह इस बात से अटूट रूप से जुड़ा है कि हम अपने सिद्धान्तों और राजनीतिक कार्यभारों को एक छोटे दायरे तक सीमित रखते हैं। लेनिन अर्थवाद के पैरोकारों का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं:
“स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की भावना के कारण हमें उन बातों से एक क़दम भी इधर-उधर उठाने में डर लगता है, जिन्हें आम जनता “समझ सकती है”, हमें डर लगता है कि हम कहीं जनता की तात्कालिक एवं प्रत्यक्ष आवश्यकताओं में ही जुटे रहने से बेहद ऊपर न उठ जायें। लेकिन महानुभावों डरिये नहीं! याद रखिये कि संगठन के मामले में हम इतने निचले स्तर पर खड़े हैं कि ज़रूरत से ज़्यादा ऊपर उठ सकने का विचार तक मन में लाना मूर्खता है!”
यानी अर्थवाद मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्त चेतना के पीछे-पीछे घिसटते रहने को ही सिद्धान्त के धरातल पर पहुँचा देता है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने पिछले अंकों में की है। इसके बाद लेनिन ‘क्या करें? में एक ज़रूरी प्रश्न पर चर्चा केन्द्रित करते हैं। लेनिन कहते हैं कि अर्थवादी इस्क्रावादियों यानी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों पर षड्यन्त्रकारी होने का आरोप लगाते हैं क्योंकि वे पेशेवर क्रान्तिकारियों के ढाँचे से निर्मित केन्द्रीकृत मज़बूत हिरावल पार्टी की वक़ालत करते हैं। लेनिन कहते हैं कि अर्थवादी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों पर ‘नरोदनाया वोल्या’-वादी होने और “जनवाद” को न समझने का आरोप लगाते हैं।
बताते चलें कि ‘नरोदनाया वोल्या’ (‘जन संकल्प’) अगस्त 1879 में बना नरोदवादी आतंकवादियों का गुप्त राजनीतिक संगठन था। नरोदवाद रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन में एक टुटपुँजिया प्रवृत्ति थी जो 19वीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में पैदा हुई थी। नरोदवादियों ने ज़ार की निरंकुश सत्ता की समाप्ति और भूस्वामियों की ज़मीनें किसानों को देने की माँग उठायी थी। वे अपने को समाजवादी मानते थे लेकिन उनका समाजवाद काल्पनिक था, वैज्ञानिक नहीं, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। हालाँकि बाद के दौर में नरोदवादियों ने ज़ारशाही के प्रति समझौतावादी रुख अपनाया, धनी किसानों और कुलकों के हितों को व्यक्त किया और मार्क्सवाद के विरुद्ध संघर्ष चलाया और उसका विरोध किया। नरोदवाद के विरुद्ध भी लेनिन व बोल्शेविक पार्टी ने दृढ़तापूर्वक विचारधारात्मक संघर्ष चलाया था। बहरहाल, जहाँ तक ‘नरोदनाया वोल्या’ का प्रश्न था, तो इस संगठन के सदस्य नरोदवादी यूटोपियाई समाजवादी विचारों को ही मानते थे लेकिन उन्होंने नरोदवाद के इतिहास में पहली बार राजनीतिक संघर्ष का रास्ता अपनाया जिसका पहला लक्ष्य निरंकुशतन्त्र को उखाड़ फेंकना और राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करके जनवादी गणतन्त्र की स्थापना करना था।
यह बात सच है कि ‘नरोदनाया वोल्या’ द्वारा राजनीतिक संघर्ष की आवश्यकता का सवाल उठाया गया मगर वे इस संघर्ष को षड्यन्त्र और व्यक्तिगत आतंक का ही पर्याय मानते थे। कुछ असफल प्रयासों के बाद ‘नरोदनाया वोल्या’ के सदस्यों द्वारा 1 मार्च, 1881 को ज़ार अलेक्सान्द्र द्वितीय की हत्या कर दी गयी। हत्या में भाग लेने वालों को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी, इसके बाद कुछ मुक़दमें भी चले। इसके साथ ‘नरोदनाया वोल्या’ की गतिविधियों का अन्त हो गया। अपनी अकूत क़ुर्बानियों और आत्मत्याग के बावजूद यह संगठन यदि अपना लक्ष्य पाने में असफल रहा तो इसका कारण उसका ग़लत सैद्धान्तिक आधार तथा कार्यनीति और आम जनता के साथ व्यापक व घनिष्ठ सम्बन्धों का अभाव यानी क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करने का अभाव था। सक्रिय “नायकों” और निष्क्रिय “जन” की इस ग़लत सैद्धान्तिक समझदारी के आधार पर ‘नरोदनाया वोल्या’ बिना व्यापक जनता की भागीदारी के और केवल अपने व्यक्तिगत आतंकी प्रयासों के ज़रिये सामाजिक परिवर्तन लाना चाहता था, जोकि असम्भव था। दरअसल क्रान्तिकारी आन्दोलन में ऐसी पेटी बुर्जुआ व्यक्तिगत नायकवाद और दुस्साहसवाद की प्रवृत्ति समय-समय पर सर उठाती रहती है जिसके पीछे क्रान्ति तथा सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान को न समझ पाने का कारण ही प्रमुख होता है। भारत में ऐसे दुस्साहसवादी नरोदवादी आज भी मौजूद हैं।
खैर, मूल चर्चा पर वापस लौटते हैं। अर्थवादियों के उपरोक्त आरोपों का खण्डन प्रस्तुत करते हुए लेनिन कहते हैं कि ये आरोप एक दोहरी ग़लतफहमी का नतीजा है। लेनिन बताते हैं कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास की कम जानकारी के चलते किसी भी ऐसे जुझारू केन्द्रीकृत संगठन को, जिसने ज़ारशाही के ख़िलाफ़ दृढ़ संघर्ष का ऐलान किया हो, उसे ‘नरोदनाया वोल्या’ का नाम दे दिया जाता है। इसके बाद लेनिन स्पष्ट करते हैं कि पिछली शताब्दी के आठवें दशक (यानी 1870-1880 के दशक के दौरान) में क्रान्तिकारियों ने जो शानदार संगठन बनाया था और जिसे कम्युनिस्टों को अपना आदर्श बनाना चाहिए, उसे ‘नरोदनाया वोल्या’-वादियों ने नहीं बल्कि ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ (‘ज़मीन और आज़ादी’) के सदस्यों ने बनाया था, जो बाद में ‘चोर्नी पेरेदेल’ (‘आम भूमि पुनर्वितरण’) और ‘नरोदनाया वोल्या’ (जिसकी चर्चा हमने ऊपर की) नामक दो दलों में बँट गया था। इसलिए जुझारू क्रान्तिकारी संगठन को ‘नरोदनाया वोल्या’-वादियों की कोई ख़ास चीज़ समझना, इतिहास और तर्क दोनों ही दृष्टि से बेतुका है।
यहाँ एक बेहद संक्षिप्त चर्चा ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ के विषय में करना प्रासंगिक होगा क्योंकि यह रूसी सामाजिक जनवादी आन्दोलन के इतिहास को समझने में भी सहायक होगा। ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ क्रान्तिकारी नरोदवादियों का एक गुप्त संगठन था जिसकी स्थापना पीटर्सबर्ग में 1876 की शरद में हुई थी। यह ग्रुप केन्द्रीयकरण और अनुशासन के आधार पर बना था। ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’, नरोदवाद के सभी संस्करणों की भाँति, रूस में किसानों को मुख्य क्रान्तिकारी शक्ति मानता था और ज़ारशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए किसानों को जागृत और गोलबन्द करने का पक्षधर था। रूस की कई गुबेर्नियाओं में इसने क्रान्तिकारी कार्य को संगठित करने का प्रयास किया।
नरोदवाद की थोड़ी-बहुत चर्चा हम ऊपर कर आये हैं। नरोदवाद का आम तौर पर मानना था कि रूस में पूँजीवादी सम्बन्धों का विकास अनिवार्य नहीं है और पूँजीवाद के चरण से गुज़रे बग़ैर ही रूस में समाजवाद लाया जा सकता है। यानी नरोदवाद के अनुयायी ऐतिहासिक विकास की गति को नहीं समझते थे। यही कारण था कि वे रूस में सर्वहारा वर्ग की जगह किसानों को मुख्य क्रान्तिकारी शक्ति के रूप में देखते थे और ग्राम-समुदाय को समाजवाद का भ्रूण-रूप मानते थे। इसी वजह से समाजवाद की नरोदवादी परिकल्पना को काल्पनिक या यूटोपियाई कहा गया।
अन्तिम लक्ष्य के रूप में समाजवाद से इनकार न करते हुए भी ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ ने जनता की वर्तमान माँग यानी “ज़मीन और आज़ादी” की माँग के अमल को निकटतम लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। हालाँकि किसानों के बीच असफल क्रान्तिकारी कार्य और बढ़ते हुए सरकारी दमन के फलस्वरूप 1879 में ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ के भीतर एक आतंकवादी धड़ा तैयार हुआ जिसने किसानों के बीच क्रान्तिकारी कार्य करने से इन्कार कर दिया और ज़ारशाही सरकार के सदस्यों के विरुद्ध आंतकवाद को ही ज़ारशाही के ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी संघर्ष के मुख्य साधन के तौर पर मान्यता दी। 1879 में वोरोनेज़ में आयोजित एक कांग्रेस में ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ दो संगठनों में विभक्त हो गया। ये थे‘नरोदनाया वोल्या’ जिसने आतंकवाद और दुस्साहसवाद की आम दिशा अपनायी (जिसकी चर्चा हमने ऊपर की) व ‘चोर्नी पेरेदेल’ जो ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ के दृष्टिकोण पर क़ायम रहा।
आगे चलकर, ‘चोर्नी पेरेदेल’ के अनुयायियों के एक दल- प्लेखानोव, अक्सेलरोद, वेरा ज़ासुलिच, डॉइच, इग्नातोव – ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण अपनाया और 1883 में स्विट्ज़रलैंड में पहले रूसी मार्क्सवादी संगठन- ‘श्रम-मुक्ति’ दल (The Emancipation of Labour group) की स्थापना की। इस ग्रुप ने रूस में मार्क्सवाद के प्रचार में काफ़ी मदद पहुँचायी और साथ ही नरोदवाद की सैद्धान्तिक ज़मीन को करारी चोट दी जो कि रूस में मार्क्सवाद के प्रसार और सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के विकास में मुख्य विचारधारात्मक बाधा थी। 1883 और 1885 में प्लेखानोव ने रूसी सामाजिक-जनवादियों के कार्यक्रम के दो मसविदे तैयार किये जिसे ‘श्रम-मुक्ति’ दल ने प्रकाशित किया। यह रूस में सामाजिक-जनवादी पार्टी की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम था। ‘श्रम-मुक्ति’ दल ने अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन के साथ भी सम्पर्क क़ायम किये और 1889 में दूसरे इण्टरनेशनल की पहली कांग्रेस से लेकर अन्य सभी कांग्रेसों में रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन का प्रतिनिधित्व किया। हालाँकि इस ग्रुप ने कई गम्भीर गलतियाँ भी कीं; मसलन इसने उदार बुर्जुआ वर्ग की भूमिका को बढ़ा-चढ़कर आँका और सर्वहारा क्रान्ति में किसानों की क्रान्तिकारी सम्भावना-सम्पन्नता को कम करके देखा। यही गलतियाँ आगे चलकर प्लेखानोव और इस ग्रुप के अन्य सदस्यों के मेन्शेविक दृष्टिकोणों के रूप में अंकुरित हुईं।
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद वापस लौटते हैं। लेनिन पुनः इस बात पर ज़ोर देते हैं कि कोई भी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति, जो सचमुच गम्भीरतापूर्वक लड़ना चाहती है, ऐसे मज़बूत केन्द्रीकृत सांगठनिक ढाँचे के बिना अपना काम नहीं चला सकती है, जिसके ऊपर अर्थवादी प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे थे। लेनिन अर्थवादी आरोपों का जवाब देते हुए कहते हैं:
“‘नरोदनाया वोल्या’-वादियों ने जो ग़लती की थी, वह यह नहीं थी कि वे अपने संगठन में सभी असन्तुष्ट लोगों को शामिल करने की कोशिश करते थे और इस संगठन को निरंकुशता के ख़िलाफ़ निर्णायक संघर्ष की ओर ले जाना चाहते थे। नहीं, यह तो उनकी महान ऐतिहासिक सेवा थी। उनकी ग़लती यह थी कि वे एक ऐसे सिद्धान्त पर भरोसा करते थे, जो अपने सार–रूप में क़तई क्रान्तिकारी नहीं था, और यह नहीं जानते थे कि विकसित होते हुए पूँजीवादी समाज के अन्दर चलने वाले वर्ग संघर्ष के साथ अपने आन्दोलन को अविछिन्न रूप से कैसे जोड़ा जाये, या ऐसा करने में वे असमर्थ थे। मार्क्सवाद को समझने में सरासर विफलता पर ही कोई यह राय बना सकता है कि मज़दूर वर्ग के स्वतःस्फूर्त जन–आन्दोलन के जन्म हो जाने के कारण हमें क्रान्तिकारियों का उतना ही अच्छा– बल्कि उससे भी अच्छा– संगठन बनाने के काम से छुटकारा मिल गया है, जितना अच्छा संगठन ‘ज़ेम्ल्या इ वोल्या’ ने बनाया था। इसके विपरीत यह आन्दोलन तो इस काम को हमारा कर्तव्य बना देता है, क्योंकि जब तक सर्वहारा के इस स्वतःस्फूर्त संघर्ष का नेतृत्व क्रान्तिकारियों का एक मज़बूत संगठन नहीं करेगा, यह संघर्ष सच्चा “वर्ग संघर्ष” नहीं बन सकता।” (ज़ोर हमारा)
यानी अर्थवादी तर्क के बिलकुल विपरीत, मज़दूर आन्दोलन की बढ़ती स्वतःस्फूर्तता सचेतनता के सांगठनिक तत्व और रूप की और अधिक माँग करती है, दूसरे शब्दों में कहें तो यह बात मज़बूत हिरावल पार्टी की ज़रूरत को ही रेखांकित करती है। इसके साथ ही लेनिन स्पष्ट करते हैं कि राजनीतिक संघर्ष को एक षड्यन्त्र तक सीमित करने का मार्क्सवादियों ने हमेशा विरोध किया है और आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे। लेकिन साथ ही वे इस बात को भी जोड़ते हैं कि इसका मतलब यह नहीं है कि मार्क्सवादी एक मज़बूत क्रान्तिकारी संगठन की ज़रूरत से ही इन्कार कर दें। मज़बूत क्रान्तिकारी संगठन को “षड्यन्त्रकारी” होने का पर्याय बना देना वास्तव में अर्थवादियों की इस विषय में त्रुटिपूर्ण समझदारी को ही व्यक्त करता है। दरअसल अर्थवादी सामाजिक-जनवादी लोगों द्वारा गुप्त ढाँचे वाले शक्तिशाली संगठन को खड़ा करने के कार्यभार को ही “षड्यन्त्रकारी” होने की संज्ञा दे रहे थे और लेनिन का कहना था कि सामाजिक जनवादियों को ऐसे आरोपों से डरना नहीं चाहिए।
इसी चर्चा में आगे लेनिन इस बात को भी चिन्हित करते हैं कि ऐसा ऐतराज़ किया जा सकता है कि इतने शक्तिशाली, गुप्त, केन्द्रीकृत संगठन के लिए यह ग़लती करना बहुत आसान होगा कि वह समय से पहले हमला कर बैठे या फिर राजनीतिक असन्तोष और मज़दूर वर्ग की बेचैनी तथा क्रोध की उग्रता द्वारा ऐसा हमला सम्भव और ज़रूरी बनाये जाने से पहले ही बिना सोचे-समझे आन्दोलन को तेज़ कर दे। लेनिन द्वंद्वात्मक विश्लेषण की पद्धति को बखूबी लागू करते हुए कहते हैं कि मोटे तौर पर बेशक़ ऐसी सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कोई जुझारू संगठन बिना सोचे-समझे ऐसी लड़ाई शुरू कर दे जिसका अन्त ऐसी पराजय में हो, जिसे शायद किसी और परिस्थिति में टालना सम्भव होता। लेकिन साथ ही लेनिन इस बात को भी जोड़ते हैं कि ऐसे प्रश्न पर हम केवल हवाई तर्क करने तक या केवल अमूर्त चिन्तन करने तक ही ख़ुद को सीमित नहीं रख सकते हैं क्योंकि वैसे तो हर लड़ाई में ही पराजय की अमूर्त सम्भावना निहित रहती है और इस सम्भावना को कम करने का इसके सिवा और कोई तरीक़ा नहीं है कि लड़ाई के लिए संगठित रूप से तैयारी की जाये। लेनिन लिखते हैं:
“लेकिन यदि हम रूस में इस समय व्याप्त ठोस परिस्थितियों पर विचार करें, तो हम सकारात्मक नतीजे पर पहुँचने के लिए मजबूर होंगे कि एक मज़बूत क्रान्तिकारी संगठन ठीक इसलिए नितान्त आवश्यक है कि वह आन्दोलन में दृढ़ता पैदा कर सके और उसे बिना सोचे–समझे हमला कर बैठने की सम्भावना से बचा सके।” (ज़ोर हमारा)
लेनिन कहते हैं कि रूस में वर्तमान समय की विशेषता ही यह है कि इस प्रकार का कोई संगठन मौजूद नहीं है और क्रान्तिकारी आन्दोलन तेज़ी से और स्वतःस्फूर्त ढंग से आगे बढ़ रहा है और ठीक इसलिए दो विपरीत प्रवृत्तियाँ सर उठा रही हैं: “अर्थात एक ओर, बिलकुल बेतुका “अर्थवाद” और नरमी के उपदेश हैं और दूसरी ओर, उतने ही बेतुके “उत्तेजनात्मक आतंकवादी कार्य” हैं”। लेनिन बताते हैं कि इस समय आन्दोलन इन दोनों प्रकार की अतियों का शिकार हैं। यह दोनों ही छोर वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं यानी कि एक तरफ़ दक्षिणपन्थी अर्थवाद का छोर और दूसरी तरफ़ “वामपन्थी” दुस्स्साहसवाद का छोर। भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन भी इन दोनों प्रकार की अतियों का शिकार रहा है और आज भी है।
लेनिन के अनुसार “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” तक आन्दोलन को सीमित रखने से क्रान्तिकारियों को सन्तोष कभी नहीं हो सकता और सही कार्यदिशा के अभाव में इस प्रकार के परस्पर विरोधी चरमपन्थी दृष्टिकोणों का कहीं-कहीं दिखाई पड़ना अवश्यम्भावी होता है। अर्थवादी तर्क पर चोट करते हुए लेनिन एक बार फिर इस ज़रूरी सबक़ को रेखांकित करते हैं कि बिना सोचे-समझे हमला कर बैठने से आन्दोलन की हिफ़ाज़त और सफलता की आशा रखने वाले हमलों की तैयारियाँ केवल एक ऐसा केन्द्रीकृत और जुझारू संगठन ही कर सकता है, जो दृढ़ता के साथ सामाजिक–जनवादी/कम्युनिस्ट नीति पर चलता हो और जो समस्त क्रान्तिकारी आंकाक्षाओं को सन्तुष्ट करता हो।
इसके आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।
मज़दूर बिगुल, जून 2024
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