Category Archives: कला-साहित्‍य

कहानी – सुकून की तलाश में एक दिन / अन्वेषक

आख़िर सूरज डूब गया, तेज़ हवाओं ने सब कुछ अपने आगोश में ले लिया। अँधेरा हर तरफ़ फैल चुका था। पूरे पार्क में सन्नाटा पसर गया, कहीं कोई नहीं दिखाई दे रहा था। लाउडस्पीकर का शोर अभी ख़त्म नहीं हुआ, बस अभी उसकी आवाज़ धीमी थी। सब लौट गये फिर अपने ठिकानों में जहाँ अगले दिन उन्हें सुबह से रात तक, अपने हाड मांस को गलाना था ताकि अपना व परिवार का पेट का गड्ढा भर सके। यही पहिया घूम रहा है दिन, रात, महीनों, सालों से। इसी में एक दिन निकाल कर आते हैं सभी सुकून की तलाश करते हुए, पर अन्त में रह जाता है तो सिर्फ़ अँधेरा जो सब कुछ अपने अन्दर समा लेना चाहता है।

मिथकों को यथार्थ बनाने के संघ के प्रयोग

इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहती हैं, बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण करने की कोशिश करती हैं जिससे वह अपनी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही एक फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है।

‘द केरला स्टोरी’: संघी प्रचार तन्त्र की झूठ-फ़ैक्ट्री से निकली एक और फ़िल्म

जिस तरीक़े से जर्मनी में यहूदियों को बदनाम करने के लिए किताबों, अख़बारों और फ़िल्मों के ज़रिए तमाम अफ़वाहें फ़ैलायी जाती थीं, आज उससे भी दोगुनी रफ़्तार से हिन्दुत्व फ़ासीवाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहा है। ‘द केरला स्टोरी’ भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवाद के प्रचार तन्त्र में से ही एक है।

रोशनाबाद श्रृंखला की तीन कविताएँ

दु:खों का इतिहास अगर एक हो
और वर्तमान भी अगर साझा हो
तो प्यार कई बार ताउम्र ताज़ा बना रहता है,
सीने के बायीं ओर दिल धड़कता रहता है
पूरी गर्मजोशी के साथ
और इन्सान बार-बार नयी-नयी शुरुआतें
करता रहता है ।

जीवन गाथा (कहानी)

जीवन गाथा (कहानी) विष्णु नागर मैं बहुत खाता था। बहुत खाने से बहुत-से रोग हो जाते हैं इसलिए सुबह और शाम दौड़ा करता था। बहुत दौड़ने से बहुत थक जाता…

फ़ॉक्सकॅान के मज़दूर की कविताएँ

ये कवितायें चीन की फ़ॉक्सकॅान कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू़ लिझी ने लिखी हैं। लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी। लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते है जो यह मुनाफ़ाख़ोर मज़दूरों पर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है।

लेनिन और सल्वादोर में क्रान्ति

रोके दाल्तोन, अल सल्वाडोर के कवि, निबन्धकार, पत्रकार और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे। सिर्फ़ 40 वर्ष की उम्र में उनकी हत्या कर दी गयी थी। उन्हें लातिनी अमेरिका के सबसे प्रभावशाली कवियों में गिना जाता है।

क्लासिकीय पेण्टिंग्स पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा हमला : सही सर्वहारा नज़रिया क्या हो?

पिछले तीन महीनों में पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आम लोगों का ध्यान पर्यावरण समस्या की ओर खींचने के लिए चुनिन्दा क्लासिकीय चित्रों पर हमला किया है। लिओनार्डो दा विन्ची की मोनालिसा, वैन गॉग की सनफ़्लावर्स तथा मोने का एक चित्र भी निशाने पर आ चुका है। पर्यावरण कार्यकर्ता ‘स्टॉप आयल’ और ‘लेट्जे जेनेरेन’ नामक एनजीओ से जुड़े हैं जिन्होंने म्यूज़ियम में जाकर चित्रों पर टमाटर की चटनी फेंकने से लेकर स्याही फेंकने का तरीक़ा अपनाया है।

शेखर जोशी की याद में

हमारे समय के सबसे बड़े कथाकारों में से एक, शेखर जोशी का इसी महीने की 4 तारीख़ को निधन हो गया। वे 91 वर्ष के थे और अब भी सक्रिय थे। वे हिन्दी के उन बिरले कहानीकारों में से थे जिन्होंने मज़दूरों, ख़ासकर औद्योगिक मज़दूरों के जीवन को अपनी कहानियों का विषय बनाया। उनकी याद में हम यहाँ उनके संस्मरणों के कुछ अंश दे रहे हैं जो बताते हैं कि मज़दूरों की जीवन और उनके संघर्षों की उनकी समझ एक श्रमिक के रूप में ख़ुद उनके जीवन से आयी थी। इन अंशों को हमने वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी के ‘आजकल’ में प्रकाशित लेख से साभार लिया है। ‘मज़दूर बिगुल’ में हमने शेखर जी की कहानियाँ पहले प्रकाशित की हैं और अपने पाठकों के लिए हम श्रमिक जीवन के इस चितेरे की और रचनाएँ आगामी अंकों में प्रस्तुत करेंगे। – सं.