Category Archives: अन्तर्राष्ट्रीय

बर्बरता की सारी हदों को पार करने के बाद भी फ़िलिस्तीनी अवाम के मुक्तिस्वप्न को डिगा नहीं पाये हैं ज़ायनवादी हत्यारे!

इज़रायल नाम का कोई देश दुनिया के नक्शे पर 1948 से पहले नहीं था। जिस देश को आज इज़रायल का नाम दिया जा रहा है वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है। फ़िलिस्तीन की जगह-ज़मीन पर इज़रायल को इसलिए बसाया गया क्योंकि 1908 में मध्य-पूर्व में तेल के खदान मिले जो कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसपर ही अपना क़ब्ज़ा जमाने के लिये ज़ायनवादी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य की स्थापना फ़िलिस्तीन की जनता को उनकी ज़मीन से बेदखल करके करने की शुरुआत हुई। इसके लिए ब्रिटेन ने ज़ायनवादी हत्यारे गिरोहों को फ़िलिस्तीन ले जाकर बसाना शुरू किया, उन्हें हथियारों से लैस किया और फिर 1917 से 1948 के बीच हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का इन ज़ायनवादी धुर-दक्षिणपन्थी गुण्डा गिरोहों द्वारा क़त्लेआम किया गया और लाखों फ़िलिस्तीनियों को उनके ही वतन से बेदखल करने का काम शुरू हुआ। बाद में अमेरिकी साम्राज्यवाद की सरपरस्ती में इज़रायली ज़ायनवादियों द्वारा यह काम अंजाम दिया गया। यह प्रक्रिया आज भी अपने सबसे बर्बर रूप में जारी है।

भीषण आर्थिक व राजनीतिक संकट से जूझता बंगलादेश लेकिन क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में शासक वर्ग का दबदबा क़ायम

आने वाले दिनों में बंगलादेश में आर्थिक संकट और गहराने ही वाला है क्योंकि चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है और भुगतान सन्तुलन की हालत खस्ता है। पूँजीपतियों द्वारा क़र्ज़ों की अदायगी न करने की सूरत में बैंकिंग क्षेत्र का संकट भी और बढ़ने वाला ही है। विश्व बाज़ार में उछाल की सम्भावना कम होने की वजह से निर्यात पर टिकी अर्थव्यवस्था के सामने संकट से उबरने की वस्तुगत सीमाएँ हैं। ऐसे में लोगों के जीवन में बेहतरी और उनकी आमदनी बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं दिखती है। इस गहराते आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति राजनीतिक संकट के गहराने के रूप में सामने आयेगी क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए और जन आक्रोश को कुचलने के लिए शेख़ हसीना की अवामी लीग सरकार का दमनतंत्र ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होता जायेगा।

अगर न्याय नहीं है, तो शान्ति कैसे हो सकती है?

उपनिवेशवादियों, हत्यारों, चोरों, लुटेरों और पश्चिमी साम्राज्यवाद की लठैती करने वाले और नियमित तौर पर फ़िलिस्तीनी जनता का कत्ले-आम करने वाले इज़रायल के “आत्मरक्षा के अधिकार” की बात दुनिया भर के साम्राज्यवादी लुटेरे, अपराधी और हत्यारे ही कर सकते हैं या फिर धुर दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी कर सकते हैं। गाज़ा को पूरी दुनिया के न्यायप्रिय लोग दुनिया की सबसे बड़ी जेल मानते हैं और वह यही है। अरब विश्व के पतित बुर्जुआ शासकों की मदद से इज़रायल गाज़ा की जनता को एक लम्बी और धीमी मौत मारना चाहता है और इसी वजह से उसका पूर्ण ब्लॉकेड करके उसे एक जेल में तब्दील करके रखा हुआ है। 7 अक्टूबर को जो हुआ वह एक ‘प्रिज़न ब्रेक’ है, जिसमें गाज़ा के कैदियों ने इज़रायल द्वारा खड़ी दीवारों और बाड़ेबन्दियों को तोड़कर उन पर हमला किया है।

गाज़ा पर इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक घेरेबन्दी मुर्दाबाद! गाज़ा पर इज़रायली कब्ज़ा मुर्दाबाद! फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष ज़िन्दाबाद!

कोई भी व्यक्ति जिसमें न्याय, बराबरी और निष्पक्षता की थोड़ी भी भावना है, वह स्वस्थ मन से इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी राज्य का समर्थन नहीं कर सकता! हम सभी जानते हैं कि इस मसले का केवल एक ही समाधान है- फ़िलिस्तीन का एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित होना जहाँ मुस्लिम, यहूदी और ईसाई एक साथ रह सकें। हमास का उद्देश्य ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है या नहीं, यह इज़रायली सेटलर्स द्वारा औपनिवेशिक गु़लामी और नस्लवादी रंगभेद का विरोध करने के फिलिस्तीनियों के अधिकार का आधार नहीं बन सकता है; अपने नेतृत्व का चुनाव करने का अधिकार फिलिस्तीनियों का अपना अधिकार है और सच तो यह है कि हमास इज़रायल के खा़त्मे या यहूदियों के क़त्लेआम की बात नहीं कर रहा, आप ख़ुद इसे देख सकते हैं! वो 1967 के दौर में मौजूद सीमाओं को वापस बहाल करने की माँग कर रहा है, द्वि-राज्य समाधान की बात कर रहा है और नये सेटलर उपनिवेश पर रोक और 100000 गाज़ाई बन्दियों के रिहाई की माँग कर रहा है।

यूक्रेन युद्ध: तबाही और बर्बादी के 500 दिन

यूक्रेन युद्ध में आम लोगों की भले ही कितने भी बड़े पैमाने पर तबाही और बर्बादी हो रही हो, लेकिन मुनाफ़े की होड़ की वजह से पैदा होने वाला युद्ध अपने आप में अकूत मुनाफ़ा कूटने का ज़रिया भी बन रहा है। सबसे ज़्यादा फ़ायदा अमेरिका के मिलिटरी औद्योगिक कॉम्पलेक्स को हो रहा है। लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन और बोइंग जैसी अमेरिकी सैन्य कम्पनियाँ यूक्रेन युद्ध की वजह से सैन्य हथियारों के उत्पादन के पुराने कीर्तिमान तोड़ रही हैं और इस प्रक्रिया में दौरान अभूतपूर्व मुनाफ़ा कमा रही है। इन कम्पनियों के शेयर्स की क़ीमतों में भी ज़बर्दस्त उछाल देखने को आ रहा है।

ईरान में सत्ता-विरोधी जन आन्दोलन के तीन माह : संक्षिप्त रिपोर्ट

सितम्बर माह में ईरान के गश्त-ए-एरशाद द्वारा महसा अमीनी की बर्बर हत्या के बाद से पूरे देश में लोग सड़कों पर उतरकर हिजाब क़ानून व अन्य महिला-विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं, तथा इनकी बर्ख़ास्तगी की माँग कर रहे हैं। 100 दिन से भी ज़्यादा का समय बीत जाने के बाद भी लोग लगातार इन प्रदर्शनों में भागीदारी कर रहे हैं। ज्ञात हो कि वर्ष 1979 में कट्टरपन्थी इस्लामी शासन के सत्ता में क़ाबिज़ होने के उपरान्त से ईरान में महिलाओं (चाहे किसी भी धर्म से सम्बन्धित हों) के लिए हिजाब पहनना ज़रूरी है। इसका पालन हो, ऐसा पुख़्ता करने के लिए एक विशेष पुलिस बल भी तैनात है, जिसे गश्त-ए-एरशाद कहा जाता है।

चीन की तानाशाह सत्ता के ख़िलाफ़ सड़कों पर उमड़ा जनाक्रोश

पिछले महीने चीन की सरकार की लॉकडाउन नीतियों के ख़िलाफ़ चीन की सड़कों पर मज़दूरों और नौजवानों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। विरोध प्रदर्शन उत्तर पश्चिमी प्रान्त शिनजांग के उरूमची शहर से शुरू होकर, शेनज़न, शंघाई, बीजिंग, वुहान जैसे बड़े शहरों तक फैल गया। 24 नवम्बर को उरुमची शहर के एक अपार्टमेण्ट में आग लगने के कारण 10 लोगों की मौत हो गयी थी। यह दुर्घटना चीन के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शनों का तात्कालिक कारण बना। लोगों का कहना है कि देश में ग़ैर-जनवादी सख़्त लॉकडाउन नीतियों के कारण अग्निशमन विभाग द्वारा अपार्टमेण्ट में फँसे लोगों को बचाया नहीं जा सका।

हज़ारों मज़दूरों के ख़ून की क़ीमत पर मना फ़ुटबाल विश्व कप का जश्न

साल 2010 में क़तर ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों को पछाड़कर 2022 में होने वाले फ़ुटबाल विश्व कप की मेज़बानी हासिल की। 20 नवम्बर से 18 दिसम्बर तक होने वाले 29 दिनों के फ़ुटबाल विश्व कप की तैयारी के लिए क़तर ने पिछले 12 सालों में पानी की तरह पैसा बहाया। इस विश्व कप को अबतक का सबसे महँगा फ़ुटबाल विश्व कप बताया जा रहा है। इन 12 सालों में क़तर ने हर हफ़्ते 400 करोड़ रुपये ख़र्च किये। इसका कुल बजट 17.81 लाख करोड़ तक पहुँच गया है, जो अर्जेण्टीना, न्यूज़ीलैण्ड जैसे 10 देशों के सालाना बजट से भी ज़्यादा है।

फ़ॉक्सकॉन की फ़ैक्ट्री में मज़दूरों के आन्दोलन का दमन : संक्षिप्त रिपोर्ट

वर्तमान चीन जहाँ नाम के लिए समाजवादी व्यवस्था स्थापित है, या फिर मज़दूर वर्ग के ग़द्दार देङ शियाओ पिङ के शब्दों में ‘बाज़ार समाजवाद’ स्थापित है, वह चीन आज दुनियाभर में श्रम के पूँजी द्वारा शोषण की सबसे बड़ी मण्डी बन चुका है। इस माह के मध्य में अन्तर्रराष्ट्रीय समाचारपत्रों व अन्य माध्यमों से कुछ तस्वीरें सामने आयीं, जिसमे हैज़मेट सूट पहने और हाथों में बैट लिये सुरक्षाकर्मी, प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों का दमन कर रहे हैं। ‘द गार्जियन’ में 23 नवम्बर को छपी ख़बर के अनुसार चीन के झेंगझू शहर में कुछ दिनों से फ़ॉक्सकॉन कम्पनी में काम करने वाले मज़दूर प्रदर्शनरत हैं।

ब्राज़ील में लूला के जीतने के निहितार्थ

इस वर्ष ब्राज़ील में हुए राष्ट्रपति चुनाव में वाम पक्ष की ओर से लुइज़ इनेसियो लूला डा सिल्वा के जीतने के बाद ब्राज़ील समेत भारत की लिबरल जमात ब्राज़ील में फ़ासीवाद पर “मुक्कमल जीत” का जश्न मनाकर लहालोट हो रही है। ब्राज़ील के फ़ासीवादी नेता बोल्सोनारो की इस चुनाव में होने वाली हार के साथ ही इस बात का प्रचार पूरे ज़ोर-शोर से किया जा रहा है कि अब ब्राज़ील में आम मेहनतकश जनता के लिए बेहतर ज़िन्दगी का रास्ता खुल चुका है। लेकिन इन तमाम प्रचारों और शोर के बीच ब्राज़ील की जनता की स्मृति को थोड़ा पीछे ले जाकर देखें तो हम ब्राज़ील समेत भारत में लूला के समर्थन में उठ रहे खोखले नारों की असलियत जान पायेंगे।