छावा : फ़ासीवादी भोंपू से निकली एक और प्रोपेगैण्डा फ़िल्म

सूरज

फ़ासीवादी राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसका प्रचार तन्त्र होता है। इतिहास का मिथकीकरण और मिथकों को इतिहास बनाने में फ़ासीवादी ताक़तें अपने प्रचार तन्त्र का व्यापक तौर पर इस्तेमाल करती है। भारत में यह काम मीडिया तन्त्र से लेकर संघ द्वारा गली-मोहल्लों में लगायी जाने वाली शाखाओं के द्वारा किया जा रहा है। लेकिन आज के वक़्त में नफ़रत को फैलाने वाले इस प्रचार तन्त्र में एक अहम भूमिका फ़िल्मों व सोशल मीडिया पर मौजूद छोटे वीडियो और रील की है। जहाँ एक तरफ़ तकनोलॉजी की वजह से भाजपा और संघ का आईटी सेल बड़े पैमाने पर छोटे-छोटे वीडियो और रील के माध्यम से मुस्लिम-विरोधी प्रोपगैण्डा फैला रहा है, वहीं दूसरी ओर बॉलीवुड में ऐसी कई फ़िल्मों को बहुत तेज़ी से बढ़ावा दिया जा रहा है, जो सीधे-सीधे भाजपा और आरएसएस के प्रचार तन्त्र के तौर पर काम कर रही हैं। इस दौरान केरला स्टोरी, जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी, कश्मीर फ़ाइल्स, आरआरआर, बाहुबली समेत ऐसी कई फ़िल्मों की बाढ़ सी आयी है जो या तो प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से भाजपा और आरएसएस के प्रचार को (या यूँ कहें कि नफ़रती ज़हर को) अवाम के बीच परोसने का काम कर रही है।

इसी कड़ी की अगली फ़िल्म है, छावा। यह फ़िल्म सत्रहवीं शताब्दी के दौरान मराठा राजा शिवाजी के बेटे सम्भाजी के जीवन पर बनी है। इस फ़िल्म के किरदार सम्भाजी पर उतनी ज़ोर-जबरदस्ती और ज़ुल्म नहीं किया गया होगा, जितना कि फ़िल्मकारों ने इतिहास और तथ्यों के साथ किया है। वैसे तो इस फ़िल्म के लगभग सभी दृश्यों का ऐतिहासिक तथ्यों के ज़रिये खण्डन किया जा सकता है और दिखाया जा सकता है कि लगभग पूरी फिल्म ही मिथकों, झूठों और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने पर आधारित है। लेकिन जगह की कमी को देखते हुए हम इस फ़िल्म के कुछ चुनिन्दा दृश्यों का ही चयन कर रहे हैं, जो अपने आप में इस फ़िल्म की असलियत को बेपर्द करने में काफी होंगे।

फ़िल्म के एक दृश्य में एक हिन्दू राजा का चित्रण आता है, जो कि एक क्रूर मुग़ल शासक के सामने बेड़ियों में बँधा है, वह ख़ून से लथपथ है और उसके चारों ओर मुस्लिम सिपाही खड़े हैं, जिनमें से हर किसी की लम्बी दाढ़ी है। इस दृश्य के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की गयी है कि किस प्रकार मुग़ल शासक औरंगजेब द्वारा एक हिन्दू राजा को प्रताड़ित किया गया था, क्योंकि वह हिन्दू राजा हिन्दू धर्म और “हिन्दवी स्वराज” को बचाने की लड़ाई लड़ रहा था। लेकिन इतिहासकारों का इस पर क्या कहना है? इतिहासकार सेतु माधवराव पगडी ने “हिन्दवी स्वराज” की अवधारणा को सिरे से ख़ारिज किया है। और “हिन्दवी स्वराज” पर मिले अब तक के प्रमाणों की वैधता को भी इतिहासकारों ने ख़ारिज कर दिया है। साथ ही जिस शिवाजी के “हिन्दवी स्वराज” के सपने की बात फ़िल्म में की गयी है, उसपर ख़ुद उनके बेटे सम्भाजी ने हमला किया था। वास्तव में, हिन्दवी शब्द का हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना ही नहीं था। यह शब्द एक निश्चित क्षेत्र और उसमें रहने वाले और कुछ निश्चित भाषाएँ बोलने वाले लोगों के लिए किया गया था और इन लोगों में हिन्दू व मुसलमान दोनों ही शामिल थे। यह शब्द बना ही एक अरबी शब्द ‘हिन्द’ से है।

फ़िल्म की शुरुआत अभिनेता अजय देवगन की आवाज़ से होती है, जिसमें कुछ तस्वीरों के साथ भारत का इतिहास दिखाया जाता है, जो वास्तव में मिथकीकृत कहानी है। इसमें तथ्य जैसा कुछ भी नहीं है। इन दृश्यों में यह दिखाया गया है कि किस प्रकार भारत में औरंगज़ेब ने भारत देश को जिसे फ़िल्म में एक “मन्दिर” के रूप में बताया गया है, तबाह किया और शिवाजी ने औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ जंग छेड़कर इसे बचाया। इस प्रकार यह फ़िल्म मिथकों के ज़रिये एक गौरवशाली अतीत को रचने का काम करती है। लेकिन जैसे ही हम तथ्यों को सामने लेकर आते हैं, वैसे ही इस समूचे मिथकीकृत इतिहास की असलियत सामने आ जाती है।

पहला तथ्य तो यही है कि यह फ़िल्म किसी ऐतिहासिक घटना पर नहीं बल्कि यह शिवाजी सावन्त के एक उपन्यास पर बनी है। लेकिन इसे पेश ऐसे किया जा रहा है जैसे कि यह इतिहास को चित्रित कर रही है। दूसरा, अगर ऐतिहासिक तथ्यों पर ग़ौर करें, तो यह बात तो स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाती है कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच की लड़ाई कोई धर्म-रक्षा की लड़ाई नहीं थी बल्कि पूरी तरह से अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार की लड़ाई थी। शिवाजी की सेना में कितने ही मुस्लिम सेनापति मौजूद थे, साथ ही औरंगज़ेब की सेना और दरबार में हिन्दू मन्त्री, सेनापति और सैनिक भारी संख्या में मौजूद थे। औरंगज़ेब का मकसद अगर सभी को मुसलमान बनाना होता, तो ज़ाहिरा तौर पर पहले वह अपने दरबार और अपनी सेना में अगुवाई और सरदारी की स्थिति में मौजूद हिन्दुओं को मुसलमान बनाता। धर्मान्तरण का जब कभी उसने इस्तेमाल किया तो वह भी राजनीतिक वर्चस्व और अहं की लड़ाई का हिस्सा था, न कि इस्लाम का राज भारत में क़ायम करने की मुहिम।

अध्येता राम पुनियानी समेत कई इतिहासकारों के मुताबिक़ औरंगज़ेब और कई मुस्लिम शासकों ने कितने ही मन्दिरों को बनवाने के लिए दान दिये थे। मसलन, सोमेश्वर महादेव मन्दिर स्वयं औरंगज़ेब ने बनवाया था और इस मन्दिर के धर्मदण्ड पर यह बात दर्ज है। श्रृंगेरी शारदा मन्दिर भी इसका प्रातिनिधिक उदाहरण है जिसे सन् 1791 में मराठा सेना ने तोड़ दिया था और जिसका पुनर्निर्माण टीपू सुल्तान ने करवाया था। और ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि कई मुस्लिम शासकों ने मन्दिरों के लिए न सिर्फ़ दान दिये थे, बल्कि उनमें से कुछ का निर्माण भी करवाया था। अतः इतिहास की जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति इस क़िस्म के बचकाने तर्क पर केवल हँस सकता है। लेकिन फ़ासीवादी ताक़तें झूठ का प्रचार बड़े पैमाने पर इसी रूप में करती हैं ताकि मिथकों को हमारे दिमाग़ में स्थापित सामान्य बोध बना दिया जाय, जिस पर हम सवाल ही न कर सकें, बस आदतन उसे सच मान बैठें। इस फ़िल्म द्वारा की जाने वाली सैकड़ों करोड़ की कमाई इस बात का सूचक है कि एक बड़ी आबादी इस प्रचार के बहाव में बह रही है। इसलिए इस फ़िल्म के (कु)तर्कों का खण्डन करना बेहद ज़रूरी है।

फ़िल्म के दौरान कुछ दृश्यों को इस तरह से फिल्माया गया है जहाँ मुस्लिम सेना को हिन्दू इलाक़े में जाकर आम लोगों पर ज़ुल्म करते दिखाया गया है। इसे इस रूप में दिखाया गया है कि हिन्दू बच्चों को मारना, उनके घर जलाना, महिलाओं का बलात्कार करना इस्लाम धर्म के लोगों में अन्तर्निहित है। ऐतिहासिक तथ्यों से दिखलाया जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगल काल तक ऐसा बर्ताव मुसलमानों ने नहीं किया और ही हिन्दुओं ने किया था। वास्तव में, उस दौर में हुए तमाम युद्ध साम्राज्यों, रियासतों आदि के बीच के राजनीतिक टकराव थे और धर्म उनमें कोई मसला नहीं था। लगभग सभी युद्धों में दोनों ओर की सेनाओं में हिन्दू मुसलमान दोनों ही हुआ करते थे। शिवाजी को पुरन्दर के किले में घेरकर औरंगज़ेब से समझौता करने, उन्हें 23 किले सौंपने और औरंगज़ेब की मातहती स्वीकार करने को मजबूर करने का काम एक हिन्दू राजा जयसिंह ने किया था।

मुसलमानों को एक घिसी-पिटी छवि के आधार पर बनायी गयी एक ख़ास वेशभूषा में दिखाकर यह फ़िल्म एक तरीक़े से लोगों के बीच ऐसी वेशभूषा और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत के बीज बोने का काम करती है। एक तरफ़ इन दृश्यों के ज़रिये तो यह फ़िल्म मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत तो पैदा करती ही है, वहीं दूसरी तरफ़ आज जो मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा की जा रही है उसे भी सही ठहराने का काम करती है। गुजरात दंगों के दौरान जो भयावह तस्वीर हमारे सामने आयी थी, जब संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों के हैवान त्रिशूल से गर्भवती महिलाओं का पेट चीरकर ख़ुद की बहादुरी का सन्देश दे रहे थे, जब गाँव-गाँव में जाकर संघी गुण्डे मुस्लिम महिलाओं का बलात्कार कर उन्हें मौत के घाट उतार दे रहे थे, वे अभी किसी भी न्यायप्रिय व संवेदनशील इन्सान के मस्तिष्क से उतरे नहीं हैं; या फिर धर्म के नाम पर भीड़ द्वारा मुस्लिम युवकों को पीट-पीटकर मार देने, या हर त्योहार पर इलाक़ों दंगे भड़काने, या फिर सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं के छेड़खानी और बलात्कार जैसे अपराध को प्रचारित करने वाले ‘ज़ालिम हिन्दू’ जैसे पेज के बनाये जाने को यह फ़िल्म सही ठहराने का काम करती है। यह समझा जा सकता है क्योंकि संघियों के एक गुरू सावरकर ने मुसलमानों के खिलाफ़ बलात्कार व हत्या को जायज़ हथियार ठहराया था।

इस फिल्म द्वारा बहुत महीन तरीक़े से दर्शकों के दिमाग़ में यह डालने की कोशिश करती है कि चूँकि उस दौर में मुस्लिम शासकों ने हिन्दू लोगों पर बर्बरता दिखायी (जो कि मिथक से ज़्यादा कुछ भी नहीं है, और ऐतिहासिक तौर पर जो इतिहासकारों द्वारा सिरे से ख़ारिज किया जा चुका है), इसलिए आज हिन्दुओं (असल में संघ और उसकी गुण्डा वाहिनियों) को भी मुस्लिमों पर इस क़िस्म के बर्बर अत्याचार करने चाहिए। यही इस फिल्म का असल मक़सद है: धार्मिक वैमनस्य फैलाकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूरे देश में साम्प्रदायिक माहौल तैयार करना। इसका नतीजा नागपुर में सामने भी आने लगा है।

पद्मावत, छावा, पानीपत जैसी फ़िल्में भले ही ऐतिहासिक किरदारों और ऐतिहासिक वक़्त (जिस प्रकार यह ख़ुद को पेश करती है) पर आधारित हों, लेकिन ये फ़िल्में आज के दौर के फ़ासीवादी प्रचार को गति देने वाली आधुनिक फ़िल्में हैं जो वास्तविक इतिहास और तथ्यों के साथ दुराचार कर उन्हें फ़ासीवादी साम्प्रदायिक प्रचार में फिट करने का काम करती हैं।

फ़ासीवाद की यह एक अहम चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है कि यह शुद्ध रूप से एक काल्पनिक समुदाय (जैसे कि “हिन्दू राष्ट्र”) का निर्माण करता है, और और ख़ुद को उस समुदाय के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में पेश करता है। साथ ही इस विचारधारात्मक समुदाय के बरक्स दूसरे समुदाय को एक नक़ली शत्रु के रूप में पेश करता है, जैसा कि संघ परिवार व मोदी सरकार द्वारा मुसलमानों के साथ किया जा रहा है। इस नक़ली दुश्मन को बहुसंख्यक समुदाय की जनता की सारी दिक़्क़तों के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, मसलन, बेरोज़गारी, महँगाई, आदि। इस प्रकार इन समस्याओं के लिए वास्तव में जिम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग को मोदी सरकार व संघ परिवार जैसे फ़ासीवादी कठघरे से बाहर कर देते हैं। जर्मनी में यह नक़ली शत्रु यहूदी थे और वहाँ पर शुद्ध रूप से काल्पनिक समुदाय था “जर्मन आर्य राष्ट्र”, हालाँकि इसमें कुछ भी वास्तविक नहीं था। ऐसा कोई आर्य राष्ट्र मौजूद नहीं था। जर्मनी में आर्य नस्ल की यही एकमात्र पहचान बना दी गयी थी कि वे यहूदी नहीं थे, और भारत में संघ के “हिन्दू राष्ट्र” के सभी सदस्यों में और कुछ भी साझा नहीं है सिवाय इसके कि वे मुसलमान नहीं हैं। इतना ही नहीं, फ़ासीवादी ताक़तें धीरे-धीरे इस नक़ली शत्रु के दायरे को बढ़ाती है, और हर वह शख़्स जो फ़ासीवादी फ़्यूहरर या संगठन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है उसे भी उस नक़ली दुश्मन के दायरे में शामिल कर लिया जाता है। जर्मनी के भीतर भी इस पहचान को स्थापित करने में वहाँ के मीडिया तन्त्र समेत रेडियो और कला के अन्य माध्यमों की अहम भूमिका रही थी, और आज भारत में भी फ़ासीवादी प्रचार तन्त्र का एक बड़ा हिस्सा इसमें दिन रात लगा है।

आज इस प्रचार तन्त्र के बरक्स हमें जनता के असल मुद्दों को उनके कारणों के साथ प्रचारित करना होगा, क्योंकि फ़ासीवादी प्रचार तन्त्र का अन्तिम लक्ष्य ही यही होता है कि जनता को उनके असल मुद्दों से भटकाकर उन्हें आपस में लड़ा दिया जाये, ताकि देश की मुट्ठीभर आबादी द्वारा की जाने वाली लूट बरकरार रह सके। लेकिन इन तमाम विशालकाय प्रचार तन्त्र के बावजूद फ़ासीवादियों की पूरी राजनीति झूठ पर टिकी होती है। इसके बरक्स क्रान्तिकारियों के पास सच की ताक़त होती है, वह सच जिससे अवाम हर दिन, हर वक़्त मुख़ातिब होता है। इस सच के ज़रिये ही हम असल में फ़ासीवादियों के खोखले प्रचार की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं। लेकिन इसके लिए भी मेहनतकश वर्ग को जनता के संसाधनों के दम पर अपने प्रचार तन्त्र खड़े करने होंगे और इससे ही हम फ़ासीवादी राजनीति को बेपर्द कर सकते हैं। ‘छावा’ जैसी फ़ासीवादी प्रचार फिल्म के झूठों और बकवासों को सामने लाना भी हमारे इस काम का हिस्सा हैं। हम मज़दूरों को भी अपने देश का वास्तविक इतिहास पढ़ना होगा ताकि हम फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास के मिथकीकरण को पहचान सकें और उसका जवाब दे सकें।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2025


 

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