Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

बवाना औद्योगिक क्षेत्र में हड़ताली मज़दूरों का दमन

श्रम क़ानूनों को लागू करने, फैक्ट्रियों में सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ाम करने जैसी बुनियादी माँगों को लेकर मज़दूर हड़ताल पर गये थे। 3 मार्च के दिन सुबह से ही हड़ताली टोलियाँ पूरे बवाना इलाक़े में मज़दूरों को एकजुट कर काम बन्द करके हड़ताल में शामिल होने की अपील कर रही थीं। हड़ताल का असर ख़ासतौर पर सेक्टर-5 में था, जहाँ 90 प्रतिशत कारख़ाने बन्द थे और हज़ारों मज़दूर हड़ताल रैली में शामिल थे। अन्य सेक्टर में हड़ताल आंशिक तौर पर सफल रही। इसी सफलता ने मालिकों के अन्दर ख़ौफ़ पैदा किया और तुरन्त पुलिस हड़ताल को रोकने के लिए हरकत में आ गयी। सबसे पहले सेक्टर-3 में पुलिस ने मज़दूरों को रैली निकालने से रोका और जब मज़दूर जन्तर-मन्तर जाने के लिए निकल रहे थे, गाड़ी को रोककर उन्हें इलाक़े से बाहर जाने के लिए मना कर दिया गया। इसके बाद मज़दूरों ने सेक्टर-3 में ही हड़ताल सभा शुरू कर दी।

फ़ासिस्ट दमन के गहराते अँधेरे में चंद बातें जो शायद आपको भी ज़रूरी लगें

आज के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी-शाह की फ़ासिस्ट सत्ता किसी भी जुझारू जन-उभार की संभावना से थरथर काँप रही है। इसीलिए, देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी जनांदोलन को कुचलने के लिए वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों की पूरी ताक़त झोंक दे रही है, जेनुइन जनांदोलनों के नेताओं पर आतंकवाद और देशद्रोह आदि की धाराएँ लगाकर फर्जी मुकदमे ठोंक रही है और उनके ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। लेकिन जैसाकि हमेशा होता है, किसी भी सत्ता का जनता से भय जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह उतना ही नग्न-निरंकुश दमनकारी होती जाती है। जनता को डराने की एक हद जब पार हो जाती है तो फिर जनता धीरे-धीरे डरना बंद कर देती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि जीना मुहाल होने पर और अपने सारे अधिकारों के छिनते जाने पर जनता सड़कों पर उतरती ही है। शुरूआती दौरों में सत्ता के दमन और आतंक के प्रभाव से वह दब और बिखर जाती है। लेकिन शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह फिर -फिर सड़कों पर उतरती है। फिर सत्ता तंत्र का दमन भी बढ़ता जाता है और फिर ऐसा दौर आता है कि जनता डरना बंद कर देती है। सभी आततायी शासक उसी दिन के बारे में सोचकर भयाक्रांत हो जाते हैं।

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राम रहीम की पैरोल पर रिहाई के मायने

एक तरफ़ देश की जेल में राजनीतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, एक पैरोल की बात तो दूर उन्हें रहने-खाने बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रखा जाता है, दूसरी तरफ़ बलात्कारी बाबाओं को पैरोल पर पैरोल मिली जाती है। जनता के हक़ की बात करने वाले तमाम बुद्धजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिना चार्ज़शीट के भी सालों साल जेल में रखा जाता है और बीमार पड़ने पर भी बेल नहीं दी जाती। स्टेन स्वामी को आप भूले नहीं होंगे, जिन्हें झूठा आरोप लगा कर यू.ए.पी.ए लगा दिया गया था। जेल की बद्तर परिस्थितियों में रहने के कारण ही उनकी मौत हुई। वहीं राम रहीम जैसा बलात्कार व हत्या का आरोपी खुलेआम समाज में घूमकर भाजपा का प्रचार कर रहा है। सहज़ ही समझा जा सकता है कि फ़ासीवादी हिन्दुत्ववादी भाजपा का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा महज़ एक ढकोसला है, बल्कि इनका असली नारा है ‘बलात्कारियों के सम्मान में भाजपा मैदान में’।

राम मन्दिर से अपेक्षित साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने में असफल मोदी सरकार अब काशी-मथुरा के नाम पर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की फ़िराक़ में

मोदी सरकार के ख़िलाफ़, उसकी जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से बने विपक्ष से कोई उम्मीद पालकर रखना आत्मघाती होगा। अगर इन विपक्षी चुनावी पार्टियों का गठबन्धन अनपेक्षित रूप से चुनाव जीत भी जाये, तो वह भाजपा की किसी और भी ज़्यादा तानाशाह और बर्बर किस्म की सरकार के दोबारा चुने जाने की ज़मीन ही तैयार करेगा। अव्वलन, तो इस समय पूँजीवादी विपक्ष के लिए एकजुट रहना और एकजुट तरीके से चुनाव लड़कर जीतना ही बहुत मुश्किल है। नामुमकिन नहीं है, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर है। लेकिन अगर ऐसा हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद के एक नये, ज़्यादा बर्बर और उन्मादी उभार की ही ज़मीन तैयार करेगा। इसकी बुनियादी वजह है मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट, जिससे तत्काल उबर पाने की गुंजाइश बेहद कम है। ऐसे में, कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि आपवादिक स्थिति में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा हार भी जाये, तो वह फ़ासीवादी उभार की एक नये स्तर पर ज़मीन ही तैयार करेगा।

बिगुल पॉडकास्ट – 2 – अब ज्ञानवापी पर ध्रुवीकरण तेज़ करने की तैयारी – जन असन्तोष कम करने में राम मन्दिर भी नाकाम 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे पर जारी की गयी सर्वेक्षण रिपोर्ट पर भारत की क्रांतिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) का बयान

नयी आपराधिक प्रक्रिया संहिताएँ, जनता के दमन के नये औज़ार

फ़ासिस्टों के “न्याय” में अंग्रेज़ों के काले क़ानूनों से ज़्यादा अँधियारा है। ग़ौरतलब है कि मानसून सत्र में पेश किया गये पहले मसौदे में आतंकवाद के अपराध की परिभाषा, इन नयी “न्याय” संहिताओं के लाने के असल औचित्य को नंगे रूप से रेखांकित करती थी, हालाँकि बाद में उसे संशोधित कर एक पुरानी परिभाषा को ही अंगीकार कर पेश किया गया, जोकि इन नये संहिताओं के मर्म को बखूबी पेश करता है। आने वाले समय में व्यवहार में इन संहिताओं को किस तरह से लागू किया जायेगा, इसका अन्दाज़ा लगाना कोई अन्तरिक्ष विज्ञान का मसला नहीं है।

कश्मीर के हालात और मोदी सरकार के दावों की सच्चाई

कश्मीर में हिरासत में हत्या हो जाना, सुरक्षा बलों द्वारा एनकाउंटर किया जाना, लोगों का अगवा कर लिया जाना, पेलेट बंदूकों से बच्चों को अंधा बना दिया जाना, बिना सुनवाई के जेलों में सड़ने छोड़ दिया जाना, सुरक्षा बलों द्वारा औरतों के साथ बलात्कार किया जाना – इन तमाम चीज़ों का सिलसिला लंबे समय से जारी है। कश्मीर की कितनी ही पीढ़ियों ने भारतीय राज्य का यह अमानवीय खूनी चेहरा देखा है। कश्मीरी अवाम के स्मृति पटल पर यह दाग़ तब से अंकित है जब से भारतीय राज्यसत्ता ने अफस्पा जैसे काले कानून को लागू किया और सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीरी अवाम पर अत्याचार के सिलसिले शुरू हुए। लोगों के ज़ेहन में भारतीय राज्य के प्रति नफ़रत के बीज बोने के लिए ज़िम्मेदार खुद भारतीय राज्य और यहाँ की सेना है। वरना वही कश्मीरी जनता जिसने 1948  में भारतीय सेना का अपनी धरती पर फूलों से स्वागत किया था, वह क्यों आज उससे उतनी ही गहरी नफ़रत करती है?!

‘एस्मा’ को तत्काल वापस लो! आँगनवाड़ीकर्मियों की माँगों को पूरा करो!!

क़ानूनन तो यह केवल सरकारी कर्मचारियों पर ही लगाया जा सकता है और आँगनवाड़ीकर्मियों को तो सरकार कर्मचारी मानती नहीं है फिर उनपर इसका इस्तेमाल क्या दिखलाता है!? और अगर आँगनवाड़ीकर्मियों द्वारा दी जा रहीं सेवाएँ आवश्यक सेवाएँ हैं, तो फिर उन्हें कर्मचारी का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा??

कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है।

कांस्टेबल चेतन सिंह अकेला नहीं! देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ज़ॉम्बीज़ की फ़सल तैयार कर रहा है संघ परिवार

ऐसी रुग्ण साम्प्रदायिक ज़हर से ग्रसित आबादी कैसे पैदा हो रही है? यह समझने की ज़रूरत है कि यह एक दिन में तैयार नहीं होती। बल्कि  इसके लिए पूरा माहौल सालों से तैयार किया जा रहा है। यह अपने आप में इकलौती घटना नहीं है। ऐसी ही साम्प्रदायिक नफ़रत से लैस घटना अभी हाल ही में 24 अगस्त को उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में घटी है। यह घटना गुरुमंसूरपुर पुलिस थाने के अन्तर्गत आने वाले खुब्बापुर गाँव में हुई जिसमें एक शिक्षिका तृप्ता त्यागी, एक बच्चे को मुस्लिम होने की वजह से सज़ा दे रही थी। इस घटना में वह उस बच्चे को अन्य बच्चों से पिटवाते हुए कह रही है, “मैंने तो घोषणा कर दिया, जितने भी मुसलमान बच्चे हैं, इनके वहाँ चले जाओ।” फिर पीटने वाले बच्चों को डाँटते हुए कह रही है “क्या तुम मार रहे हो? ज़ोर से मारो ना।”