Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

पाँच दिवसीय सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी हैदराबाद में सम्पन्न हुई! फ़ासीवाद की सही समझ के साथ इसके विरुद्ध संघर्ष तेज़ करने का संकल्प

हमारे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में फ़ासीवाद की समझदारी को लेकर आम तौर पर काफ़ी विभ्रम मौजूद हैं। कई संगठन और समूह बीसवीं सदी के फ़ासीवाद के हूबहू दोहराव की अपेक्षा कर रहे हैं तो कई आज मौजूदा सत्ता को फ़ासीवादी कहते हैं मगर उनमें फ़ासीवाद की स्पष्ट समझदारी की कमी है और वे फ़ासीवाद से लड़ने के लिए बीसवीं सदी में अपनायी गयी रणनीतियों से आगे नहीं बढ़ पा रहें हैं। ऐसे में, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित यह संगोष्ठी  एक पथ प्रदर्शक के तौर पर उन तमाम लोगों के लिए मददगार है जो फ़ासीवाद को समझने और उसके ख़िलाफ़ सही सर्वहारा रणनीति बनाने के काम में जुटे हुए हैं।

मोदी राज में ‘अडानी भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार न भवति’ !

भाजपा नेताओं के लिए तो अडानी जी ही देश हैं, इसलिए अडानी पर हमला “देश” पर हमला है, विदेशी ताक़तों की साज़िश है। इन सब (कु)तर्कों के बावजूद अडानी जी ने विदेशों में देश का डंका तो बजवा ही दिया है।

लार्सन एण्ड टूब्रो कम्पनी के चेयरमैन की इच्छा : “राष्ट्र के विकास” के लिए हफ़्ते में 90 घण्टे काम करें मज़दूर व कर्मचारी!

मोदी सरकार द्वारा लाये गये नये लेबर कोड के तमाम मक़सदों में से एक मक़सद यह है कि मज़दूर 12-12 घण्टे बिना किसी कानूनी रोक-टोक के काम करने को मजबूर किये जा सकें। आर्थिक संकट के दौर में मोदी सरकार को अरबों रुपये ख़र्च कर तमाम पूँजीपतियों ने इसीलिए तो सत्ता में पहुँचाया था। अपने पहले कार्यकाल से ही मोदी और उसके पीछे खड़े सारे पूँजीपति तरह-तरह के बयानों से इस बात का माहौल बनाते रहे हैं मज़दूर सप्ताह में सारे दिन 12-12 घण्टे काम करने को “राष्ट्र की प्रगति” के नाम पर स्वीकार कर लें! ख़ुद प्रधानमन्त्री मोदी दिन में 18-18 घण्टे काम करने के बयान देते रहे हैं। इससे पहले इन्फ़ोसिस के नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घण्टे काम करवाने की इच्छा जतायी थी और अब लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन ने हमसे हफ्ते में 90 घण्टे काम करवाने की चाहत अभिव्यक्त की है। और मोदी ने इन्हीं इच्छाओं को पूरा करने के लिए “देश के विकास” के नाम पर हमसे सप्ताह में 90-90 घण्टे काम करवाने का इन्तज़ाम लेबर कोड के ज़रिये कर दिया है!

नया साल मज़दूर वर्ग के फ़ासीवाद-विरोधी प्रतिरोध और संघर्षों के नाम! साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्षों के नाम!

यह सच है कि बीता साल भी पूरी दुनिया में मेहनतकश अवाम के लिए प्रतिक्रिया और पराजय के अन्धकार में बीता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। यह समय पस्तहिम्मती का नहीं, बल्कि अपनी हार से सबक लेकर उठ खड़े होने का है। रात चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह को आने से नहीं रोक सकती। इस नये साल हमें सूझबूझ, जोशो-ख़रोश और ताक़त के साथ गोलबन्द और संगठित होने को अपना नववर्ष का संकल्प बनाना होगा। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के ख़िलाफ़, हर रूप में शोषण, दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ समूची मेहनतकश जनता को संगठित करने के काम को नये सिरे से, रचनात्मक तरीक़े से अपने हाथों में लेना होगा।

दिल्ली विधानसभा के चुनावी मौसम में चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों को याद आया कि ‘मज़दूर भी इन्सान हैं!’

मेहनतकशों-मज़दूरों के इस भयंकर शोषण के ख़िलाफ़ क्या ये चुनावबाज़ पार्टियाँ असल में कोई क़दम उठायेंगी? नहीं। क्यों? क्योंकि ये सभी पार्टियाँ दिल्ली के कारखाना-मालिकों, ठेकेदारों, बड़े दुकानदारों और बिचौलियों के चन्दों पर ही चलती हैं।  अगर करावलनगर, बवाना, वज़ीरपुर, समयपुर बादली औद्योगिक क्षेत्र से लेकर खारी बावली, चाँदनी चौक या गाँधी नगर जैसी मार्किट में 12-14 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों का भंयकर शोषण वही मालिक या व्यापारी कर रहे हैं जो ‘आप’ ‘भाजपा’ या ‘कांग्रेस’ के व्यापार प्रकोष्ठ और उद्योग प्रकोष्ठ में भी शामिल हैं और इन्हीं के चन्दों से चुनावबाज पार्टियाँ अपना प्रचार-प्रसार करती है। साफ़ है कि ये पार्टियों अपने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के खिलाफ़ मज़दूर हितों के लिए कोई संघर्ष चलाना दूर इस मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोलने वालीं।

भाजपा की वाशिंग मशीन : भ्रष्टाचारी को “सदाचारी” बनाने का तन्त्र!

जहाँ एक तरफ़ मुकुल रॉय, सुवेंदु अधिकारी, मिथुन चक्रवर्ती, सोवन चटर्जी, वाईएस चौधरी, सीएम रमेश, प्रफुल्ल पटेल व अन्य सारे उदाहरण आपके सामने हैं, जो भाजपा के समर्थक बनते या उसमें शामिल होते ही परम भ्रष्टाचारी से परम “सदाचारी” बन गये, वहीं दूसरी तरफ़ मोदी सरकार के कार्यकाल में ही हुए राफेल घोटाला, पीएम केयर घोटाला, अडानी घोटाला, सेण्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट घोटाला, इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला जैसे घोटाले भी है, जिनकी जाँच की फाइल ही नहीं बन रही हैं। ऐसे में ‘बहुत सह लिया भ्रष्टाचार अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ जैसे मोदी के जुमलों की हक़ीक़त व संघ परिवार व भाजपा द्वारा सरकारी एजेंसियों ईडी, सीबीआई, एसीबी, आईटी, न्यायपालिका, चुनाव आयोग व अन्य के अन्दर घुसपैठ की तस्वीर अच्छी तरह से सबके सामने आ रही है। भाजपा सरकार अपने आपको चाहे जितना भी “संस्कारी”, “धर्मध्वजाधारी”, “राष्ट्रवादी” का तमगा लगा लें, मगर इनके “चाल-चेहरा-चरित्र” की सच्चाई सबके सामने आने लगी है। भाजपा सरकार ‘देशभक्ति’, हिन्दू-मुसलमान साम्प्रदायिकता, मन्दिर-मस्जिद, ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’, आदि के फ़र्जी शोर में इन्हें दबाने की कोशिश ज़रूर कर रही है, मगर मोदी का 56 इंच का सीना सिकुड़ता जा रहा है।

चुनावों में भाजपा के फ़र्ज़ी मुद्दों से सावधान!

हर असली और ज़रूरी मुद्दे पर भाजपा सरकार नंगी हो चुकी है। इसलिए ही इन्हें ग़ैर-ज़रूरी और नक़ली मुद्दों की ज़रूरत होती है, जिसपर जनता को बाँट सकें। वहीं बिके हुए गोदी मीडिया की मदद से यह काम उनके लिए और भी आसान हो गया है। साथ में इनके आईटी-सेल सोशल मीडिया के ज़रिये भी इसी काम में लगे हुए हैं। फ़ेक न्यूज़ फ़ैलाकर यह पहले से ही लोगों के अन्दर ज़हर भरने का काम कर रहे हैं, पर चुनाव के आते ही बंगलादेश और रोहिंग्या मुसलमानों के “घुसपैठ” और “हमले” का डर लोगों के दिमाग़ में डालना शुरू कर देते हैं, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत! मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी!

मुसलमानों और सामाजिक आन्दोलनों को झूठे दुश्मन के रूप में चित्रित करके, मन्दिर-मस्जिद, गोमाता, लव-लैण्ड-वोट जिहाद, वक्फ़ बोर्ड आदि जैसे कई फ़र्ज़ी मुद्दे उठाकर समाज में भय का माहौल पैदा करके इनका जनाधार बनाया गया है। ऐसे में जब रोज़गार-महँगाई-मन्दी के चलते जनता के बीच भारी असन्तोष मौजूद है, तब भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर मीडिया और आरएसएस कार्यकर्ताओं की मदद से व पूँजीपतियों द्वारा ख़र्च किये गये हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके व इसके अलावा चुनाव में कटेंगे तो बँटेंगे, ओबीसी-मराठा मुद्दे पर भी ध्रुवीकरण करके, चुनाव आयोग की मदद से मतदाता सूची में बदलाव, सम्भावित तौर पर ईवीएम से चुनावों में हेरफेर करके और इसके साथ ही “लाडली बहन” जैसे लालच दिखाने वाली योजनाओं द्वारा एक बार फिर सत्ता तक पहुँचने में भाजपा-महायुति क़ामयाब रही है। इन सब कारणों में संघ परिवार के समर्पित हिन्दुत्व वोट बैंक और भाजपा के वास्तविक जनाधार की भूमिका को निश्चित रूप से नहीं भुलाया जाना चाहिए।

महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन की जीत और झारखण्ड में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन की जीत के मज़दूर वर्ग के लिए मायने

भाजपा और संघ परिवार के पास एक ऐसा ताक़त है, जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के पास नहीं है: एक विशाल, संगठित, अनुशासित काडर ढाँचा। इसके बूते पर हर चुनाव में ही उसे एक एडवाण्टेज मिलता है। निश्चित तौर पर, इसके बावजूद आर्थिक व सामाजिक असन्तोष के ज़्यादा होने पर भाजपा हार भी सकती है। लेकिन जब ऐसा होने वाला होता है, तो संघ अपने आपको चुनाव की प्रक्रिया से कुछ दूर दिखाने लगता है, ताकि हार का बट्टा उसके सिर पर लगे। ऐसी सूरत में, वह अपने आपको अचानक शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन दिखलाने लगता है और भाजपा और उसकी सरकारों के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी भी कर देता है। इसी को कई लोग भाजपा और संघ के बीच झगड़े के रूप में देखकर तालियाँ बजाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह संघ परिवार की पद्धति का एक हिस्सा है। वह पहले भी ऐसे ही काम करता रहा है। इसी के ज़रिये वह संघ की छवि को सँवारे रखने का काम करता है। भाजपा भी इसे समझती है और जानती है कि संघ की छवि का बरक़रार रहना आवश्यक है।

देशभर में साम्प्रदायिक उन्माद और नफ़रत का माहौल बनाने में जुटे संघ और भाजपा

शुरू में फ़ासीवादी राजनीति के तहत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है, बहुसंख्यक समुदाय की जनता के सामने उन्हें एक दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, पूँजीवादी व्यवस्था के सभी पापों का ठीकरा इस काल्पनिक दुश्मन अल्पसंख्यक आबादी के सिर पर फोड़ दिया जाता है, फ़ासीवादी नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रवक्ता और हृदय-सम्राट के रूप में पेश किया जाता है और बाद में हर उस शख़्स को जो फ़ासीवादी सरकार की आलोचना करता है, उसे इस नक़ली दुश्मन की छवि में समेट लिया जाता है। मक़सद होता है पूँजीवादी व्यवस्था व कारखाना मालिकों, ठेकेदारों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, धन्नासेठों, धनी व्यापारियों आदि के समूचे वर्ग को कठघरे से बाहर करना, उन्हें बचाना, जबकि उनके कुकर्मों का दोष आम मेहनतकश अल्पसंख्यक आबादी पर डाल देना और इस प्रकार समूची मेहनतकश आबादी को ही धर्म के नाम पर आपस में लड़वा देना, ताकि असली दुश्मन, यानी मालिकों, व्यापारियों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, व धन्नासेठों, यानी लुटेरों के वर्ग को बचाना। जो भी इस साज़िश के ख़िलाफ़ खड़ा होता है, उसे भी दुश्मन व “राष्ट्र-विरोधी” क़रार दे दिया जाता है।