‘कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है’ पुस्तक से एक अंश
राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है। महिलाओं के प्रति भी पुलिस का दृष्टिकोण मर्दवादी और संवेदनहीन ही होता है जिसकी बानगी आये दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं पर आला पुलिस अधिकारियों की टिप्पणियों में ही दिख जाती है जो इन घटनाओं के लिए महिलाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। भारतीय पुलिस के चरित्र को लेकर कुछ वर्षों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने एक बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि भारतीय पुलिस जैसा संगठित अपराधियों का गिरोह देश में दूसरा कोई नहीं है।
जब पुलिस के डण्डे से राज्यसत्ता जनता को क़ाबू में नहीं कर पाती तो उसका अगला अगला मोहरा होता है आरए एफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ जैसे अर्द्ध-सुरक्षा बल जो अत्याधुनिक हथियारों से लैस होते हैं और लोगों का बर्बर दमन करने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त होते है। आज़ादी के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने अपनी ताकत सुदृढ़ करने के लिए कई नए अर्द्ध-सुरक्षा बलों की स्थापना की और इनमें जवानों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की है। इनकी उपस्थिति मात्र से एक दहशत भरा माहौल पैदा हो जाता है। इस दहशत भरे माहौल का इस्तेमाल राज्यसत्ता जनान्दोलनों को डराने-धमकाने के लिए बखूबी इस्तेमाल करती है। किसी भी जन-प्रदर्शन और जुलूस के दौरान ये अर्द्ध-सुरक्षा बल अपनी लाठियों और हथियारों सहित इसीलिए तैनात किये जाते हैं कि जनता एक सीमा से आगे अपने अधिकारों का सवाल उठाने के पहले ही दहशत में आ जाये। इसके अतिरिक्त इन अर्द्ध-सुरक्षा बलों का इस्तेमाल अलगाववादी आन्दोलनों और जनविद्रोहों को भी बर्बरता से कुचलने में किया जाता है।
भारतीय राज्यसत्ता की हिफ़ाजत में तैनात सुरक्षा बलों के शीर्ष पर फ़ौज होती है जो न सिर्फ़ बाहरी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित होती है बल्कि देश के भीतर भी जन-बग़ावतों पर क़ाबू पाने के लिए भी विशेष रूप से प्रशिक्षित प्राप्त होती है। जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व जैसे इलाकों में, जहाँ जनता अपने आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर आन्दोलित है, फौज का दबदबा इतना ज़्यादा है कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वहाँ सैनिक शासन जैसी स्थिति है। इन इलाकों में कुख़्यात सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून (ए.एफ.एस.पी.ए;) लागू है जो वस्तुतः सेना को किसी भी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त करता है। पिछले कुछ वर्षों से नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में भी सेना को भेजने की बातें चल रही हैं।
हालाँकि पिछले कई दशकों से भारत का किसी भी देश के साथ प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ है, फिर भी भारतीय सेना की गिनती दुनिया की सबसे भारी भरकम सेनाओं में होती है। आज़ादी के बाद से ही साल-दर-साल भारतीय राज्यसत्ता अपनी सेना को चुस्त-दुरुस्त और अत्याधुनिक हथियारों से लैस करती आयी है। हथियारों के आयात के मामले में भारत आज विश्व में अव्वल नम्बर पर है। जिस देश में दुनिया के सबसे अधिक बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार हों और दुनिया की सबसे ज़्यादा महिलायें एनीमिया की शिकार हों, वह देश अगर दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का आयातक है तो इसी से इस राज्यसत्ता का बर्बर जनविरोधी चरित्र उजागर हो जाता है। जब सरकार को भूख, कुपोषण और ग़रीबी से निज़ात दिलाने की उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति आगाह किया जाता है तो उसके नुमाइंदे और शासक वर्गों के टुकड़ों पर पलने वाले तमाम बुद्धिजीवी सब्सिडी का अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले बुरे असर के बारे में अख़बारों के पन्ने भर डालते हैं और टीवी स्टूडियों में लम्बी-लम्बी बहसें करते हैं, परन्तु इनमें से कोई भी यह सवाल नहीं उठाता कि भला ऐसा क्यों है कि इस ‘शान्तिप्रिय’ देश में हथियारों की प्राथमिकता भोजन और दवाओं से ज़्यादा है! भारत में श्रम की अनुत्पादकता पर हाय-तौबा मचाने वाले ये कलमघसीट सेना के रूप में इतनी विराट अनुत्पादक संस्था की मौजूदगी पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते। सच्चाई तो यह है कि भारत का शासक वर्ग अपनी शान्तिप्रियता का चोंगा कब का उतार कर फेंक चुका है। आज भारतीय सेना दुनिया की साम्राज्यवादी सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर युद्धाभ्यास करती है और यहाँ का शासक वर्ग खुद के साम्राज्य के बारे में ख़्वाब देखता है, भले ही यहाँ पर भूख, कुपोषण और बीमारी से दम तोड़ने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है।
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‘कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है’
लेखक : आलोक रंजन व आनन्द सिंह
प्रकाशक : राहुल फ़ाउण्डेशन
सम्पर्क : जनचेतना, डी-68, निराला नगर, लखनऊ 226020
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