Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

चुनावों में भाजपा के फ़र्ज़ी मुद्दों से सावधान!

हर असली और ज़रूरी मुद्दे पर भाजपा सरकार नंगी हो चुकी है। इसलिए ही इन्हें ग़ैर-ज़रूरी और नक़ली मुद्दों की ज़रूरत होती है, जिसपर जनता को बाँट सकें। वहीं बिके हुए गोदी मीडिया की मदद से यह काम उनके लिए और भी आसान हो गया है। साथ में इनके आईटी-सेल सोशल मीडिया के ज़रिये भी इसी काम में लगे हुए हैं। फ़ेक न्यूज़ फ़ैलाकर यह पहले से ही लोगों के अन्दर ज़हर भरने का काम कर रहे हैं, पर चुनाव के आते ही बंगलादेश और रोहिंग्या मुसलमानों के “घुसपैठ” और “हमले” का डर लोगों के दिमाग़ में डालना शुरू कर देते हैं, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत! मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी!

मुसलमानों और सामाजिक आन्दोलनों को झूठे दुश्मन के रूप में चित्रित करके, मन्दिर-मस्जिद, गोमाता, लव-लैण्ड-वोट जिहाद, वक्फ़ बोर्ड आदि जैसे कई फ़र्ज़ी मुद्दे उठाकर समाज में भय का माहौल पैदा करके इनका जनाधार बनाया गया है। ऐसे में जब रोज़गार-महँगाई-मन्दी के चलते जनता के बीच भारी असन्तोष मौजूद है, तब भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर मीडिया और आरएसएस कार्यकर्ताओं की मदद से व पूँजीपतियों द्वारा ख़र्च किये गये हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके व इसके अलावा चुनाव में कटेंगे तो बँटेंगे, ओबीसी-मराठा मुद्दे पर भी ध्रुवीकरण करके, चुनाव आयोग की मदद से मतदाता सूची में बदलाव, सम्भावित तौर पर ईवीएम से चुनावों में हेरफेर करके और इसके साथ ही “लाडली बहन” जैसे लालच दिखाने वाली योजनाओं द्वारा एक बार फिर सत्ता तक पहुँचने में भाजपा-महायुति क़ामयाब रही है। इन सब कारणों में संघ परिवार के समर्पित हिन्दुत्व वोट बैंक और भाजपा के वास्तविक जनाधार की भूमिका को निश्चित रूप से नहीं भुलाया जाना चाहिए।

महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन की जीत और झारखण्ड में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन की जीत के मज़दूर वर्ग के लिए मायने

भाजपा और संघ परिवार के पास एक ऐसा ताक़त है, जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के पास नहीं है: एक विशाल, संगठित, अनुशासित काडर ढाँचा। इसके बूते पर हर चुनाव में ही उसे एक एडवाण्टेज मिलता है। निश्चित तौर पर, इसके बावजूद आर्थिक व सामाजिक असन्तोष के ज़्यादा होने पर भाजपा हार भी सकती है। लेकिन जब ऐसा होने वाला होता है, तो संघ अपने आपको चुनाव की प्रक्रिया से कुछ दूर दिखाने लगता है, ताकि हार का बट्टा उसके सिर पर लगे। ऐसी सूरत में, वह अपने आपको अचानक शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन दिखलाने लगता है और भाजपा और उसकी सरकारों के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी भी कर देता है। इसी को कई लोग भाजपा और संघ के बीच झगड़े के रूप में देखकर तालियाँ बजाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह संघ परिवार की पद्धति का एक हिस्सा है। वह पहले भी ऐसे ही काम करता रहा है। इसी के ज़रिये वह संघ की छवि को सँवारे रखने का काम करता है। भाजपा भी इसे समझती है और जानती है कि संघ की छवि का बरक़रार रहना आवश्यक है।

देशभर में साम्प्रदायिक उन्माद और नफ़रत का माहौल बनाने में जुटे संघ और भाजपा

शुरू में फ़ासीवादी राजनीति के तहत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है, बहुसंख्यक समुदाय की जनता के सामने उन्हें एक दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, पूँजीवादी व्यवस्था के सभी पापों का ठीकरा इस काल्पनिक दुश्मन अल्पसंख्यक आबादी के सिर पर फोड़ दिया जाता है, फ़ासीवादी नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रवक्ता और हृदय-सम्राट के रूप में पेश किया जाता है और बाद में हर उस शख़्स को जो फ़ासीवादी सरकार की आलोचना करता है, उसे इस नक़ली दुश्मन की छवि में समेट लिया जाता है। मक़सद होता है पूँजीवादी व्यवस्था व कारखाना मालिकों, ठेकेदारों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, धन्नासेठों, धनी व्यापारियों आदि के समूचे वर्ग को कठघरे से बाहर करना, उन्हें बचाना, जबकि उनके कुकर्मों का दोष आम मेहनतकश अल्पसंख्यक आबादी पर डाल देना और इस प्रकार समूची मेहनतकश आबादी को ही धर्म के नाम पर आपस में लड़वा देना, ताकि असली दुश्मन, यानी मालिकों, व्यापारियों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, व धन्नासेठों, यानी लुटेरों के वर्ग को बचाना। जो भी इस साज़िश के ख़िलाफ़ खड़ा होता है, उसे भी दुश्मन व “राष्ट्र-विरोधी” क़रार दे दिया जाता है।

“हिन्दू जोड़ो यात्रा” के अगुवा बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री के नाम एक सरोकारी हिन्दू का खुला पत्र

एक हिन्दू जो पैसे वाला है, कारख़ाना-मालिक है, पूँजीपति है, धनी व्यापारी है और दूसरा हिन्दू जो मज़दूर, मेहनतकश है, ग़रीब है, उनके बीच बहुत भारी अन्तर है। पहले वाला हिन्दू दूसरे वाले को न्यूनतम मज़दूरी नहीं देता, 8 घण्टेे के काम के दिन का अधिकार नहीं देता, उनके बोनस व अन्य  लाभ चोरी कर-करके अपनी तिजोरी भर रहा है, जबकि दूसरा ग़रीब मेहनतकश मज़दूर हिन्दू  उसके शोषण के जुए के नीचे पिस रहा है, जबकि अमीर मालिक-सेठ-व्यापारी हिन्दुओं की समस्त समृद्धि की बुनियाद में तो इस ग़रीब मेहनतकश हिन्दू की मेहनत और ख़ून-पसीना है! इन दोनों हिन्दुओं में एकता एक ही तरह से स्थापित हो सकती है: सारे हिन्दुओं को मेहनत-मशक़्क़त और शारीरिक श्रम करना चाहिए जिससे कि समाज की समूची सम्पदा पैदा होती है। अगर कुछ हिन्दू मालिक बने रहें और कुछ उनके मज़दूर, तो “हिन्दू  एकता” कैसे स्थापित होगी?

अयोध्या और ज्ञानवापी के बाद अब सम्भल और अजमेर के ज़रिए ध्रुवीकरण बढ़ाने की तैयारी में जुटा फ़ासीवादी गिरोह !!

सम्भल के पूरे मसले ने एक बार फिर न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था के फ़ासीवादी चरित्र को पुष्ट किया है बल्कि यह भी दिखा दिया है कि पूरी राज्य मशीनरी का किस हद तक फ़ासीवादीकरण हो चुका है। भारत में फ़ासीवादियों ने पिछले कई दशकों के दौरान राज्य की तमाम संस्थाओं में व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है जिसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।

हिमाचल प्रदेश में संघी लंगूरों का उत्पात और कांग्रेस सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता

हिमाचल प्रदेश में अभी विगत दिनों देवभूमि संघर्ष समिति बैनर तले फ़ासीवादी आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद से सम्बन्ध रखने वाले गिरोह ने साम्प्रदायिक नफ़रत के खेल को खुले तौर पर अंजाम दिया। राज्य की कांग्रेस सरकार इस साम्प्रदायिक घटना से निपटने में न सिर्फ़ नाकाम रही, बल्कि विधानसभा के भीतर कांग्रेस पार्टी का एक विधायक स्वयं दंगाइयों की भाषा बोल रहा था। राज्य की कांग्रेस सरकार के इस बर्ताव पर अब वे लोग क्या कहेंगे, जो विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार से आह्लादित होकर कांग्रेस की जीत को फ़ासीवाद की पराजय के तौर बताते नहीं थकते हैं और राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत के बाद छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगते हैं। फ़ासीवादी हमलों के समक्ष हिमाचल में कांग्रेस सरकार की दयनीय हालत पर हम आगे चर्चा करेंगे। उसके पहले संघियों द्वारा मचाये गये उत्पात पर बात करते हैं।

रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’

जब टाटा की तुलना रिलायंस या अडानी से की जाती है तो कई ‘प्रगतिशील’ नाराज़ हो जाते हैं और दावा करते हैं कि टाटा समूह ने अद्वितीय नैतिक मानकों को बनाये रखा है और इसकी तुलना इन भ्रष्ट समूहों से नहीं की जा सकती। या तो ये उदारवादी घोर अज्ञानता में जी रहे होते हैं, या अपने पसन्दीदा ब्राण्डों के कारनामों को भूलने का सचेत प्रयास कर रहे होते हैं। आइए देखते हैं टाटा ग्रुप की कुछ उपलब्धियाँ।

मोहन भागवत की “हिन्दू” एकजुटता किसके लिए?

क्या कभी आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद् ने देश भर के मज़दूर-ग़रीब किसानों के आन्दोलन को समर्थन दिया है? जबकि देश भर के सभी संघर्षों में 90 फ़ीसदी आबादी हिन्दुओं की होती है। याद कीजिए ग़रीब किसानों-मज़दूरों के आन्दोलन में हिन्दुओं के ये फ़र्ज़ी ठेकेदार कभी नज़र आयें हैं? जब लाखों की संख्या में ठेका, अस्थायी, दिहाड़ी मज़दूरों के पैसे ठेकेदार और मालिक हड़प जाते हैं, तब ये हिन्दू धर्म के ठेकेदार मदद के लिए सामने क्यों नहीं आते?

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं।