मोदी-शाह सरकार की नयी अपराध संहिताओं का फ़ासीवादी जनविरोधी चरित्र
शाम मूर्ति
एक जुलाई 2024 से भारत में “नयी भारतीय क़ानूनी प्रणाली” के तहत नये आपराधिक क़ानूनों को लागू कर दिया गया है। इसे 1 अगस्त 2023 को भारत के गृहमन्त्री अमित शाह द्वारा लोकसभा में पेश किया गया था। नवम्बर 2023 में संसदीय स्थायी समिति द्वारा की गई कुछ सिफ़ारिशों को शामिल करने के बाद इन्हें संसद में फिर से पेश किया गया था। 20 और 21 दिसम्बर 2023 को संशोधित विधेयकों को क्रमशः संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया और 25 दिसम्बर, 2023 को भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद इन्हें राजपत्र के रूप में प्रकाशित किया गया था।
आइए, अब विस्तार से समझते हैं कि यह क़ानून क्यों देश की जनता के लिए ख़तरनाक हैं। भारतीय न्याय संहिता बीएनएस (2023) को भारतीय दण्ड संहिता 1860 के स्थान पर लाया गया है। लेकिन बीएनएस (2023) में आईपीसी की अधिकांश संरचना को बरकरार रखा गया है। भारतीय न्याय संहिता में 20 अध्याय और 358 खण्ड (सेक्शन) हैं। बीएनएस 2023 में आईपीसी के मुक़ाबले धाराओं की संख्या को 511 से घटाकर 358 कर दिया गया है। यह एक लम्बी-चौड़ी फ़ासीवादी आपराधिक संहिता है। इसमें घृणा अपराध तथा भीड़ द्वारा हत्या सहित 21 नये अपराध जोड़े गये हैं तथा 33 अपराधों के लिए कारावास की सज़ा बढ़ायी गयी है। इसमें हिरासत (रिमाण्ड), हिट एण्ड रन, आतंकवाद, संगठित अपराध जैसे अपराध भी शामिल किये गये हैं और राजद्रोह को राष्ट्रीय अखण्डता को ख़तरे में डालने वाले कृत्यों के रूप में फिर से पहले से भी दमनकारी रूप में परिभाषित किया गया है।
दूसरा, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (बीएनएसएस) को दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की जगह पर लाया गया है। यह गिरफ़्तारी, ज़मानत और हिरासत के अलावा अन्य प्रक्रियाओं और शर्तों को निर्धारित करेगा। बीएनएस 2023 तमाम परिवर्तनों के बावजूद सीआरपीसी के अधिकांश प्रावधानों को बरकरार रखता है। नये क़ानून में सीआरपीसी की 484 धाराओं के बजाय कुल 533 धाराएँ हैं। यह जमानत के प्रावधानों में संशोधन करता है, सम्पत्ति की कुर्की का दायरा बढ़ाता है और पुलिस और मजिस्ट्रेट की शक्तियों में बदलाव करता है। तीसरा, भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसबी) 2023 को इण्डियन एविडेंस एक्ट 1872 की जगह पर लाया गया है। यह भी पहले से ज़्यादा दमनकारी है। इसमें कुल 170 धाराएँ हैं। नये क़ानून में 6 धाराएँ रद्द कर दी गयी हैं, वहीं नये एक्ट में दो नयी धाराएँ और 6 उप-धाराएँ जोड़ी गयी हैं। इसमें इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को भी स्वीकार्यता दी गयी है। देश भर के 650 से ज़्यादा ज़िला न्यायालयों और 16,000 पुलिस थानों में “नयी” व्यवस्था को लागू भी कर दिया गया है। तीसरे कार्यकाल में मोदी सरकार द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि “नयी” आपराधिक क़ानून प्रणाली के ज़रिये सम्बन्धित प्रावधानों को समेकित और संशोधित करके “कायापलट” कर दिया जायेगा। आइये मोदी-शाह सरकार के कुछ दावों की थोड़ा पड़ताल कर ली जाये।
पहला दावा : भारत के गृहमन्त्री अमित शाह कहते हैं कि पिछले क़ानून “उपनिवेशवाद की विरासत” थे और “ग़ुलामी की मानसिकता” के प्रतीक थे जिन्हें आज की स्थितियों के अनुकूल बनाने की ज़रूरत है। इतिहास के वाकिफ़ विशेषकर संघियों के इतिहास से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह बात हज़म नहीं होगी क्योंकि “औपिवेशिक विरासत” की बात ऐसे लोगों के मुँह से सुनना थोड़ा अजीब लगता है, जिनका पूरा इतिहास ब्रिटिश औपिवेशिक शासकों से प्रेम-प्रसंग चलाने का, उनके सामने माफ़ीनामे लिखने का, उनके लिए मुख़बिरी तक करने का रहा हो। मोदी सरकार और उसकी भोंपू मीडिया इस मामले को ऐसे पेश कर रहे हैं कि यह पूरी कवायद अंग्रेजों के समय के दण्ड के विधान के बदले “रामराज्य का न्याय” को लागू करने के लिए है, जिसमें सारी दिक़्क़तों को दूर कर दिया जायेगा! लेकिन क़ानून की दुनिया में इस “रामराज्य” का अर्थ है हर प्रकार के जन प्रतिरोध को कुचलने के औज़ारों को तैयार करना।
नयी अपराध व दण्ड संहिता के ज़रिये दरअसल फ़ासीवादी मोदी सरकार का असली मक़सद जनवादी दायरों को संकुचित करना और असहमति की जनपक्षधर आवाज़ों को कुचलना है। कश्मीर से लेकर केरल तक और गुजरात से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक, आम जनता के हालात को देखा जा सकता है कि कैसे उनके जीवन को नर्क बना दिया गया है। यहाँ तक की मोदी सरकार बुर्जुआ विपक्षी नेताओं, दलों का भी हर तरीक़े से गला घोंटने की कोशिश करती रही है। मोदी सरकार की असली मंशा अंग्रेज़ों से एक क़दम और आगे बढ़कर दमनकारी दण्डात्मक क़ानून लागू करना है। जनता के बीच हर तरीक़े से नंगी हो चुकी फ़ासीवादी मोदी सरकार को आम चुनाव में समूची राज्यसत्ता में आन्तरिक पकड़ और गोदी मीडिया के प्रचार तथा पूँजीपति वर्ग के अकूत आर्थिक समर्थन के बावजूद मुँह की खानी पड़ी और किसी तरह से नीतीश व चन्द्रबाबू नायडू जैसे घृणास्पद अवसरवादियों की उधार की बैसाखी पर सरकार बनानी पड़ी। लेकिन पूँजीपतियों ने अपना समर्थन मन्दी के दौर में मोदी सरकार को इसीलिए दिया था कि मेहनतकश जनता की औसत मज़दूरी व आय को घटाने के लिए उनके आर्थिक व राजनीतिक हितों पर हमले किये जाएँ और इसके सम्भावित प्रतिरोध को कुचलने के लिए एक दमनकारी क़ानूनी व प्रशासनिक ढाँचा खड़ा किया जाय। नयी अपराध व दण्ड संहिताओं के साथ मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में इसी काम को अंजाम तक पहुँचा रही है। इस पर विपक्ष के बड़े हिस्से की भी मौन सहमति है क्योंकि विपक्ष की सभी पार्टियाँ भी मालिकों, व्यापारियों, कुलकों, सूदखोरों की ही पार्टियाँ हैं।
दूसरा दावा : गृहमन्त्री अमित शाह ने कहा कि सभी के साथ और विस्तारपूर्वक चर्चा के बाद इन्हें लागू किया गया है। क़ानून बनाने से पहले इसके हर पहलू पर चार साल तक विस्तार से अलग-अलग पक्षों के साथ चर्चा की गयी है। लेकिन अगर चर्चा की होती तो जनवरी 2024 में इसी क़ानून में ‘हिट एण्ड रन’ के अत्यधिक कठोर प्रावधानों के कारण इनके ख़िलाफ़ ट्रक व अन्य वाहन चालकों की हड़ताल नहीं हुई होती। ज़बरदस्त व्यापक हड़ताल के कारण सरकार को अपने कद़म तुरन्त पीछे हटाने पड़े। मोदी के पिछले कार्यकाल के दौरान केन्द्र सरकार की ओर से केन्द्रीय गृहमन्त्री अमित शाह ने तीन बिलों को पिछले साल 11 अगस्त 2023 को पेश किया था, जिसके बाद उन्हें समीक्षा के लिए भाजपा सांसद बृजलाल की अध्यक्षता वाली 31 सदस्यीय संसदीय स्थायी समिति (स्टैण्डिंग कमेटी) के पास भेज भी दिया गया था। फिर “मानसून सत्र के अन्तिम दिन अपनी पहली प्रस्तुति के क़रीब चार महीनों बाद कुछ “औपचारिकताओं”, “विशेषज्ञों” के “सलाह-विमर्श” के बाद, मूल मसौदे में ही मामूली फेरबदल कर के, नये संशोधित विधेयकों को 12 दिसम्बर 2023 को गृह मन्त्री अमित शाह ने लोकसभा में दोबारा पेश किया। तब विपक्ष के 144 सदस्य सांसदों को निलम्बित कर दिया गया था! यानी बिना बहस के आनन-फ़ानन में दोनों सदनों में इन विधेयकों को पारित कर दिया गया। वैसे विपक्ष इस पर बहस भी बस दिखावे व जुबानी जमाख़र्च के लिए ही करता। इसके खिलाफ़ वह कोई आन्दोलन या अभियान नहीं चलाने वाला। वजह यह कि इन संहिताओं की ज़रूरत आम तौर पर भारत के सरमायेदार हुक्मरानों को है। दरअसल, इन संहिताओं की असल रूपरेखा कोविड महामारी के दिनों में ही तय की गयी थी, जिन्हें बस अमली जामा पहनाना था। याददिहानी के लिए ऐसे ही मज़दूर विरोधी नये लेबर कोड को भी उसी दौरान पारित करवा लिया था। क्या आपको “न्यायपूर्ण रूप से सबकी सहमति” की क्रोनोलोजी समझ आयी?
तीसरा दावा : क़ानूनों का आधुनिकीकरण या “भारतीयकरण” किया जायेगा। वास्तव में भारत में अपने वर्तमान स्वरूप में मौजूद आपराधिक दण्ड संहिताएँ किसी भी दृष्टि से जनपक्षधर या जनवादी नहीं थीं और उत्तर–औपनिवेशिक भारतीय राज्यसत्ता द्वारा, मूलतः और मुख्यतः चन्द बदलावों के साथ औपनिवेशिक सत्ता से उधार ले ली गयी थी। इनका ग़ैर–जनवादी दमनकारी चरित्र आज़ादी के तत्काल बाद ही स्पष्ट होता चला गया था। लेकिन साथ ही नयी दण्ड संहिताएँ भारतीयकरण के नाम पर उन्हीं औपनिवेशिक संहिताओं का फ़ासीवादीकरण कर रही हैं, एक पुलिस-राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। भारतीयकरण के नाम पर वास्तव में फ़ासीवादी क़ानूनी संरचना को खड़ा किया गया है।
चौथा दावा : गृहमन्त्री अमित शाह तीनों नये क़ानूनों को दण्ड की जगह न्याय देने वाला बता रहे हैं। लेकिन फ़ासिस्टों का “न्याय” अंग्रेज़ों के काले क़ानूनों से ज़्यादा बर्बर चरित्र रखता है। इसे इनके जर्मनी और इटली आदि के पूर्वजों के इतिहास से समझा जा सकता है। एक पुरानी परिभाषा को संशोधित करके नये अन्दाज़ में पेश किया जा रहा है। नये आपराधिक क़ानून किस हद तक और किस तरह जनता के हितों व अधिकारों की रक्षा करेंगे, इसे समझने के लिए किसी राकेट साइंस की ज़रूरत नहीं है। मोदी सरकार बेरोज़गारी-महँगाई-भ्रष्टाचार से लेकर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा बढ़ाने के मामलों के बढ़ने की वजह से अपनी घटती हुई लोकप्रियता से ख़ौफज़दा है। ठीक इसी वजह से 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार इस न्याय संहिता को लागू करने से डर रही थी। चूँकि अब चुनावों में कम सीटों के बावजूद नीतीश-नायडू की बैसाखियों के सहारे मोदी सरकार बन गयी है, तो देश की क़ानून व्यवस्था को फ़ासीवादी हुक्मरान अब और चाक-चौबन्द कर रहे हैं ताकि किसी भी क़िस्म के जनाक्रोश को पनपने से पहले ही कुचल देने के इन्तज़ामात हो जाएँ।
पाँचवा दावा : राजद्रोह क़ानून को जड़ से समाप्त कर दिया गया है और नये क़ानून में आज के समय के हिसाब से धाराएँ जोड़ी गयी हैं। राजद्रोह (धारा 124 ए आईपीसी) को अपराध के रूप में क़ानूनी तौर पर निरस्त करने की सच्चाई क्या है? नयी भारतीय न्याय संहिता के तहत सबसे अहम बदलावों के रूप में प्रचारित किया जा रहा है कि राजद्रोह (धारा 124 ए आईपीसी) को अपराध के रूप में क़ानूनी तौर पर निरस्त किया गया है। असल में राजद्रोह क़ानून से राजद्रोह शब्द को हटा दिया गया है, किन्तु सरकार के ख़िलाफ़ उठाने वाली किसी भी आवाज़ को “देश की सम्प्रभुता पर हमला” के नाम पर दण्डित करने की व्यवस्था भी लागू कर दी गयी है। वह मौजूदा क़ानून राजद्रोह के क़ानून से कहीं बदतर है और असल में यह जनवादी अधिकारों पर बड़ा हमला है। गृह मन्त्रालय ने क़ानून से “राजद्रोह” की आईपीसी पूर्व धारा 124 को हटा कर धारा 150 को ला दिया है। यह अपने पूर्वर्ती विधान की तुलना में कहीं अधिक अस्पष्ट और व्यापक शब्दावली वाला है। नये क़ानून के मुताबिक़ “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालना” अपराध होगा। आईपीसी को प्रतिस्थापित करने वाले भारतीय न्याय संहिता, 2023, के भाग VII का शीर्षक ही है “राज्य के विरुद्ध अपराध” जिसकी धारा 150 “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालने वाले कृत्यों” को अपराध मानती है। धारा 150 में यह भी कहा गया है- “जो कोई भी, उद्देश्यपूर्वक या जानबूझकर, बोले गये या लिखे गये शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा या वित्तीय साधनों के उपयोग से, या अन्यथा, अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करता है या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करता है या भारत की सम्प्रभुता या एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालता है; ऐसे किसी भी कार्य में शामिल होता है या करता है, उसे सात साल से लेकर आजीवन कारावास से दण्डित किया जायेगा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है। धारा 124 ए निम्न प्रावधान करती है : “जो कोई भी बोले गये या लिखे गये शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना लाता है या लाने का प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या असन्तोष पैदा करने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास से दण्डित किया जायेगा, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है।”
आप देख सकते हैं कि नये क़ानून के अन्तर्गत “अलगाव उकसाना”, “सशस्त्र विद्रोह”, “विध्वंसक गतिविधियाँ” और “अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करने” जैसे कृत्यों का ज़िक्र किया गया है और “भारत की सम्प्रभुता या एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालने” वाले कृत्यों की बात की गयी है, लेकिन यह वाक्यांश ही पारिभाषिक रूप से इतना व्यापक और अस्पष्ट है कि इसकी कई व्याख्याएँ की जा सकती है। राज्यसत्ता इसका मनमाना इस्तेमाल करेगी। सरकार की आलोचना करने वाले एक आम राजनीतिक भाषण, या किसी भी प्रकार की असहमति या सोशल मीडिया के पोस्ट को भी “एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालने वाला कृत्य” करार दिया जा सकता है। इस रूप में राज्य या सरकार अपने ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी प्रकार के विरोध को इस श्रेणी में रखने का प्राधिकार रखती है। देश के प्रति वफ़ादारी, अब देश की जनता के प्रति वफ़ादारी नहीं है, बल्कि सरकार के प्रति वफ़ादारी बना दी गयी है। इसका किस हद तक फ़ासीवादी सत्ता द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ दुरुपयोग किया जा सकता है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं हैं। जहाँ तक सज़ा का सवाल है तो नये क़ानून में इसे और अधिक कठोर बना दिया गया है।
मानसून सत्र में पेश किया गये पहले मसौदे में आतंकवाद के अपराध की परिभाषा, इन नयी “न्याय” संहिताओं के असल औचित्य को नंगे रूप से रेखांकित करती थी। हालाँकि बाद में उसे संशोधित करके पेश किया गया है। नये बदलावों ने राज्य द्वारा सज़ा दिये जाने के दायरे को विस्तारित कर दिया है। मसलन, धारा 111 के अन्तर्गत यह लिखा गया है कि किसी व्यक्ति ने आंतकवादी कृत्य किया है, यदि वह भारत में या विदेश में भारत की एकता, अखण्डता और सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करने, जनसाधारण या उसके किसी भी हिस्से को डराने, धमकाने या सरकारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने की मंशा से कोई कार्य करता है, या किसी सम्पत्ति की क्षति या विनाश के कारण क्षति या हानि, समुदायिक जीवन के लिए आवश्यक किन्हीं आपूर्तियों या सेवाओं का विनाश, सरकारी या लोक सुविधा, लोकस्थान या निजी सम्पत्ति का विनाश करता है। यानी, मंशा और सम्भावना के आधार पर किसी को भी आतंकवादी घोषित किया जा सकता है! आतंकवाद विरोधी क़ानून का असली निशाना जनता ही है। निश्चित ही नये प्रावधान जन प्रतिरोध और राजनीतिक विरोध की ओर ही इशारा कर रहे हैं। यह विरोध प्रदर्शनों को अपराध बना देता है और इन्हें भी “आंतकवाद” की क्षेणी में रखता है। आवश्यक सेवाओं में कर्मचारी को हड़ताल करने पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। धारा 111 के तहत आवश्यक सेवाओं में लगे कर्मचारी जैसे डॉक्टर, नर्स, रेलवे कर्मचारी, आँगनवाड़ीकर्मी, आशाकर्मी आदि अब हड़ताल या प्रदर्शन तक नहीं कर पायेंगे क्योंकि इन्हें आंतकवादी गतिविधि घोषित किया जा सकता है! दरअसल एक बौखलायी हुई फ़ासिस्ट सत्ता हर क़िस्म के विरोध को भ्रूण में ही ख़त्म कर देने के क़ानूनी तैयारी में लगी हुई है।
इसके अलावा साक्ष्य अधिनियम में बदलाव के मायने को समझना भी ज़रूरी है। नयी संहिताओं के तहत अब किसी अभियुक्त पर उसकी अनुपस्थिति में भी मुक़दमा चलाया जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम में बदलाव के साथ, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड को अदालत के समक्ष साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ईमेल, इलेक्ट्रॉनिक सन्देश, सर्वर लॉग, स्थान विवरण आदि सभी को इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के हिस्से के रूप में शामिल किया जायेगा, जो अदालत में स्वीकार्य होगा। । यानी नया क़ानून स्पष्ट रूप से जाँच के दौरान फ़ोन, लैपटॉप आदि जैसे डिजिटल उपकरणों को ज़ब्त करने की अनुमति देता है। यह अधिनियम लोगों की निजता पर हमला है। यह इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस (निगरानी) को वैधता प्रदान करता है। इसकी आड़ में आम लोगों के ऊपर निगरानी रखने का काम किया जायेगा। साथ ही, दुनिया भर की सत्ताओं ने ऐसे प्रमाणों को फर्जी तौर पर बनाकर राजनीतिक विरोध करने वाले लोगों के फोन, लैपटॉप आदि में आरोपित करने का काम हमेशा से ही किया है। ‘मॉब लिंचिंग’ और ‘संगठित अपराध’ (हालाँकि इससे जुड़े क़ानून भी पहले से मौजूद हैं, मसलन मकोका) की नयी धाराएँ जोड़ी तो गयी हैं, लेकिन ‘नफ़रती भाषण’ (हेट स्पीच) को किसी भी प्रावधान के तहत दण्डनीय नहीं बनाया गया है। ज़ाहिरा तौर पर, यदि ऐसा किया जाता तो कम से कम औपचारिक तौर पर तो मोदी और शाह समेत संघ और भाजपा से जुड़ा सम्भवतः हर व्यक्ति ही हवालात में होता!
कुल मिलाकर कहें तो नये अपराधिक क़ानून दमन के हथियारों को अपडेट करने और अधिक दमनात्मक बनाने का ही काम करते हैं। अपने भक्तों और जनता के बेवकूफ़ बनाने के लिए फ़ासीवादी सत्ता को अपने को भारतीय, आधुनिक, जनपक्षधर, न्यायप्रिय दिखाने का प्रपंच करना पड़ता है। लेकिन असलियत छिपाना मुश्किल है। पुराना भारतीय दण्ड क़ानून हो या भारतीय न्याय क़ानून, ये सभी क़ानून जनता के दमन के ही निकाय हैं। लेकिन मोदी सरकार के नये क़ानूनों को पहले से अधिक दमनकारी और फ़ासीवादी बनाया गया है। तीन नये आपराधिक क़ानूनों के ज़रिये आने वाले बर्बर समय की आहट महसूस की जा सकती है, जिसकी ज़द में तमाम इन्साफ़पसन्द नागरिक, जनपक्षधर बुद्धिजीवी, पत्रकार, क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर आम मेहनतकश आबादी आयेगी। इन संहिताओं के कुछ नुक़्तों को ही ध्यान से देखने से इसकी अन्तर्वस्तु का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। इन्हें संगठित प्रतिरोध के दम पर टक्कर दी जा सकती है और पीछे भी धकेला जा सकता है। इसका उदाहरण जनवरी 2024 में इन्हीं क़ानूनों में ‘हिट एण्ड रन’ के अत्यधिक कठोर प्रावधानों के कारण इनके ख़िलाफ़ ट्रक व अन्य वाहन चालकों के ज़बरदस्त व्यापक हड़ताल को देखा जा सकता है। तब मोदी सरकार को अपने क़दम तुरन्त पीछे हटाने पड़े थे। अगर जनता के बीच सही तरीक़े से इसके बारे में प्रचार किया जाये तो अपने जीवन-सुरक्षा से लेकर अपने नागरिक और जनवादी अधिकारों की रक्षा और विस्तार के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सकता है।
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