कविता की ज़रूरत
रोटी पेट की भूख मिटाती है, कविता हमारी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख मिटाती है। इनमें से पहली भूख तो जैविक है, आदिम है। दूसरी भूख सच्चे अर्थों में ‘मानवीय’ है, मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास की देन है। समस्या यह है कि वर्ग विभाजित समाज के श्रम विभाजन जनित अलगाव, विसांस्कृतीकरण और विमानवीकरण की सार्विक परिघटना ने बहुसंख्यक आबादी से उसकी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख का अहसास ही छीन लिया है। दूसरे, जब पेट की भूख और बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही हडि्डयाँ गलानी पड़ती हों तो सांस्कृतिक भूख या तो मर जाती है या विकृत हो जाती है। भूखे लोग रोटी के लिए आसानी से, स्वत: लड़ने को तैयार हो जायेंगे, पर वास्तविक अर्थों में सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्वों से युक्त मानव समाज के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए, मानवता के ‘आवश्यकता के राज्य’ से ‘स्वतंत्रता के राज्य’ में संक्रमण की लम्बी लड़ाई के लिए, व्यक्ति की सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक वैयक्तिकता के लिए ज़रूरी शोषणमुक्त सामाजिक संरचना और सामूहिकता के सुदूर भविष्य तक की यात्रा के सतत् दीर्घकालिक संघर्ष के लिए, लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें विस्मृति से मुक्त किया जायेगा, उन्हें स्वप्न और कल्पनाएँ दी जायेंगी, उनमें कविता की भी भूख पैदा की जायेगी और फिर उस भूख को मिटाने के ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायेंगे।