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मोदी-शाह सरकार की नयी अपराध संहिताओं का फ़ासीवादी जनविरोधी चरित्र

नये अपराधिक क़ानून दमन के हथियारों को अपडेट करने और अधिक दमनात्मक बनाने का ही काम करते हैं। अपने भक्तों और जनता के बेवकूफ़ बनाने के लिए फ़ासीवादी सत्ता को अपने को भारतीय, आधुनिक, जनपक्षधर, न्यायप्रिय दिखाने का प्रपंच करना पड़ता है। लेकिन असलियत छिपाना मुश्किल है। पुराना भारतीय दण्ड क़ानून हो या भारतीय न्याय क़ानून, ये सभी क़ानून जनता के दमन के ही निकाय हैं। लेकिन मोदी सरकार के नये क़ानूनों को पहले से अधिक दमनकारी और फ़ासीवादी बनाया गया है। तीन नये आपराधिक क़ानूनों के ज़रिये आने वाले बर्बर समय की आहट महसूस की जा सकती है, जिसकी ज़द में तमाम इन्साफ़पसन्द नागरिक, जनपक्षधर बुद्धिजीवी, पत्रकार, क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर आम मेहनतकश आबादी आयेगी।

लाइफ़ लौंग (धारूहेड़ा) के कारख़ाने में हुए भयानक विस्फोट में 16 मज़दूरों की मौत

लाइफ लौंग की दुर्घटना को महज़ लापरवाही कहना इस पर पर्दा डालने के समान है। वास्तव में यह मालिकों की मुनाफ़े की अन्धी हवस का नतीज़ा है। ये हादसे दर्शाते हैं कि मालिकों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है, इसलिए कारख़ानों में सुरक्षा के इन्तज़ाम नहीं होते। आख़िर क्यों कारख़ाने मौत के कारख़ाने बन रहे हैं? आख़िर क्यों हरियाणा से लेकर देश भर में कारख़ानों समेत कार्यस्थलों में आग व भयानक दुर्घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं? इसे समझे बिना आगे की संघर्ष की दिशा और व्यापक मज़दूरों की सही लामबन्दी सम्भव नहीं है।

नगर निगम गुड़गाँव के ठेका ड्राइवरों को हड़ताल की बदौलत आंशिक जीत हासिल हुई

वेतन और पी.एफ. के भुगतान न होने के चलते न सिर्फ़ ठेका ड्राइवर बल्कि ठेके पर काम करने वाले सफ़ाई, सिक्योरिटी गार्ड, मैकेनिक सभी हड़ताल में शामिल हुए थे। वैसे तो इस इकोग्रीन कम्पनी द्वारा ठेके पर कार्यरत मज़दूरों के श्रम कानूनों के सभी अधिकारों की जिस तरह से खुलेआम धज्जियाँ नगर निगम गुड़गाव की नाक के नीचे उड़ाई जा रहीं है। ज़ाहिर है, यह बिना प्रशासन, सरकार और ठेकेदार की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। इसके लिए ठेका ड्राइवरों को इस सच्चाई को समझना होगा और आने वाले दिनों में इसके लिए कमर कसनी होगी। साथ ही विभिन्न सेक्टर के मज़दूरों के साथ इस मुद्दे पर एकता बढ़ाकर आगे बढ़ना होगा।

गुड़गाँव से लेकर धारूहेड़ा तक की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों के जीवन और संघर्ष के हालात

समूचे ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को संगठित कर ऑटो सेक्टर के पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकार के सामने कोई भी वास्तविक चुनौती देना तभी सम्भव है जब अनौपचारिक व असंगठित मज़दूरों को समूचे सेक्टर की एक यूनियन में एकजुट और संगठित किया जाय, उनके बीच से तमाम अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों को किनारे किया जाय जो लम्बे समय से उन्हें संगठित होने से वास्तव में रोक रहे हैं; और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के समझौतापरस्त और दाँत व नाखून खो चुके नेतृत्व से अलगकर उस सेक्टरगत यूनियन से जोड़ा जाये। इन दोनों ही कार्यभारों को पूरा करना आज ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को जुझारू रूप से संगठित करने के लिए अनिवार्य है।

न्यूनतम वेतन क़ानून के ज़रिये केजरीवाल की नयी नौटंकी का पर्दाफ़ाश करो! संगठित होकर अपने हक़ हासिल करो!!

 अगर सरकार की सही मायने में यह मंशा होती कि यह क़ानून लागू किया जाये तो सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि दिल्ली की आप सरकार ने पुराने क़ानूनों को ही कितना लागू किया है? अगर सही मायने में केजरीवाल सरकार की यह मंशा होती तो वह सबसे पहले हर फ़ैक्टरी में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 (Factories Act, 1948) का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया। निश्चित ही  इस क़ानून से जिसको थोडा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु यह लगातार सिकुड़ रहा है।