भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस (23 मार्च) पर
कविता – नयी सदी में भगतसिंह की स्मृति
शशि प्रकाश
एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पागल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए।
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूँ कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में ?)
यह तो महज़
अँधेरे में रख दिये गये एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से।
सोचना है कि अँधेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अँधेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहाँ कोई दर्पण है।
जहाँ भी है परावर्तन की सम्भावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है।1
हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध।
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धांजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आये झाड़-झँखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहाँ तक पहुँचने की
जद्दोजहद-भर है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए नहीं कि तुम्हारे नामलेवा नहीं।
संसद के खम्भे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल-मालाएँ हैं
और धूपबत्तियों का ख़ुशबूदार धुआँ है।
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्रान्ति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नयी बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड़-पत्रकार
अपने अख़बारी कॉलम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग ख़ूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें ख़तरा है
लोगों तक पहुँचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में।
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
सन्धान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम।
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या कोई संकेत-चिह्न
और हम माँगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख़्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में दिहाड़ी पर
खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से।
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए।
गन्तव्य तक पहुँचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि लोग एक बार फिर इन्सानियत की रूह में
हरकत पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे।2
तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहाँ रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियाँ बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालाँकि अँधेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिट्टी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों-
स्मृतियों-सपनों को गूँथकर गढ़े थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान।
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुँचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहाँ से
एक नयी राह आगे चलने लगती है।
तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की 3
कोशिशों के ख़िलाफ़,
और विचारों के ख़िलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के ख़िलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयों में रख देने के ख़िलाफ़।
…या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्य-कला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार 4
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सड़कें छोड़कर
पिछवाड़े की गन्दगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूँढ़ते हुए कविता का अर्थात्
मेर्कूरी अव्देविच की तरह 5
और तकिये में सोने की गिन्नियाँ छुपाये
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाये तो।
…बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुःखों, प्यार, झाग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलता, मौन, चिन्तन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बज़नी के औज़ारों और
निर्लिप्त ख़बरों से भरी
धूसर, चमकीली या साँवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी पारी आये
तो बस दुहरा दिये जायें
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
“इन्क़लाब ज़िन्दाबाद!”
सन्दर्भ
1 मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” की पंक्तियाँ…”कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गयी…”
2 भगत सिंह के प्रसिद्ध कथन का संदर्भ कि…”जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है” तो इस परिस्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी होता है कि “क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो।”
3 ‘नौजवान भारत सभा’ के घोषणापत्र में उद्धृत मैज़िनी की कविता की पंक्तियाँ हैं :
“लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है.
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो
जहाँ ज्वार हरदम ताज़ा रहता है—
और शक्तिशाली धाराएँ स्वतन्त्र होती हैं…”
4 5 मई 1930 को विशेष ट्रिब्यूनल को लिखे अपने पत्र में भगत सिंह ने इसी आशय की बात कही थी।
5 फ़ेदिन के प्रसिद्ध उपन्यास ‘पहली उमंगें’ का एक कंजूस व्यापारी पात्र।
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