Category Archives: कला-साहित्‍य

गोर्की के उपन्‍यास ‘माँ’ का एक अंश : एक समाजवादी का अदालत में बयान

“हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पत्ति के ख़िलाफ हैं” निजी सम्पत्ति की पद्धति समाज को छिन्न–भिन्न कर देती है, लोगों को एक–दूसरे का दुश्मन बना देती है, लोगों के परस्पर हितों में एक ऐसा द्वेष पैदा कर देती है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, इस द्वेष को छुपाने या न्याय–संगत ठहराने के लिए वह झूठ का सहारा लेती है और झूठ, मक्कारी और घृणा से हर आदमी की आत्मा को दूषित कर देती है।

साहिर लुधियानवी – जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे ऐवां कांप रहे हैं

कांप रहे हैं जालिम सुल्तां टूट गए दिल जब्बारों के
भाग रहे हैं जिल्ले-इलाही मुंह उतरे हैं गद्दारों के।
एक नया सूरज ख्‍मका है, एक अनोखी ज़ौबारी है
खत्म हुई अफरात की शाही, अब जम्हूर की सालारी है।

कान्ति मोहन – बोल मजूरे हल्ला बोल

सिहर उठेगी लहर नदी की सुलग उठेगी फुलवारी
काँप उठेगी पत्ती-पत्ती चटखेगी डारी-डारी
सरमायेदारों का पल में नशा हिरन हो जायेगा
आग लगेगी नन्दन वन में दहक उठेगी हर क्यारी
सुन-सुन कर तेरे नारों को धरती होगी डाँवाडोल
बोल मजूरे हल्ला बोल…