Tag Archives: कविता कृष्‍णपल्‍लवी

कविता  की  ज़रूरत

रोटी पेट की भूख मिटाती है, कविता हमारी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख मिटाती है। इनमें से पहली भूख तो जैविक है, आदिम है। दूसरी भूख सच्चे अर्थों में ‘मानवीय’ है, मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास की देन है। समस्या यह है कि वर्ग विभाजित समाज के श्रम विभाजन जनित अलगाव, विसांस्कृतीकरण और विमानवीकरण की सार्विक परिघटना ने बहुसंख्यक आबादी से उसकी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख का अहसास ही छीन लिया है। दूसरे, जब पेट की भूख और बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही हडि्डयाँ गलानी पड़ती हों तो सांस्कृतिक भूख या तो मर जाती है या विकृत हो जाती है। भूखे लोग रोटी के लिए आसानी से, स्वत: लड़ने को तैयार हो जायेंगे, पर वास्तविक अर्थों में सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्वों से युक्त मानव समाज के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए, मानवता के ‘आवश्यकता के राज्य’ से ‘स्वतंत्रता के राज्य’ में संक्रमण की लम्बी लड़ाई के लिए, व्यक्ति की सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक वैयक्तिकता के लिए ज़रूरी शोषणमुक्त सामाजिक संरचना और सामूहिकता के सुदूर भविष्य तक की यात्रा के सतत् दीर्घकालिक संघर्ष के लिए, लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें विस्मृति से मुक्त किया जायेगा, उन्हें स्वप्न और कल्पनाएँ दी जायेंगी, उनमें कविता की भी भूख पैदा की जायेगी और फिर उस भूख को मिटाने के ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायेंगे।

रोशनाबाद श्रृंखला की तीन कविताएँ

दु:खों का इतिहास अगर एक हो
और वर्तमान भी अगर साझा हो
तो प्यार कई बार ताउम्र ताज़ा बना रहता है,
सीने के बायीं ओर दिल धड़कता रहता है
पूरी गर्मजोशी के साथ
और इन्सान बार-बार नयी-नयी शुरुआतें
करता रहता है ।

फासीवाद की बुनियादी समझ बनायें और आगे बढ़कर अपनी ज़िम्मेदारी निभायें

फासीवादि‍यों का विरोध करने वाले बहुत से बुद्धिजीवियों और अनेक क्रान्तिकारी संगठनों के बीच भी फासीवाद को लेकर कई तरह के विभ्रम मौजूद हैं। मज़दूर बिगुल के पाठकों से भी अक्सर फासीवाद को लेकर कई तरह के सवाल हमें मिलते रहते हैं। कविता कृष्णपल्लवी की यह टिप्पणी यह समझने में मदद करती है कि फासीवाद एक सामाजिक आन्दोलन है जिसने भारतीय समाज में गहरे जड़ें जमा ली हैं। इसके महज़ चुनावों में हराकर परास्त और नेस्तनाबूद नहीं किया जा सकता। इसके विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। हालाँकि इसे मोदी के सत्ता में आने से पहले लिखा गया था लेकिन यह आज और भी प्रासंंगिक है।

अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में

अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में – कविता कृष्णपल्लवी पूरे देश में ज़ंजीरों के खड़कने और बेड़ियों के घिसटने की आवाज़ें सुनाई दे रही…

भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की सफलता-असफलता को लेकर कुछ ज़रूरी बातें

फ़ेसबुक आदि पर होने वाली चर्चाओं में और समाज में आम तौर पर अक्सर भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता को लेकर तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं कि देश में वामपन्थी आन्दोलन के सौ साल हो गये पर अब भी पूँजीवाद का ही हर ओर बोलबाला है। ‘क्रान्तिकारी’ लोग पता नहीं कब जनता के रक्षक की भूमिका में उतरेंगे। अब तो फ़ासीवाद भी आ गया लेकिन कम्युनिस्ट कोई देशव्यापी आन्दोलन नहीं खड़ा कर पा रहे हैं।

तमाम तिलचट्टे, छछून्दर और चूहे बदहवास क्यों भाग रहे हैं इधर-उधर?

कोविशील्ड वैक्सीन बनाने वाली कम्पनी का मालिक अदार पूनावाला लन्दन भाग गया। वह कह रहा है कि भारत में उसकी जान को ख़तरा था। अब वह यूरोप में ही वैक्सीन बनाने की बात कर रहा है। पूनावाला को सरकार ने वैक्सीन बनाने के लिए सारे सरकारी नियमों में ढील देकर 3000 करोड़ रुपये का अनुदान दिया था और कहा था कि यह वैक्सीन जनता को मुफ़्त दी जायेगी। अब पूनावाला इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों को 400 रुपये और निजी अस्पतालों को 600 रुपये में बेच रहा था।

एक ऐतिहासिक फ़ासिस्ट नरसंहार में बदल चुकी कोविड महामारी और हठान्ध कोविडियट्स का ऐतिहासिक अपराध

नदियों में सैकड़ों की तादाद में लाशें उतरा रही हैं। नीचे उन्हें कुत्ते किनारे घसीटकर नोच रहे हैं और ऊपर गिद्ध-चील मँड़रा रहे हैं। ‘भास्कर’ जैसे सत्ता-समर्थक अख़बार भी कोविड से वास्तविक मौतों की संख्या सरकारी आँकड़ों से पाँच गुनी अधिक बता रहे हैं। कई शहरों में कोविड से हुई मौतों के सरकारी आँकड़ों और श्मशानों में पहुँची ऐसे मरीज़ों की लाशों की संख्या के बीच दस गुने तक का अन्तर पाया गया है। उत्तर प्रदेश में निजी अस्पताल कोविड से हुई अधिकांश मौतों का कारण दस्तावेज़ों में कुछ और दर्ज कर रहे हैं।

अपने-अपने मार्क्स

हर साल की तरह इस साल भी कार्ल मार्क्स के 203वें जन्मदिवस के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपन्थियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं। इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं।

मेरी देशभक्ति का घोषणापत्र

मैं एक भारतीय हूँ। मैं इस देश से प्यार करती हूँ।
मैं इस देश से प्यार करती हूँ, यानी इस देश के लोगों से प्यार करती हूँ।
मैं इस देश के सभी लोगों से प्यार नहीं करती। मैं इस देश में अपनी मेहनत से फसल पैदा करने वाले, कारखानों में काम करने वाले, खदानों में काम करने वाले, बाँध, सड़क और बिल्डिंगें बनाने वाले, स्कूलों-कालेजों में पढ़ने-पढ़ाने वाले और ऐसे तमाम आम लोगों से और उनके बच्चों से प्यार करती हूँ।

विकृत विकास का क़हर : फेफड़ों में घुलता ज़हर

हर साल की तरह सर्दियाँ ठीक से शुरू होने के पहले ही दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर सड़कों और घरों पर एक स्लेटी चादर की तरह पसर गये और लोगों का साँस लेना दूभर हो गया। ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ को मिलाकर इसे दुनिया भर में ‘स्मॉग’ कहा जाता है। हिन्दी में धुँआ और कुहासा को जोड़कर ‘धुँआसा’ भी कहा जा सकता है। यह जाड़े के दिनों की स्थायी समस्या है जो साल-दर-साल गम्भीर होती जा रही है।