मेहनतकश जनता के पक्ष में खड़े महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्मदिवस (13 नवम्बर) के मौक़े पर उनकी कविताओं के कुछ अंश

ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है!
फिलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे।
हम धधकायेंगे।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है!!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार भरी गरमी में
भाप-बने आँसू के खूंख़ार अक्षर!!
(‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ कविता का अंश)

 
ज़िन्दगी की कोख में जनमा
नया इस्पात
दिल के खून में रंगकर।
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव देह धारण कर
असंख्यक स्त्री-पुरुष-बालक
बने, जग में, भटकते हैं
कहीं जनमे
नये इस्पात को पाने।
झुलसते जा रहे हैं आग में
या मुँद रह हैं धूल-धक्कड़ में,
किसी की खोज है उनको
किसी नेतृत्व की

(‘मेरे लोग’ कविता का एक अंश)

 

अरे! जन-संग-ऊष्मा के
बिना, व्यक्त्वि के स्तर जुड़ नहीं सकते।
प्रयासी प्ररेणा के स्रोत,
सक्रिय वेदना की ज्योति
सब साहाय्य उनसे लो।
तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।
कि तद्गत लक्ष्य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे,
व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त
करने की क्रिया में से
उभर ऊपर
विकसते जायेंगे निज के
तुम्हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्ते
अकेले में नहीं मिलते।

… … …

 

मुझ पर क्षुब्ध बारूदी धुएँ की झार आती है
व उन पर प्यार आता है
कि जिनका तप्त मुँह
सँवला रहा है
धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्यत्-युद्ध में रत है,
जगत की स्याह सड़कों पर।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएं
गिराकर तोड़ देता हूं हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय,
समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमगकर
जन्म लेना चाहता फिर से
कि व्यक्तित्वान्तरित होकर,
नये सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ, सच!!

(‘चकमक की चिनगारियाँ’ कविता के अंश)

 

 

अगर मेरी कविताएँ पसन्द नहीं
उन्हें जला दो,
अगर उसका लोहा पसन्द नहीं
उसे गला दो,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो
इस तरह बला टालो!!
लेकिन याद रखो
वह लोहा खेतों में तीखे तलवारों का जंगल बन सकेगा
मेरे नाम से नहीं, किसी और नाम से सही,
और वह आग बार-बार चूल्हे में सपनों-सी जागेगी
सिगड़ी में ख्यालों सी भड़केगी, दिल में दमकेगी
मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही।
लेकिन मैं वहाँ रहूँगा,
तुम्हारे सपनों में आऊँगा,
सताऊँगा
खिलखिलाऊँगा
खड़ा रहूँगा
तुम्हारी छाती पर अड़ा रहूँगा।

(‘भूमिका’ कविता का अंश)

 


 

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