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फ़िलिस्तीनी कविताएँ
इन कविताओं के साथ दिये गये सभी चित्र (नीचे देखें) फ़िलिस्तीनी चित्रकार मैसरा बारूद ने बनाये हैं।
सभी कविताएँ ‘अन्वेषा वार्षिका–2025’ से साभार ली गयी हैं
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कविता – फ़िलिस्तीन
अज्ञात (अनुवाद : असद ज़ैदी)
हमारे दोस्तों से
हमारे दोस्तों जैसी बू नहीं आती
उनसे अस्पतालों जैसी बू आती है
हमारे अस्पतालों से
हमारे अस्पतालों जैसी बू नहीं आती
उनसे क़ब्रिस्तानों की बू आती है
हमारे क़ब्रिस्तानों से
हमारे क़ब्रिस्तानों जैसी बू नहीं आती
उनसे हमारे दोस्तों जैसी बू आती है
फ़िलिस्तीन में
कविता – सच की ज़ुबान
ग़स्सान कानाफ़ानी (अनुवाद : भास्कर चौधुरी)
(ग़स्सान कानाफ़ानी (8 अप्रैल 1936–8 जुलाई 1972) एक महत्वपूर्ण फ़िलिस्तीनी लेखक और कवि होने के साथ ही वामपन्थी क्रान्तिकारी विचारों के एक नेतृत्वकारी राजनीतिज्ञ भी थे। 1972 में इज़रायली खुफ़िया एजेन्सी ‘मोसाद’ ने उनकी कार में बम लगाकर उसे उड़ा दिया और कानाफ़ानी और उनकी सत्रह वर्षीया भतीजी लामीस की हत्या कर दी।)
तुम्हारी सारी सेनाएँ
तुम्हारे सारे लड़ाके
तुम्हारे सारे टैंक
तुम्हारे सारे सैनिक
उस लड़के के ख़िलाफ़ हैं
जिसके हाथ में पत्थर है
जो वहाँ खड़ा है
निपट अकेला
मैं उसकी आँखों में सूरज देखता हूँ
मुस्कान में उसकी
मुझे चाँद दिखायी देता है
और मैं चकित हूँ
कि कौन कमज़ोर है और
कौन ताक़तवर
कौन सही है और
कौन ग़लत
मैं कामना करता हूँ और
केवल कामना करता हूँ
कि सच की एक ज़ुबान हो!!
कविता – एक कविता की नज़रबन्दी
दारीन तातूर (अनुवाद : राजेश चन्द्र)
दारीन तातूर फ़िलिस्तीन की एक कवि, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और मीडियाकर्मी हैं। 2018 में सोशल मीडिया पर एक कविता के प्रकाशन के बाद हिंसा भड़काने और एक आतंकवादी संगठन का समर्थन करने के आरोप में गिरफ़्तार करके उन पर इज़रायली अदालत में मुक़दमा चलाया गया और क़ैद की सज़ा दी गयी।
एक दिन,
उन्होंने रोक लिया मुझे
हथकड़ियाँ पहनायीं,
बाँध दिया मेरे शरीर, मेरी आत्मा
मेरे सर्वस्व को…
फिर उन्होंने कहा : इसकी तलाशी लो,
हम इसके भीतर ढूँढ़कर रहेंगे एक आतंकवादी!
उन्होंने मेरे हृदय को
खींच निकाला बाहर
वैसे ही मेरी आँखों को भी,
चप्पा-चप्पा छान मारा मेरी भावनाओं तक का।
मेरी आँखों से उन्हें एक नाड़ी मिली प्रेरणा की,
मेरे हृदय से, अर्थान्वेषण की एक योग्यता।
फिर उन्होंने कहा : सावधान।
वह छिपा रही है हथियार
जेबों की गहराई में अपने।
इसकी तलाशी लो!
पता लगाओ विस्फोटकों का।
और इस तरह उन्होंने मेरी तलाशी ली…
अन्त में, मुझे दोषी ठहराते हुए उन्होंने कहा :
हमें कुछ नहीं मिला
उसकी जेबों में अक्षरों के सिवाय।
कुछ नहीं मिला सिवाय एक कविता के।
कविता – जीवन का पाठ
शाहद अलनामी (अनुवाद : भास्कर चौधुरी)
युवा जुझारू कवयित्री और लेखिका होने के साथ ही वे अनुवादक, वीडियो सम्पादक और वॉयस ओवर आर्टिस्ट भी हैं। वह भी ‘ग़ज़्ज़ा पोयट्स सोसायटी’ की सदस्य हैं और नरसंहार की जारी विभीषिका के दौरान लगातार ग़ज़्ज़ा में ही मौजूद रही हैं।
हम जीवन का पाठ पढ़ाते हैं।
हम फ़िलिस्तीनी प्रत्येक सुबह,
जैसे ही खड़े होते हैं,
दुनिया को जीने का सलीका सिखाते हैं।
ग़ज़्ज़ा में प्रत्येक भोर
हम महज़ नये दिन के स्वागत के लिए नहीं खड़े होते,
बल्कि दुनिया को प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति
लचीलापन दिखाने के लिए खड़े होते हैं।
बावजूद तमाम चुनौतियों के जिनका हम सामना करते हैं,
दृढ़ बनी रहती हैं हमारी आत्माएँ, चमकती रहती है गहरी
मुसीबत में भी उम्मीद की किरण की तरह।
हम हमारे घरों के मलबों और हमारे टूटे हुए
सपनों की ख़ुशबुओं से गुज़रते हैं,
फिर भी हम उस उत्पीड़न का विरोध करने के लिए
दृढ़ संकल्पित होकर खड़े हैं जो हमारी रोशनी को
दबाना चाहता है।
कविता – हम लोग लौटेंगे
अब्दुलकरीम अल-करमी (अबु सलमा) अनुवाद : रामकृष्ण पाण्डेय
(प्रख्यात फ़िलिस्तीनी कवि अबू सलमा का जन्म 1909 में तुलकरम फ़िलिस्तीन में हुआ था। उन्होंने क़ानून की पढ़ाई की और अप्रैल 1948 तक फ़िलिस्तीन के हाइफ़ा में काम किया। उसके बाद वे कुछ समय के लिए अक्का और फिर दमिश्क चले गये। वह फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) से भी जुड़े रहे। निधन : 1980, वॉशिंगटन।)
प्यारे फ़िलिस्तीन
मैं कैसे सो सकता हूँ
मेरी आँखों में यातना की परछाईं है
तेरे नाम से मैं अपनी दुनिया सँवारता हूँ
और अगर तेरे प्रेम ने मुझे पागल नहीं बना दिया होता
तो मैं अपनी भावनाओं को
छुपाकर ही रखता
दिनों के क़ाफ़िले गुज़रते हैं
और बातें करते हैं
दुश्मनों और दोस्तों की साज़िशों की
प्यारे फ़िलिस्तीन
मैं कैसे जी सकता हूँ
तेरे टीलों और मैदानों से दूर
ख़ून से रंगे
पहाड़ों की तलहटी
मुझे बुला रही है
और क्षितिज पर वह रंग फैल रहा है
हमारे समुद्र तट रो रहे हैं
और मुझे बुला रहे हैं
और हमारा रोना समय के कानों में गूँजता है
भागते हुए झरने मुझे बुला रहे हैं
वे अपने ही देश में परदेसी हो गये हैं
तेरे यतीम शहर मुझे बुला रहे हैं
और तेरे गाँव और गुम्बद
मेरे दोस्त पूछते हैं
‘क्या हम फिर मिलेंगे?’
‘हम लोग लौटेंगे?’
हाँ, हम लोग उस सजल आत्मा को चूमेंगे
और हमारी जीवन्त इच्छाएँ
हमारे होंठों पर हैं
कल हम लोग लौटेंगे
और पीढ़ियाँ सुनेंगी
हमारे क़दमों की आवाज़
हम लौटेंगे आँधियों के साथ
बिजलियों और उल्काओं के साथ
हम लौटेंगे
अपनी आशा और गीतों के साथ
उठते हुए बाज के साथ
पौ फटने के साथ
जो रेगिस्तानों पर मुस्कुराती है
समुद्र की लहरों पर नाचती सुबह के साथ
ख़ून से सने झण्डों के साथ
और चमकती तलवारों के साथ
और लपकते बरछों के साथ
हम लौटेंगे
Poem – In Filastin
Unknown poet
In Filastin,
Our friends
Don’t smell like our friends
They smell like hospitals.
Our hospitals
Don’t smell like our hospitals
They smell like graveyards.
Our graveyards
Don’t smell like our graveyards
They smell like our friends.
In Filastin.
Poem – Tongue of truth
Ghassan Kanafani
All your armies
All your fighters
All your tanks
And all your soldiers
Against the boy
Holding a stone
Standing there
All alone
In his eyes
I see the sun
In his smile
I see the moon
And I wonder
I only wonder
Who is weak and
Who is strong
Who is right and
Who is wrong
And I wish
I only wish
That the truth
Has a tongue !
Poem – We Will Return
Abdelkarim Al-Karmi (Abu Salma)
We Will Return
Beloved Palestine,
how do I sleep
While the spectrum of torture is in my eyes
I purify the world with your name
And if your love did not tire me out,
I would’ve kept my feelings a secret
The caravans of days pass and talk about
The conspiracy of enemies and friends
Beloved Palestine! How do I live
Away from your plains and mounds?
The feet of mountains that are dyed with blood
Are calling me
And on the horizon appears the dye
The weeping shores are calling me
And my weeping echoes in the ears of time
The escaping streams are calling me
They are becoming foreign in their land
Your orphan cities are calling me
And your villages and domes
My friends ask me, “Will we meet again?”
“Will we return?”
Yes! We will kiss the bedewed soil
And the red desires are on our lips
Tomorrow, we will return
And the generations will hear
The sound of our footsteps
We will return along with the storms
Along with the lightening and meteors
Along with the hope and songs
Along with the flying eagle
Along with the dawn that smiles to the deserts
Along with the morning on the waves of the sea
Along with the bleeding flags
And along with the shining swords and spears
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन