Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

फ़ासिस्ट दमन के गहराते अँधेरे में चंद बातें जो शायद आपको भी ज़रूरी लगें

आज के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी-शाह की फ़ासिस्ट सत्ता किसी भी जुझारू जन-उभार की संभावना से थरथर काँप रही है। इसीलिए, देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी जनांदोलन को कुचलने के लिए वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों की पूरी ताक़त झोंक दे रही है, जेनुइन जनांदोलनों के नेताओं पर आतंकवाद और देशद्रोह आदि की धाराएँ लगाकर फर्जी मुकदमे ठोंक रही है और उनके ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। लेकिन जैसाकि हमेशा होता है, किसी भी सत्ता का जनता से भय जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह उतना ही नग्न-निरंकुश दमनकारी होती जाती है। जनता को डराने की एक हद जब पार हो जाती है तो फिर जनता धीरे-धीरे डरना बंद कर देती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि जीना मुहाल होने पर और अपने सारे अधिकारों के छिनते जाने पर जनता सड़कों पर उतरती ही है। शुरूआती दौरों में सत्ता के दमन और आतंक के प्रभाव से वह दब और बिखर जाती है। लेकिन शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह फिर -फिर सड़कों पर उतरती है। फिर सत्ता तंत्र का दमन भी बढ़ता जाता है और फिर ऐसा दौर आता है कि जनता डरना बंद कर देती है। सभी आततायी शासक उसी दिन के बारे में सोचकर भयाक्रांत हो जाते हैं।

भारत जोड़ो न्याय यात्रा की असलियत

आज के दौर में किसी भी रूप में कांग्रेस या किसी पूँजीवादी पार्टियों के गठबन्धन नेतृत्व में फ़ासीवादी ताक़तों को निर्णायक रूप में परास्त नहीं किया जा सकता। हाँ, कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद एक सम्भावना यह हो सकती है कि क्रान्तिकारी ताक़तों को कुछ मोहलत मिले। लेकिन यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। मज़दूर वर्ग को यह समझ लेना चाहिए कि फ़ासीवाद कभी भी चुनाव के रास्ते से नहीं हराया जा सका है। यह टुटपुँजिया वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है, जो बड़ी पूँजी की सेवा करता है। इसलिए चुनावी रास्ते से इसे किसी भी रूप में नही हराया जा सकता। इसके लिए मज़दूर वर्ग को स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के साथ एक जुझारू क्रानितकारी जनआन्दोलन खड़ा करना होगा। तभी फ़ासीवाद को निर्णायक तौर पर शिकस्त दी जा सकती है। आज इसकी शुरुआत व्यापक मेहनतकश जनता को रोज़गार और महँगाई, शिक्षा और चिकित्सा के मसले पर अपने जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करने से करनी होगी।

राम मन्दिर से अपेक्षित साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने में असफल मोदी सरकार अब काशी-मथुरा के नाम पर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की फ़िराक़ में

मोदी सरकार के ख़िलाफ़, उसकी जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से बने विपक्ष से कोई उम्मीद पालकर रखना आत्मघाती होगा। अगर इन विपक्षी चुनावी पार्टियों का गठबन्धन अनपेक्षित रूप से चुनाव जीत भी जाये, तो वह भाजपा की किसी और भी ज़्यादा तानाशाह और बर्बर किस्म की सरकार के दोबारा चुने जाने की ज़मीन ही तैयार करेगा। अव्वलन, तो इस समय पूँजीवादी विपक्ष के लिए एकजुट रहना और एकजुट तरीके से चुनाव लड़कर जीतना ही बहुत मुश्किल है। नामुमकिन नहीं है, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर है। लेकिन अगर ऐसा हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद के एक नये, ज़्यादा बर्बर और उन्मादी उभार की ही ज़मीन तैयार करेगा। इसकी बुनियादी वजह है मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट, जिससे तत्काल उबर पाने की गुंजाइश बेहद कम है। ऐसे में, कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि आपवादिक स्थिति में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा हार भी जाये, तो वह फ़ासीवादी उभार की एक नये स्तर पर ज़मीन ही तैयार करेगा।

बिगुल पॉडकास्ट – 4 – भाजपा के ‘लव जिहाद’ की नौटंकी की सच्चाई

चौथे पॉडकास्ट में हम मज़दूर बिगुल के मई 2023 अंक में प्रकाशित गायत्री भारद्वाज के एक बेहद जरूरी लेख को पेश कर रहे हैं। शीर्षक है – “भाजपा के ‘लव जिहाद’ की नौटंकी की सच्चाई”

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न और मण्डल कमीशन की राजनीति

भारतीय बुर्जुआ राजनीति में दो शब्दों, मण्डल और कमण्डल को अक्सर एक दूसरे के विलोम के तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन वास्तव में दोनों ही राजनीतिक धाराओं का यह अन्तर केवल सतही है, और वस्तुत: ये एक दूसरे के पूरक का काम करती हैं। पिछले 40 वर्षों के राजनीतिक इतिहास ने तो यही दर्शाया है कि दोनों ही धाराएँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज भारत में कमण्डल की राजनीति के जरिये फ़ासीवाद की विषबेल भी मण्डल की राजनीति के कारण बनी ज़मीन पर ही पनपी है। कभी मण्डल की राजनीति के जरिये कमण्डल का जवाब देने की बात करने वाले नीतीश कुमार व शरद यादव भी सत्ता का सुख पाने के लिए भाजपा के साथ गलबहियाँ करने से नहीं हिचके। और यह अनायास नहीं था, बल्कि वर्गीय राजनीति में इसकी वजहें निहित थीं।

राम मन्दिर के बाद काशी के ज़रिये साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश में लगे संघ-भाजपा – इस उन्माद में मत बहिए! आइए अपने सही इतिहास को जानें!

मोदी सरकार के पास अब यही मुद्दे बचे हैं, जिसके ज़रिये वह 2024 का चुनाव जीत सकती है। पहले राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए, अब ज्ञानवापी के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश जारी है और हो सकता है चुनाव तक काशी-मथुरा तक भी यह आग पहुँच जाये। भाजपा व संघ परिवार आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। यह आपको तय करना है कि आपको क्या चाहिए। क्या आपको शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के अपने बुनियादी हक़ चाहिए, एक बेहतर जीवन चाहिए या फिर आपको मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में ही उलझे रहना है।

हिटलर की तर्ज़ पर अरबों रुपये बहाकर मोदी की महाछवि का निर्माण

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि फासीवादियों के व्यवहार में अत्यन्त नाटकीयता होती है। उन्हें नाटकीयता से विशेष लगाव होता है। वे खुद को ‘रेजी’ (निर्देशन, मंच प्रबन्धन) बोलते हैं, और उन्होंने सीधे तौर पर नाटक की प्रभावी विधा की एक पूरी श्रृँखला अपनाई है  जैसे कि रोशनी और संगीत, कोरस और अप्रत्याशित मोड़। एक अभिनेता ने मुझे कई साल पहले बताया था कि हिटलर ने म्यूनिख के कोर्ट थिएटर में एक्टर फ्रिट्ज़ बेसिल से न केवल वक्तृत्व कला की, बल्कि ‘कम्पोर्टमेण्ट’ की भी शिक्षा ली थी। मसलन उसने सीखा कि मंच पर कैसे एक नायक की तरह चलते हैं, जिसके लिए आपको अपने घुटने सीधे रखते हुए पूरे पाँव को ज़मीन पर रखना होता है ताकि आप महान दिखें। और उसने अपनी बाहों को क्रॉस करने का सबसे प्रभावशाली तरीका सीखा और ये भी सीखा कि कैसे सहज दिखना होता है।

बिगुल पॉडकास्ट – 3 – भाजपा और संघ परिवार के गाय-प्रेम और गोरक्षा के बारे में सोचने के लिए कुछ सवाल

तीसरे पॉडकास्ट में हम मज़दूर बिगुल के अप्रैल 2023 अंक में प्रकाशित गायत्री भारद्वाज के एक बेहद जरूरी लेख को पेश कर रहे हैं। शीर्षक है – “भाजपा और संघ परिवार के गाय-प्रेम और गोरक्षा के बारे में सोचने के लिए कुछ सवाल”

बिगुल पॉडकास्ट – 2 – अब ज्ञानवापी पर ध्रुवीकरण तेज़ करने की तैयारी – जन असन्तोष कम करने में राम मन्दिर भी नाकाम 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे पर जारी की गयी सर्वेक्षण रिपोर्ट पर भारत की क्रांतिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) का बयान

नयी आपराधिक प्रक्रिया संहिताएँ, जनता के दमन के नये औज़ार

फ़ासिस्टों के “न्याय” में अंग्रेज़ों के काले क़ानूनों से ज़्यादा अँधियारा है। ग़ौरतलब है कि मानसून सत्र में पेश किया गये पहले मसौदे में आतंकवाद के अपराध की परिभाषा, इन नयी “न्याय” संहिताओं के लाने के असल औचित्य को नंगे रूप से रेखांकित करती थी, हालाँकि बाद में उसे संशोधित कर एक पुरानी परिभाषा को ही अंगीकार कर पेश किया गया, जोकि इन नये संहिताओं के मर्म को बखूबी पेश करता है। आने वाले समय में व्यवहार में इन संहिताओं को किस तरह से लागू किया जायेगा, इसका अन्दाज़ा लगाना कोई अन्तरिक्ष विज्ञान का मसला नहीं है।