Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

“हिन्दू जोड़ो यात्रा” के अगुवा बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री के नाम एक सरोकारी हिन्दू का खुला पत्र

एक हिन्दू जो पैसे वाला है, कारख़ाना-मालिक है, पूँजीपति है, धनी व्यापारी है और दूसरा हिन्दू जो मज़दूर, मेहनतकश है, ग़रीब है, उनके बीच बहुत भारी अन्तर है। पहले वाला हिन्दू दूसरे वाले को न्यूनतम मज़दूरी नहीं देता, 8 घण्टेे के काम के दिन का अधिकार नहीं देता, उनके बोनस व अन्य  लाभ चोरी कर-करके अपनी तिजोरी भर रहा है, जबकि दूसरा ग़रीब मेहनतकश मज़दूर हिन्दू  उसके शोषण के जुए के नीचे पिस रहा है, जबकि अमीर मालिक-सेठ-व्यापारी हिन्दुओं की समस्त समृद्धि की बुनियाद में तो इस ग़रीब मेहनतकश हिन्दू की मेहनत और ख़ून-पसीना है! इन दोनों हिन्दुओं में एकता एक ही तरह से स्थापित हो सकती है: सारे हिन्दुओं को मेहनत-मशक़्क़त और शारीरिक श्रम करना चाहिए जिससे कि समाज की समूची सम्पदा पैदा होती है। अगर कुछ हिन्दू मालिक बने रहें और कुछ उनके मज़दूर, तो “हिन्दू  एकता” कैसे स्थापित होगी?

अयोध्या और ज्ञानवापी के बाद अब सम्भल और अजमेर के ज़रिए ध्रुवीकरण बढ़ाने की तैयारी में जुटा फ़ासीवादी गिरोह !!

सम्भल के पूरे मसले ने एक बार फिर न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था के फ़ासीवादी चरित्र को पुष्ट किया है बल्कि यह भी दिखा दिया है कि पूरी राज्य मशीनरी का किस हद तक फ़ासीवादीकरण हो चुका है। भारत में फ़ासीवादियों ने पिछले कई दशकों के दौरान राज्य की तमाम संस्थाओं में व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है जिसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।

हिमाचल प्रदेश में संघी लंगूरों का उत्पात और कांग्रेस सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता

हिमाचल प्रदेश में अभी विगत दिनों देवभूमि संघर्ष समिति बैनर तले फ़ासीवादी आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद से सम्बन्ध रखने वाले गिरोह ने साम्प्रदायिक नफ़रत के खेल को खुले तौर पर अंजाम दिया। राज्य की कांग्रेस सरकार इस साम्प्रदायिक घटना से निपटने में न सिर्फ़ नाकाम रही, बल्कि विधानसभा के भीतर कांग्रेस पार्टी का एक विधायक स्वयं दंगाइयों की भाषा बोल रहा था। राज्य की कांग्रेस सरकार के इस बर्ताव पर अब वे लोग क्या कहेंगे, जो विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार से आह्लादित होकर कांग्रेस की जीत को फ़ासीवाद की पराजय के तौर बताते नहीं थकते हैं और राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत के बाद छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगते हैं। फ़ासीवादी हमलों के समक्ष हिमाचल में कांग्रेस सरकार की दयनीय हालत पर हम आगे चर्चा करेंगे। उसके पहले संघियों द्वारा मचाये गये उत्पात पर बात करते हैं।

रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’

जब टाटा की तुलना रिलायंस या अडानी से की जाती है तो कई ‘प्रगतिशील’ नाराज़ हो जाते हैं और दावा करते हैं कि टाटा समूह ने अद्वितीय नैतिक मानकों को बनाये रखा है और इसकी तुलना इन भ्रष्ट समूहों से नहीं की जा सकती। या तो ये उदारवादी घोर अज्ञानता में जी रहे होते हैं, या अपने पसन्दीदा ब्राण्डों के कारनामों को भूलने का सचेत प्रयास कर रहे होते हैं। आइए देखते हैं टाटा ग्रुप की कुछ उपलब्धियाँ।

मोहन भागवत की “हिन्दू” एकजुटता किसके लिए?

क्या कभी आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद् ने देश भर के मज़दूर-ग़रीब किसानों के आन्दोलन को समर्थन दिया है? जबकि देश भर के सभी संघर्षों में 90 फ़ीसदी आबादी हिन्दुओं की होती है। याद कीजिए ग़रीब किसानों-मज़दूरों के आन्दोलन में हिन्दुओं के ये फ़र्ज़ी ठेकेदार कभी नज़र आयें हैं? जब लाखों की संख्या में ठेका, अस्थायी, दिहाड़ी मज़दूरों के पैसे ठेकेदार और मालिक हड़प जाते हैं, तब ये हिन्दू धर्म के ठेकेदार मदद के लिए सामने क्यों नहीं आते?

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं। 

शाखा में साख

बहुत दिन हुए, मोहल्ले में विधर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। गहन मुद्रा में बैठे पाण्डेय जी सोच रहे थे। अन्य शाखा प्रान्त के लोग उनका कभी-कभी मज़ाक भी उड़ाने लगे थे। वे कहते “पाण्डेय जी आपके इलाक़े में तो इन मुल्लों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगता है आपको पण्डिताईनी से फ़ुरसत नहीं मिल रही।” यही ख़्याल उन्हें बार-बार कुरेद रहा था। रविवार के दिन काम-धन्धें से फ़ारिग़ होकर कुर्सी पर बैठे वह इसी चिन्तन में मगन थे। पाण्डेय जी अब 50 के होने को आये हैं, बड़े से अपार्टमेण्ट में रह रहे हैं। बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। इनका एक बच्चा अभी विदेश में सेटल हो चुका है, दूसरा बैंगलोर की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। बचपन में ही पाण्डेय जी शाखा से जुड़ गये थे। आज वह शाखा के उत्तर-पश्चिमी ज़िला के संघचालक हैं। जवानी में उन्होंने बाबरी मस्ज़िद के आन्दोलन में भी भाग लिया था।

अपराध को साम्प्रदायिक रंग देने की संघियों की कोशिश को जनता की एकजुटता ने फिर किया नाक़ाम!

पूरे इलाक़े में नशाखोरी बड़े पैमाने पर फैली हुई है। अक्सर नुक्कड़ चौराहों तक पर लम्पट तत्व छेड़खानी की घटनाओं को अंजाम देते हैं। बहुत से लम्पट तो भाजपा-आम आदमी पार्टी तथा अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से ही जुड़े होते हैं। इन पार्टियों के तमाम नेता इन गुण्डों को शह देते हैं, ताकि चुनाव के समय इनका इस्तेमाल कर सकें। इलाक़े में इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार बच्चियों व स्त्रियों से बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं। एक वर्ष पहले साक्षी हत्याकाण्ड एवं कुछ साल पहले पाँच वर्ष की बच्ची मुस्कान के साथ भी बलात्कार और हत्या की घटना सामने आयी थी।

फ़ासिस्ट मोदी-शाह सरकार के तीसरे कार्यकाल में भीड़ द्वारा हत्या (मॉब लिंचिंग) के बढ़ते मामलों का क्या मतलब है

2014 में सत्ता में क़ाबिज़ होने के बाद से मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों के परिणामस्वरूप बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी एवं सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा बढ़ी है। इन समस्याओं से त्रस्त जनता के गुस्से को फ़ासिस्ट गिरोह द्वारा किसी काल्पनिक शत्रु के मत्थे मढ़ देने का काम कुशलतापूर्वक किया जा रहा है। इस काल्पनिक शत्रु के दायरे में धार्मिक अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमान आते हैं और बाद में इस काल्पनिक दुश्मन की छवि में दलित, आदिवासी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता व कम्युनिस्ट सभी को समेट लिया जाता है। 2014 के बाद से ही इस काल्पनिक शत्रु के श्रेणी से आने वाले लोगों को अलग-अलग तरीके से निशाना बनाया जा रहा है और इनके ख़िलाफ़ मॉब लिंचिंग की असंख्य वारदातों को अंजाम दिया गया है। पहले से ही कमज़ोर और अब फ़ासीवाद द्वारा पंगु बना दिये गये भारतीय बुर्जुआ जनवाद और उसकी संवैधानिक संस्थाओं और गोदी मीडिया के भोंपू तन्त्र के भरपूर सहयोग के बावजूद जनता के एक हिस्से में फ़ासिस्ट गिरोह की कलई उजागर हो रही है। धाँधली और तीन-तिकड़म के बाद भी गठबन्धन की बैसाखी से तीसरी बार सत्ता में पहुँचने बाद फ़ासिस्ट गुण्डा गिरोह बुरी तरह बौखलाया हुआ है। मॉब लिंचिंग सरीखे नफ़रती खेल के ज़रिये विधानसभा चुनावों में सफलता हासिल करने के जुगत में है। मज़दूर व आम मेहनतकश लोग ही ज़्यादातर मामलों में इस खेल का शिकार हो रहे हैं, हमें इस खेल की असलियत का भण्डाफोड़ करना होगा। हिटलर और मुसोलिनी के इन वंशजों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना ही होगा! वरना काठ की हाँडी बार-बार चढ़ती रहेगी।

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन : गठबन्धन की तनी रस्सी पर फ़ासीवाद के नटनृत्य और जनता की जारी तबाही और बदहाली के सौ दिन

आर्थिक और राजनीतिक, दोनों ही पैमानों पर, मोदी सरकार के 100 दिन जनता के लिए ‘फ़ासीवादी दण्ड’ के जारी रहने के 100 दिन ही साबित हुए हैं, चाहे उसके प्रतीतिगत रूपों में कुछ बदलाव क्यों न आये हों। यह ‘दण्ड’ जनता को तभी मिलता है, जब उसकी जनगोलबन्दी, उसके जन संगठन और उसका क्रान्तिकारी हिरावल तैयार नहीं हो पाता है और नतीजतन आर्थिक व राजनीतिक संकट क्रान्तिकारी मोड़ लेने के बजाय एक प्रतिक्रियावादी मोड़ लेता है। इससे देश के मेहनतकशों व मज़दूरों के लिए सबक वही है: एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और गठन के कार्य को अधिकतम सम्भव तेज़ी से आगे बढ़ाना और जनता के विभिन्न हिस्सों और वर्गों के जुझारू क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को जनता के ठोस मुद्दों ठोस नारों व ठोस कार्यक्रम के साथ खड़ा करना। ये ही आज के प्रमुख राजनीतिक कार्यभार हैं।