Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

मोदी सरकार के दस साल और राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण

पुलिस, सेना से लेकर सीबीआई, ईडी, रॉ जैसी संस्थाएँ आज नंगे तौर पर फ़ासीवादियों के हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं। बीते साल प्रमुख अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि रॉ के एक उच्च अधिकारी कर्नल दिव्य सतपथी डिसिनफो लैब नामक एक फ़र्ज़ी रिसर्च कम्पनी बनाकर विदेश में रह रहे मोदी सरकार के विरोधियों को अपना निशाना बना रहे थे। रॉ द्वारा संचालित इस कंपनी का कार्यभार था मोदी-शाह हुकूमत के आलोचकों को और ऐसे समूहों को भारत के ख़िलाफ़ एक वैश्विक साज़िश के रूप मे पेश करना और उन्हें फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजने का अधार बनाना।

बिगुल पॉडकास्ट – 1 – राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर सवार हो फिर सत्ता पाने की फ़िराक़ में मोदी सरकार

बिगुल पॉडकास्ट – 1 – इस पॉडकास्ट की शुरुआत हम बिगुल के जनवरी 2024 अंक के संपादकीय “महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टचार पर काबू पाने में नाकाम मोदी सरकार राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर हो फ़िर सत्ता पाने की फ़िराक़ में” लेख के साथ कर रहे हैं।

राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर सवार हो फिर सत्ता पाने की फ़िराक़ में मोदी सरकार

यह कोई धार्मिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यक्रम है। महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाकाम मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है। इसके लिए मोदी-शाह की जोड़ी के पास तीन प्रमुख हथियार हैं : पहला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी सांगठनिक काडर ढाँचा; दूसरा, भारत के पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से अकूत धन-दौलत का समर्थन; और तीसरा, कोठे के दलालों जितनी नैतिकता से भी वंचित हो चुका भारत का गोदी मीडिया, जो खुलेआम साम्प्रदायिक दंगाई का काम कर रहा है और भाजपा व संघ परिवार की गोद में बैठा हुआ है।

कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है।

चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं – क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त

हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

90,000 मज़दूरों को इज़रायल भेजना इज़रायली ज़ायनवादियों की हत्यारी मुहिम का समर्थन करना है!

भारत ने 1948 के बाद से ही फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का लगातार समर्थन किया है, लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद भारत का इज़रायल की ओर झुकाव बढ़ता जा रहा है। इतना ही नहीं, भारत सरकार ने 90,000 भारतीय कामगारों को इज़रायल भेजने की घोषणा की है। इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन पर जारी युद्ध के कारण हज़ारों फ़िलिस्तीनीयों के वर्क परमिट रद्द कर दिये गये हैं और उन्हें विस्थापित कर दिया गया है। इन श्रमिकों की जगह इज़रायल ने भारत से 1,00,000 श्रमिकों को भेजने का अनुरोध किया, जिसे भारत सरकार ने तुरन्त मंजूरी दे दी।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में और हत्यारे इज़रायली ज़ायनवादियों के ख़िलाफ़ देशभर में विरोध प्रदर्शनों को कुचलने में लगी फ़ासीवादी मोदी सरकार

भारत इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है। वहीं दोनो के खुफिया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। ज्ञात हो कि जासूसी उपकरण पेगासस भारत को देने वाला देश इज़रायल ही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें। वहीं फ़िलिस्तीन मसले पर इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक क़ब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह “शान्ति” की अपीलों और ‘दो राज्यों के समाधान’ की अपीलोंमें ज़्यादा तब्दील होने लगा। अभी भी औपचारिक तौर पर तो भारत फ़िलिस्तीन का समर्थन करता है, पर वह सिर्फ़ नाम के लिए ही है।

तरह-तरह के साधनों से फ़ासीवादी नफ़रती विचारधारा का प्रचार करने में लगा है संघ परिवार

कुछ सात-आठ महीनों के दौरान एक नया स्टीकर का ट्रेण्ड उभर कर सामने आया है। इस स्टीकर का नाम है ‘हिन्दू’ और उसके साथ भगवा झण्डा!  इस स्टीकर का चलन पिछले सात-आठ महीनों में इतना तेज़ी से बढ़ा है जो अपने आप में अभूतपूर्व है। एक न्यूज वेबसाइट न्यूज लाण्ड्री की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के बहुत से स्टीकर बेचने वाले दुकानदारों ने बताया कि एक महीने में इस स्टीकर ‘हिन्दू’ की बिक्री लगभग 20 हज़ार से 25 हज़ार आराम से हो जाती है। अब आप सोच सकते हैं कि जब एक अकेले दिल्ली शहर का यह हाल है तो पूरे देश भर में रोज़ इस प्रकार के कितने स्टीकर बिक रहे होंगे।

कब तक अमीरों की अय्याशी का बोझ हम मज़दूर-मेहनतकश उठायेंगे!

जी-20 शिखर सम्मेलन से ठीक पहले दिल्ली में हरे रंग के पर्दे और फ्लेक्स को झुग्गी-झोपड़ियों के सामने लगा दिया गया ताकि भारत की ग़रीबी पर पर्दा डाला जा सके। लेकिन जी-20 के लिए दिल्ली में जो ‘सौंदर्यीकरण’ का अभियान चला, उसके तहत ये सब होना केवल एक ही पहलू है जिससे झुग्गी में रहने वाले लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। मोदी सरकार ने जी-20 के नाम पर ग़रीबों के ख़िलाफ़ खुलकर काम किया। दिल्ली में ही कई सारी झुग्गी बस्तियों को तोड़ दिया गया। इस दौरान धौला कुआँ, मूलचन्द बस्ती, यमुना बढ़ क्षेत्र के आस-पास की झुग्गियों, महरौली, तुगलकाबाद के इलाक़े में झुग्गियों को तोड़ा गया। इससे क़रीब 2 लाख 61 हज़ार लोग प्रभावित हुए। साथ ही जिन झुग्गियों को तोड़ नहीं पाये, उन्हें हरे पर्दे से ढक दिया गया, ताकि जी-20 के प्रतिनिधियों को भारत की ग़रीबी न दिखे।

“महँगाई-बेरोज़गारी भूल जाओ! पाकिस्तान को सबक सिखाओ!” गोदी मीडिया की गलाफाड़ू चीख-पुकार, यानी चुनाव नज़दीक आ गये हैं!

हमारा ध्यान अपनी जिन्दगी की असल समस्याओं की ओर न जाए इसलिए देश में अन्ध-राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की राजनीति हो रही है। संघ परिवार और भाजपा की इस राजनीति को बहुत लोग समझने भी लगे हैं। लेकिन भाजपा अलग-अलग स्वांग रच कर इन्हीं पत्तों को खेलेगी। नूह में दंगों के समय यह साफ़ हो गया है की 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले भाजपा और संघ परिवार देश को दंगों की आग में झोंकने की योजना बना रही है। इन्हें हमेशा इस बात की उम्मीद रहती है कि अन्‍धराष्ट्रवाद का कार्ड हमेशा काम आता है। पाकिस्तान के खिलाफ़, चीन के खिलाफ़, सेना के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने की कोशिश की जाती है। लेकिन इस बार जनता को सावधान रहना होगा।