Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

बंगलादेश का जनउभार और मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत

राजनीतिक उथल-पुथल और विकल्पहीनता की इस स्थिति में धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक ताक़तें बंगलादेश में मौजूद अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर अपनी नफ़रती राजनीति को हवा देने का काम कर रही हैं हालाँकि आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं-मज़दूरों ने इस साम्प्रदायिक राजनीति का सक्रिय प्रतिकार किया है। उन्होंने अल्पसंख्यक इलाक़ों में अपनी टोलियाँ बनाकर साम्प्रदायिक ताक़तों को खदेड़ने की मुहिम भी चलायी है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि भारत की मोदी सरकार और उसका भोंपू मीडिया यहाँ पर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के अपने घिनौने एजेंडे के तहत बंगलादेश में हिन्दुओं पर हमलों की घटनाओं को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

जन विरोध के बाद लखनऊ में हज़ारों घरों पर बुलडोज़र चलाने से पीछे हटी योगी सरकार

बुलडोज़र पर सवार उत्तर प्रदेश की योगी सरकार लखनऊ के बीचोबीच अकबरनगर के हज़ारों घरों की बस्ती को नेस्तनाबूद करने के बाद सत्ता के नशे में पगला गयी थी। किसी बड़े विरोध के बिना पूरी बस्ती को बुलडोज़रों से रौंदने में सफल होने से उसके हौसले और भी बुलन्द हो गये थे और कुकरैल नाले (जिसे जबरन नदी घोषित कर दिया गया) के किनारे बसी पंतनगर, अबरार नगर, खुर्रम नगर, रहीम नगर, इंद्रप्रस्थ कॉलोनी आदि बस्तियों से भी लाखों लोगों को बेदखल करने और हज़ारों घरों पर बुलडोज़र चलाने की तैयारी कर ली गयी थी। इन बस्तियों के हज़ारों घरों पर लखनऊ विकास प्राधिकरण के कर्मचारियों ने लाल निशान लगाने शुरू कर दिये थे।

काँवड़ यात्रियों के नाम पर योगी सरकार का एक और फ़ासिस्ट आदेश

इस बेहूदा आदेश के पीछे मुस्लिम दुकानदारों के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे स्वामी यशवीर नाम के एक ढोंगी बाबा का हाथ है। इस घोर साम्प्रदायिक व्यक्ति ने आरोप लगया है कि “ये लोग खाने में थूक रहे हैं और मूत्र भी कर रहे हैं।” ऐसे अपराधी की जगह सीधे जेल में होनी चाहिए थी लेकिन फ़ासिस्ट भाजपा उसे सर-आँखों पर बैठाकर उसके वाहियात आरोपों की बिना पर लोगों का कारोबार बन्द करा रही है और कांवड़ के नाम पर रास्ते पर भर गुण्डागर्दी और आवारागर्दी करने वालों के लिए आसान बना रही है कि वे मुस्लिम नामों की पहचान करके उन दुकानों को निशाना बनायें।

मोदी सरकार की तीसरी पारी की शुरुआत के साथ ही साम्प्रदायिक भीड़ द्वारा हत्या (मॉब–लिंचिंग) की घटनाओं में हुई बढ़ोतरी

मॉब-लिंचिंग की घटनाओं में आमतौर पर गरीब व निम्न मध्यवर्गीय मुसलमान को निशाना बनाया जाता है और एक बड़ी मुसलमान आबादी के बीच डर का माहौल पैदा किया जाता है। मॉब-लिंचिंग की इन घटनाओं पर सोचते समय यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि यह फ़ासीवादी राजनीति का ही एक हिस्सा है। शुरू में फ़ासीवादी राजनीति के तहत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है, उन्हें एक नकली दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, फ़ासीवादी नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रवक्ता और हृदय-सम्राट के रूप में पेश किया जाता है और बाद में हर उस शख़्स को जो फ़ासीवादी सरकार की आलोचना करता है, उसे इस नकली दुश्मन की छवि में समेट लिया जाता है। नतीजतन, केवल किसी अल्पसंख्यक समुदाय को ही काल्पनिक दुश्मन के रूप में नहीं पेश किया जाता बल्कि नागरिक-जनवादी अधिकारों के लिए लड़ने वालों, मज़दूरों व उनकी ट्रेड यूनियनों, और फिर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को बहुसंख्यक समुदाय के दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, वह तमाम लोग जो समाज में वैज्ञानिकता, तार्किकता एवं अन्धविश्वास उन्मूलन का काम करते हैं, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया जाता है।

लोकसभा चुनाव : बहुमत से पीछे रहने के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा के  दाँत, नख और पंजे राज्यसत्ता में और अन्दर तक धँसे

लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। भाजपा भले ही अपने “400 पार” के नारे के बोझ तले धड़ाम से गिर चुकी हो, मगर जिस तरह पूरे चुनाव में गोदी मीडिया, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग समेत पूँजीवादी राज्यसत्ता की समस्त मशीनरी ने भाजपा के पक्ष में सम्भावनाएँ पैदा करने का काम किया है, यह भाजपा-आरएसएस द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दर तक की गयी घुसपैठ और उसके भीतर से किये गये ‘टेक ओवर’ के बारे में काफी कुछ बता देता है। इसके बावजूद एक तबका चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के 240 सीट पर सिमट जाने से ख़ुशी की लहर पर सवार है और वह “लोकतंत्र की जीत” व “संविधान की मज़बूती” की दुहाई देते थक नहीं रहा है। ऐसे में “लोकतंत्र के त्यौहार” यानी 18वें  लोकसभा चुनाव (जिसका कुल ख़र्च लगभग 1.35 ट्रिलियन रुपये बताया जा रहा है) को समग्रता में देखने की ज़रूरत है, ताकि चुनाव नतीजों के शोर में व्यवस्थित तरीक़े से, पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के हो रहे विघटन से दृष्टि ओझल न हो।

मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों के मायने – भावी सम्भावनाएँ, भावी चुनौतियाँ और हमारे कार्यभार

लोकसभा चुनाव के इस नतीजे का मुख्य कारण यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त थी और भाजपा की जनविरोधी और अमीरपरस्त नीतियों की वजह से उसकी जनता में भारी अलोकप्रियता थी। यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्या पड़ता है।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में अभियान!

देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था।

नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) को रद्द करो! इस जन विरोधी फ़ैसले को लागू करने के ख़िलाफ़ एक बार फिर जनता की लामबन्दी ज़रूरी!

चुनावों से ठीक पहले सीएए क़ानून को लागू करना वोटों के ध्रुवीकरण करने का एक तरीक़ा है। देशभर में राम मन्दिर के नाम पर लोगों को धर्म की राजनीति में उलझाये रखने के लिए जब मोदी सरकार ने पूरी राज्य मशीनरी, नौकरशाही, मीडिया को और दूसरी तरफ संघ परिवार ने अपने कार्यकर्ताओं को झोंक दिया लेकिन फ़िर भी उससे उतनी बड़ी हवा बनती नहीं दिखी, तब हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए सीएए क़ानून को फ़िर से सामने लाया गया। पिछली बार सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन के दौरान दिल्ली में दंगे कराने में संघ परिवार कामयाब हुआ था और मोदी सरकार अब इसी प्रकार से साम्प्रदायिक तनाव पैदा करके चुनाव में वोटों की मोटी फ़सल काटने की योजना बनाये हुए है।

केन्द्रीय एजेंसियाँ बनी भाजपा के हाथों की केन्द्रीय कठपुतलियाँ!

केन्द्रीय एजेंसियाँ भाजपा की कठपुतली की तरह काम कर रही हैं। इसका कारण है पूरी सत्ता व मशीनरी में फ़ासीवादियों की पोर-पोर में पहुँच। फ़ासीवाद भारत में जिस कार्यपद्धति को लागू कर रही है उसकी भी जर्मन और इतालवी फ़ासीवादियों की कार्यपद्धति से काफ़ी समानता रही है। जर्मनी और इटली की तरह यहाँ पर भी फ़ासीवादी जिन तौर-तरीकों का उपयोग कर रहे हैं, वे हैं सड़क पर की जाने वाली झुण्ड की हिंसा; पुलिस, नौकरशाही, केन्द्रीय एजेंसी, सेना और मीडिया का फ़ासीवादीकरण; क़ानून और संविधान का खुलेआम मख़ौल उड़ाते हुए अपनी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना और इस पर उदारवादी पूँजीवादी नेताओं की चुप्पी; शुरुआत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और फिर अपने हमले के दायरे में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध में ले आना। यह दुनिया भर के फ़ासीवादियों की साझा रणनीति रही है। फ़ासीवादी हमले का निशाना संस्थाएँ नहीं बल्कि व्यक्ति हुआ करते हैं और भारत में भी विरोधियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आतंकित करने की यही नीति फ़ासीवादियों द्वारा अपनायी जा रही है।

उत्तराखण्ड समान नागरिकता क़ानून: अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला और नागरिकों के निजी जीवन में राज्यसत्ता की दखलन्दाज़ी बढ़ाने वाला पितृसत्तात्मक फ़ासीवादी क़ानून

इस क़ानून के समर्थकों का दावा है कि यह महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया क़दम है, जबकि सच्चाई यह है कि इस क़ानून के तमाम प्रावधान ऐसे हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं देते हैं और पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की यौनिकता, उनकी निजता को नियन्त्रित करने का खुला मौक़ा देते हैं। इस क़ानून के सबसे ख़तरनाक प्रावधान ‘लिव-इन’ से जुड़े हैं जो राज्यसत्ता व समाज के रूढ़िवादी तत्वों को लोगों के निजी जीवन में दखलन्दाज़ी करने का पूरा अधिकार देते हैं। इन प्रावधानों की वजह से अन्तरधार्मिक व अन्तरजातीय सम्बन्धों पर पहरेदारी और सख़्त हो जायेगी। इन तमाम प्रतिगामी प्रावधानों को देखते हुए इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि यह अल्पसंख्यक-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी क़ानून आज के दौर में फ़ासीवादी शासन को क़ायम रखने का औज़ार है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश व गुजरात की सरकारों ने भी इस प्रकार के क़ानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।