हिमाचल प्रदेश में संघी लंगूरों का उत्पात और कांग्रेस सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता

आशीष

हिमाचल प्रदेश में अभी विगत दिनों देवभूमि संघर्ष समिति बैनर तले फ़ासीवादी आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद से सम्बन्ध रखने वाले गिरोह ने साम्प्रदायिक नफ़रत के खेल को खुले तौर पर अंजाम दिया। राज्य की कांग्रेस सरकार इस साम्प्रदायिक घटना से निपटने में न सिर्फ़ नाकाम रही, बल्कि विधानसभा के भीतर कांग्रेस पार्टी का एक विधायक स्वयं दंगाइयों की भाषा बोल रहा था। राज्य की कांग्रेस सरकार के इस बर्ताव पर अब वे लोग क्या कहेंगे, जो विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार से आह्लादित होकर कांग्रेस की जीत को फ़ासीवाद की पराजय के तौर बताते नहीं थकते हैं और राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत के बाद छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगते हैं। फ़ासीवादी हमलों के समक्ष हिमाचल में कांग्रेस सरकार की दयनीय हालत पर हम आगे चर्चा करेंगे। उसके पहले संघियों द्वारा मचाये गये उत्पात पर बात करते हैं।

हिमाचल में मुसलमानों एवं अप्रवासियों के विरुद्ध लगातार नफ़रत एवं साम्प्रदायिक तनाव भड़काने की जुगत मे संघी लगे रहते हैं। शिमला के संजौली उपनगर की मस्जिद को लेकर विवाद इसका सबसे हालिया उदाहरण है। मस्जिद में कथित अवैध निर्माण के मामले पर जमकर बवाल हुआ। एक रिपोर्ट के अनुसार बरसों से चले आ रहे इस विवाद को हाल में हवा तब मिली जब 30 अगस्त को शिमला के मल्याणा में एक 37 वर्षीय शख़्स विक्रम सिंह के साथ एक मुस्लिम युवक और उसके दोस्तों ने मारपीट की। इस झड़प में विक्रम सिंह बुरी तरह ज़ख्मी हो गया था। पुलिस ने इस केस में छह आरोपियों को गिरफ़्तार किया था। आरोप है कि आरोपी हमले के बाद मस्जिद में आकर छुप गये थे। उसके बाद फ़ासीवादी संगठनों ने संजौली में प्रदर्शन किया और मस्जिद को अवैध बताते हुए गिराने की माँग की। मारपीट की घटना के अगले ही दिन उन्मादी भीड़ इस मस्जिद के सामने पहुँची और हनुमान चालीसा का पाठ किया। इसके बाद पूरे प्रदेश में भाजपा-आरएसएस के लोग सक्रिय होकर साम्प्रदायिक तनाव को तूल देने में जुट गये। राज्य में कई रैलियाँ आयोजित की गयीं, जिनमें कुल्लू, पांवटा साहिब, सुन्नी, घुमारवीं और पालमपुर जैसी जगहों को निशाना बनाया गया। पालमपुर में एक रैली के दौरान, मुसलमान दुकानदारों को परेशान किया गया। इन गुण्डों ने सोशल मीडिया पर वीडियो और फ़ोटो साझा किये जिसमें बन्द पड़ी मुस्लिम दुकानों के शटर पर लाल रंग से क्रॉस का चिन्ह बनाया जा रहा था।

11 सितम्बर के दिन संजौली में संघियों द्वारा बड़े प्रदर्शन को अंजाम दिया गया। हज़ारों की तादाद में जुटी उग्र उन्मादी भीड़ ने सड़कों पर बैरिकेडिंग तोड़ी और क़रीब पाँच घण्टों तक नारेबाज़ी की। यह हिंसक भीड़ मस्जिद के 100 मीटर के दायरे तक पहुँच गयी। इस दौरान शहर में तनाव का माहौल बना। उन्मादियों और पुलिस में झड़प भी हुई जिसमें कई घायल हुए। मस्जिद के जिस ढाँचे को तोड़ने की बात हो रही है, उसके विषय में मज़ेदार बात यह है कि भाजपा की भूतपूर्व सरकार ने मस्जिद के लिए सरकार की ओर से लाखों रुपये का वित्तीय सहयोग किया था! यह मामला सालों से अदालत में चल रहा था। एक स्थानीय अदालत ने पिछले दिनों अवैध निर्माण को हटाने का निर्देश दिया है जिस पर वक्फ़ बोर्ड ने अमल करने की बात कही है।

इसके बाद 13 सितम्बर को हिमाचल प्रदेश के मण्डी शहर में जेल रोड इलाक़े में स्थित एक मस्जिद में कथित अवैध निर्माण को लेकर एक और विरोध प्रदर्शन हुआ। फ़ासीवादी गिरोह ऐसे मौक़े पर हर विवाद को साम्प्रदायिक रंग देने की फ़िराक में लगे रहते हैं। किसी ने कांगड़ा ज़िले में नगरोटा बगवाँ के गाँधी मैदान के समीप स्थित एक शिवालय में स्थापित शिवलिंग को तोड़ दिया। इस घटना पर भी संघियों ने क्षेत्र में तनाव का पूरा माहौल बनाया। इलाक़े से मुसलामानों के घरों और दुकानों को खाली करवाने की माँग की। बाद में पता चला कि शिवलिंग तोड़ने की घटना को एक हिन्दू महिला ने अंजाम दिया था और उसकी मानसिक दशा ठीक नहीं थी।

आरएसएस-भाजपा द्वारा निर्देशित इन प्रदर्शनों के दौरान विवादित और आपत्तिजनक नारे भी लगाये गये। पूरे राज्य में मुस्लिमों एवं प्रवासियों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक नफ़रत का माहौल बनाया गया। हिमाचल एवं पूरे देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी वारदातों को अंजाम देने की वजहों को समझने और साथ ही इसके विरुद्ध संघर्ष की रणनीति को समझने के लिहाज़ से राहुल फ़ाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक “फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?” अच्छी किताब है। इस पुस्तक के लेखक अभिनव लिखते हैं “इतिहास गवाह है कि संकट के दौरों में, जब संसाधनों की “कमी” (क्योंकि यह वास्तविक कमी नहीं होती, बल्कि मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था द्वारा पैदा की गयी कृत्रिम कमी होती है) होती है, तभी धार्मिक और जातीय अन्तरविरोध तथा टकरावों के पैदा होने और बढ़ने की सम्भावना सबसे ज़्यादा होती है। अगर जनता के सामने वर्ग अन्तरविरोध साफ़ नहीं होते और उनमें वर्ग चेतना की कमी होती है तो उनके भीतर किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी गुस्सा भरा जा सकता है और उन्हें इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक़्क़तों और तकलीफ़ों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति या धर्म के लोग हैं।” हिमाचल में फ़ासीवादी लंगूरों द्वारा मचाये गये उत्पात को इन्हीं सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए।

घटना पर कांग्रेस सरकार की मौक़ापरस्ती और किंकर्तव्यविमूढ़ता

हिमाचल प्रदेश में भड़काये गये साम्प्रदायिक तनाव को नियन्त्रित करने में राज्य में सत्तासीन कांग्रेस सरकार बुरी तरह विफल रही। बेशर्मी तो तब हो गयी जब विधानसभा के भीतर कांग्रेसी सरकार के मन्त्री व पार्टी के नेता अनिरुद्ध सिंह ने फ़ासीवादी गिरोह के पक्ष में तुष्टीकरण एवं अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में नफ़रती भाषा का इस्तेमाल किया। उत्तर प्रदेश में काँवड़ यात्रा के समय जिस प्रकार दुकानों पर नाम लिखने का आदेश दिया गया था उसी प्रकार यहाँ उन्मादी गिरोह को खुश करने के लिए हिमाचल सरकार ने भी ऐसे आदेश दिये। हालाँकि मन्त्री महोदय ने इस आदेश को किसी दूसरे राज्य के तर्ज़ पर होने की बात को ख़ारिज किया। इस आदेश को लागू करवाने के लिए एक समिति का गठन भी कर दिया गया। धर्मनिरपेक्षता की डींगें हाँकने वाली कांग्रेस की असलियत एक बार फिर सामने आ गयी है। चारों ओर हो रही आलोचना के बाद कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप के बाद राज्य सरकार ने इस आदेश को वापस ले लिया। हिमाचल प्रदेश की घटना ने कई बातों को एक बार फिर से रेखांकित किया है। मसलन, कांग्रेस पार्टी की जीत और भाजपा की हार पर खुशफ़हमी के शिकार बुद्धिजीवियों की बातों पर हमें विशेष ध्यान नहीं देना चाहिए। यह सच है फ़ासिस्टों की हर प्रकार की पराजय मज़दूरों एवं आम जनता के लिए सकारात्मक बात है चाहे वह चुनावी हार क्यों न हो क्योंकि इससे मज़दूरों-मेहनतकशों और क्रान्तिकारी शक्तियों को तात्कालिक तौर पर थोड़ी राहत और मोहलत मिलती है, किन्तु किसी भी बात पर आवश्यकता से अधिक अतार्किक खुशी अगले ही चक्र में अधिक दुख और हताशा का कारण भी बनती है। आज के नवउदारवादी दौर में फ़ासीवादी शक्तियाँ जब सरकार से बाहर भी होती हैं तो उनकी आक्रामकता में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं होता है, केवल मात्रात्मक अन्तर ही होता है। इसलिए हमें फ़ासीवाद के विरुद्ध फ़ैसलाकुन लड़ाई की तैयारी से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहिए।

साथ ही, यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि कांग्रेस पार्टी बड़ी पूँजी की नुमाइन्दगी करने वाली सबसे पुरानी पार्टी है। मालिकों के हित को पोषित करने के लिए समय-समय पर यह पार्टी भी आवश्यकता अनुसार साम्प्रदायिकता का सहारा लेती रही है। आज के पूँजीवादी संकट के दौर में पूँजी के हितों को साधने के लिए फ़ासीवादी भाजपा मालिकों के समूचे वर्ग के लिए सबसे अच्छा विकल्प है। इसलिए हमें फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में कांग्रेस या अन्य किसी भी चुनावबाज़ पार्टी से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

लगातार बढ़ते फ़ासीवादी हमलों का मुक़ाबला कैसे किया जाये?

फ़ासीवादी आक्रमण का मुक़ाबले करने के सन्दर्भ में एक बेहद महत्वपूर्ण बात यह है कि आज क्रान्तिकारी शक्तियों को मेहनतकश वर्गों को उनके जीवन के ठोस मसलों पर संगठित और गोलबन्द करना होगा। उनकी समस्याओं पर ठोस कार्यक्रम पेश करते हुए ठोस नारे देने होंगे। फ़ासीवाद के मुक़ाबले के लिए इसके उभार के कारणों को समझते हुए लोगों के बीच लगातार इसके ख़िलाफ़ जुझारू प्रचार करना होगा। फ़ासीवादियों के इतिहास और वर्तमान से सम्बन्धित हर झूठ और फ़रेब को नंगा करना होगा और साथ ही पूँजीवाद के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के सच्चाई को लोगों के सामने उजागर करना होगा, वही पूँजीवाद जो फ़ासीवाद को विशिष्ट आर्थिक राजनीतिक स्थितियों में जन्म देता है। यह काम फ़ासीवादी ताक़तों के नक़ली प्रचार और उनके द्वारा राजनीति के सौन्दर्यीकरण की फ़ासीवादी मुहिम को ध्वस्त करने के लिए बेहद ज़रूरी है। इसके साथ-साथ यह भी समझना होगा कि हमें फ़ासीवादी साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब सच्ची धर्मनिरपेक्ष राजनीति से देना होगा जो धर्म के राजनीति और सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव पर आधारित होगी।

इसके अलावा फ़ासीवादी राजनीति और विचारधारा के वास्तविक एजेण्डे के बारे में आम लोगों को सचेत करना होगा और बताना होगा कि यह राजनीति केवल और केवल पूँजीपतियों और विशेष तौर पर बड़ी पूँजी की चाकरी में संलग्न है और मेहनतकशों की एकता को धर्म और जाति के नाम पर तोड़ने का काम इसी मक़सद के लिए करती है। साथ ही आज यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की शक्तिशाली जुझारू एकता के बग़ैर फ़ासीवाद का प्रभावशाली तरीक़े से मुक़ाबला करना सम्भव नहीं है, इसलिए मज़दूर वर्ग को सचेत करना तथा इसकी एकता क़ायम करना आज फ़ासीवाद के विरुद्ध हमारे सबसे ज़रूरी कार्यभारों में से एक है। इसके साथ ही, आबादी के निम्न मध्यम वर्गीय हिस्सों को भी हमें अपने क्रान्तिकारी प्रचार के ज़रिये समेटना होगा और उन्हें गोलबन्द करने के नये तरीक़े ईजाद करने होंगे क्योंकि यही वह तबक़ा है जो अपने जीवन की अनिश्चिता और असुरक्षा के कारण फ़ासीवादी प्रचार से सबसे अधिक और सबसे पहले प्रभावित होता है।

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2024


 

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