कहानी – टूटन

आशीष

“ओय तेरी के! सीधा खड़ा नहीं रह सकते?” डीटीसी बस की ठसाठस भीड़ में खड़ी एक महिला ने पास खड़े एक बुज़ुर्ग आदमी से चीखकर बोला। बेचारे ने कोई जवाब नहीं दिया; बस उसके चेहरे पर बेबसी और उदासी की लकीरें खिंच गयीं। मई में दोपहर की गर्मी और अगले बस स्टॉप के आते ही उतरने वालों से ज़्यादा चढ़ने को लोग बेताब। भूसे को बोरे में दबा-दबाकर जैसे ठूँसा जाता है, कुछ वैसी ही दशा इस बस की थी। जूते से पैर कुचले जाने या दूसरों के शरीर पर लद जाने पर लोग चीख-पुकार मचाते, फिर लोग शान्त होते। फिर चीखते-चिल्लाते। फिर मानो सब कुछ सेटल हो गया हो। हो भी क्यों नहीं, रोज़ की यही कथा है। राजधानी के बाहरी हिस्से पर बसे झुग्गियों में रहने वालों के लिए ऐसे भी बस की आवर्तिता कम है और मजूरी भी इतनी नहीं कि हर कोई ई-रिक्शा या ऑटो का किराया भर सके।

दीपू एक किनारे खड़ा था। उसे याद आया कि अगले स्टॉप पर उसे उतरना है। भीड़ को चीरकर वह गेट के पास पहुँचा, तब तक उसका गन्तव्य आ गया। उसने ड्राइवर को रोकने बोला। नहीं बोलने से बस कहाँ रुकने वाली, फिर जाओ अगले बस स्टॉप पर।

बस से उतरते ही दीपू अपनी जेब पर हाथ फेरकर फ़ोन और बटुए को टटोलकर निश्चिन्त होता है कि सब ठीक है। इलाक़े के चोरों के गिरोह का कहना ही क्या! वे पॉकेटमार से ज़्यादा जादूगर लगते हैं, पलक झपकते ही खेल खेल जाते हैं। बहरहाल लम्बी थकाऊ यात्रा से दीपू का सिर दर्द शुरू हो गया था।

बस स्टॉप के पास ही एक पेड़ के नीचे स्टूल पर थोड़ी देर सुस्ताने के बाद चाय की टपरी वाले से कहा एक कप चाय। चाय की चुस्की शुरू हो गयी। वहीं बगल में स्टॉल पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि खाली चाय सरजी  कुछ और भी तो लीजिए! दीपू ने उस अनजान शख़्स की ओर देखा, लम्बे बाल, दाढ़ी, गले में मोटी चेन, लाल आँखें, मज़बूत भुजाएँ, हाथ में चाय का कप और एक धूम्रदण्डिका।

दीपू ने कहा, “बस और कुछ नहीं चाहिए।” अनजान व्यक्ति ने दीपू से पूछा, “क्या आप पण्डित हो?” प्रतिउत्तर में दीपू ने ना में सिर हिलाया।

“तो क्या आप मुस्लिम हो?”

दीपू ने कहा, “नहीं, पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा।”

दीपू लम्बा आदमी है, उसके नैन-नक्श कटारी की तरह तेज़, नाक ऊँची, बोलने का अन्दाज़ थोड़ा धीमा। वह कुर्त्ता-पायजामा पहने था और कन्धे पर सफ़ेद और लाल रंग का तौलिया लपेटे था।

अपरिचित व्यक्ति ने कहा कि उसके कपड़े वीआईपी लग रहे हैं। “मानो आप किसी मन्दिर के पुजारी हों या किसी मदरसे के उस्ताद। मतलब आपकी बिरादरी क्या है?” “मैं ज़ात, बिरादरी या धर्म को नहीं मानता। दीपनारायण नाम है मेरा, लोग दीपू कहते हैं, मैं यहाँ के मज़दूर यूनियन का कार्यकर्ता हूँ।” 

“अच्छा मेरा नाम अफ़रोज़ है। मुझे कुछ लोग टूटन बोलते हैं और कुछ लोग विलट। माल ढुलाई का काम करता हूँ। 12 घण्टा खटता हूँ तब 700 रुपये दिहाड़ी पाता हूँ।”

धूम्रदण्डिका की ओर इशारा करते हुए आगे उसने कहा “लोगे आप!” दीपू ने उसकी ओर देखा, और ना में सिर हिलाया। अफ़रोज़ की आँखें लाल थी। हाथ में जो सामग्री थी वह सिगरेट नहीं शायद गाँजा था।

दीपू ने पूछा, “गाँजा क्यों पीते हो भाई?”

अफ़रोज़ ने कहा – “अंकल जी बुरा मत मानना, मैं क्या आपको टूटन लगता हूँ, क्या मैंने आपको कुछ ग़लत बात कही?”

अपने से बड़े उम्र के व्यक्ति द्वारा ‘अंकल जी’ का सम्बोधन दीपू को थोड़ा अटपटा लगा, उसने अफ़रोज़ के संशय को दूर करते हुए उसके सवाल के जवाब में कहा, “नहीं भाई।” पाठक की जानकारी के लिए बता दूँ कि ‘टूटन’ यहाँ स्थानीय इलाक़े में नशाख़ोरी में लिप्त या हमेशा धुत्त रहने वाले या नशा नहीं मिलने पर बुरी तरह व्याकुल हो जाने वाले व्यक्ति को कहते हैं।

अपनी बात को जारी रखते हुए अफ़रोज़ ने कहा, “अंकल जी, गाँजा तो कई मन्दिरों में भी चढ़ाया जाता है, आप बुरा मत मानना! दिनभर खटने के बाद माथा ठनक जाता है, शरीर की नसें अकड़ जाती है और सोचने-विचारने की ताक़त नहीं बचती तो चार-पाँच कश मार लेता हूँ। अच्छा अंकल, ये ओनियन-यूनियन क्या होता है?”

अफ़रोज़ सिगरेट से तम्बाकू झाड़कर उसमें गाँजा भर चुका था। अब वह अपनी चाय की प्याली में बार-बार तर्जनी अँगुली डालकर धूम्रदण्डिका को बाहर से हल्का भिगाकर चिपकाने लगा और दीपू के जवाब को ध्यान से सुनने लगा।

दीपू ने कहा कि यूनियन का मतलब होता है मज़दूरों की एकता। जब किसी मज़दूर भाई-बहन के साथ कोई अन्याय होता है जैसे काम करवाकर कहीं मालिक या ठेकेदार किसी का पैसा मार लेता है, कहीं कोई हादसा होता है या और भी कोई दिक़्क़त होती है तो यूनियन मदद करती है। यूनियन किसी की मदद करने के बदले कोई पैसा नहीं लेती। इतना ही नहीं यूनियन मज़दूरों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने और एकजुट करने के लिए मज़दूर पाठशाला भी चलाती है। फ़लाँ-फ़लाँ जगह पर हर सप्ताह में यूनियन की मीटिंग और सभा होती है जिसमें मज़दूर भागीदारी करते हैं और मिलकर फ़ैसले भी लेते हैं। आज मुट्ठीभर मालिक लूटने के लिए एकजुट हैं इसलिए लाखों मज़दूरों को लूटते-खसोटते हैं। कम से कम दाम में मजूरी कराते हैं। जिस दिन मज़दूर एकजुट हो जायेंगे मालिक की अक्ल ठिकाने लग जायेगी। मज़दूरों को यूनियन का सदस्य बनना चाहिए। मेहनत करने वाले सब एक हैं, एक पर हमला मतलब सबपर हमला, ऐसे समझना होगा।

अफ़रोज़ बीच में बिना कुछ कहे लगातार सुनता रहा। उसकी आँखें चमक उठीं। उसने एक के बाद एक कई सवाल पूछे, मसलन लोगों की एकता कैसे बनेगी, मालिकों के पास इतनी शक्ति है उसका मुक़ाबला कैसे करेंगे आदि आदि। इस तरह के ढेरों सवाल पूछता रहा और दीपू के उत्तर को बड़ी तन्मयता से सुनता रहा।

फिर बोला, “आपकी सब बात मेरे समझ में नहीं आती मगर ऐसा लग रहा है सही बात बोल रहे हो आप, यही रास्ता सही है। अंकल जी, बुरा मत मानना, मैं आपको टूटन तो नहीं लगता? मैं शरीफ़ आदमी हूँ, आप बोलो तो मैं गले का चेन निकाल कर फेंक दूँगा। मैं ग़लत रास्ते पर चला गया था अब मेहनत की रोटी तोड़ता हूँ, पहले बस में ब्लेड मारना, चोरी पॉकेटमारी, छिनतई सब कुकर्म किये हैं मैंने।” वह अपना दृष्टान्त एक अजनबी को बड़ी आत्मीयतापूर्वक सुना रहा था। बातचीत के क्रम में उसके होंठ काँप रहे थे।

जब अपनी अम्मी का ज़िक्र किया तो उसकी आँखें छलछला गयीं –  बहुत छोटी-सी उम्र थी तब कैसे उसकी झुग्गी तोड़ दी गयी, मध्य-दिल्ली से काफ़ी सुदूर बवाना में एक जगह उसके बाप को मिली। यहाँ बसने के तीन महीने बाद उसके भाग्य पर ठनका गिरा, साँप के काटने से उसकी अम्मी गुज़र गयीं। दो साल बाद उसकी इकलौती बड़ी आपी रफ़त जहाँ ने एक ड्राइवर शमशाद के साथ भागकर निकाह कर लिया। अब घर में अब्बू और उसके सिवा कोई नहीं था।

उसने बताया कैसे साढ़े पाँच साल की उम्र से ही उसे कई बार शारीरिक, मानसिक, यौनिक और भावनात्मक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। अब्बू आज़ादपुर मण्डी से सब्ज़ी लाते और रोज़ शाम को बेचते। अफ़रोज़ को देखने वाला कोई नहीं था। रिश्तेदारों के यहाँ भी कोई मान नहीं था, वहाँ से भागकर फिर अपने अब्बू के यहाँ आ गया। मोहल्ले के सबसे आवारा और बदनाम लड़कों के साथ रहने लगा और उन्हीं के साथ दिनभर खेलता, प्लास्टिक और बोतलें चुनकर पैसे जुटाता। धीरे-धीरे सूँघने वाले नशे की भी आदत लगी।

पहले तो बाप से डरता था, लेकिन एक दिन उसके अब्बू ने डाँटा तो उसने गाली बकते हुए बाप के ऊपर ही ईंट उठा ली। उस दिन से बाप ने फिर कभी कुछ नहीं कहा और धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में चला गया। कई बार पुलिस की पिटाई पड़ी, पुलिस के चंगुल से छूटा भी और एक मुक़दमे में डेढ़ साल सज़ा काटने के बाद अक्ल आयी। आगे वह फैक्ट्रियों में काम करने के दौरान मालिकों के घिनौने कृत्य को उद्घाटित करते हुए अपनी आपबीती सुनाने लगा, गुस्से से उसकी आँखें फड़कने लगी। उसने बताया कि कैसे वह अब तक कई बेईमान ठेकेदारों और मालिकों को पीट चुका है। उसका बोलते रहना जारी रहा।

एक गाँजा-युक्त धूम्रदण्डिका सेवन वह पहले ही कर चुका था। यह हाथ में अभी दूसरा था। उसे सुलगाते हुए फिर उसने कहा, “अंकल जी, बुरा मत मानना क्या मैंने कुछ ग़लत कहा? क्या मैं टूटन लगता हूँ ? मैं शरीफ़ आदमी हूँ।”

दीपू ने मई दिवस पर यूनियन की ओर से निकला पर्चा थमाया, तो उसने कहा कि उसे पढ़ना नहीं आता। “यदि ख़ुद नहीं पढ़ सकते तो किसी और पढ़वा लेना”- दीपू ने कहा।

अंकल जी, अपना मोबाइल नम्बर तो देना। दीपू ने कहा – “पर्चे के नीचे लिखा है और यूनियन दफ़्तर का पता भी है।”

“अंकल जी, आज भी अब्बू लहसुन बेचते हैं सब्ज़ी बाज़ार में, मैं ढुलाई करता हूँ। आप ग़लत मत समझना, मैं टूटन नहीं हूँ। आपलोगों को कभी कोई ज़रूरत हो आदेश दे देना बस फिर मैं तो साले की…! मेरे पास मोबाइल नहीं है, अब्बू के नम्बर से फ़ोन करूँगा, नम्बर सेव कर लेना।”

वह सिगरेट के कश खींचे जा रहा था और लगातार बोले जा रहा था। तभी दीपू को याद आया कि उसे यूनियन की एक मीटिंग में जाना है और वह दस मिनट लेट हो चुका है। अफ़रोज़ से विदा लेकर तेज़ क़दमों से वह पास के मोहल्ले में स्थित यूनियन कार्यालय की तरफ़ निकल पड़ा।

 

 

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