मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (छठी किस्त)
सनी
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हमने पिछले लेख में संगठन के प्रथम स्वरुप के अविर्भाव के रूप में जैकोबिन दल पर चर्चा की थी। बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक संघर्ष के उन्नत होने के साथ ही संघर्ष की आग में तपकर बुर्जुआ वर्ग का पहला पार्टी संगठन ‘जैकोबिन दल’ के रूप में पैदा हुआ। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और 19वीं सदी की शुरुआत में अधिकतम पश्चिमी देशों में पार्टियाँ जन्म ले चुकी थी। इंग्लैण्ड में टोरी तथा विग तो फ्रांस में जैकोबिन दल, जीरोंद दल, पार्टी ऑफ़ ऑर्डर और बोनापार्टिस्ट पार्टी तथा अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी और फ़ेडेरलिस्ट पार्टी बनी। चीन में बुर्जुआ वर्ग की पार्टी क्वोमिन्ताङ् पार्टी 20वीं सदी की शुरुआत में जन्मी तो भारत में कांग्रेस की स्थापना 19वीं सदी के अन्त में हुई। पश्चिमी यूरोप में पूँजीवादी विकास के पहले होने के चलते यहाँ बुर्जुआ वर्ग का उद्भव और सामन्ती वर्ग से उसका संघर्ष भी पहले हुआ और इस वजह से ही बुर्जुआ वर्ग की राजनीतिक पार्टियाँ भी यहाँ पहले अस्तित्व में आयीं। पश्चिमी यूरोप में इंग्लैण्ड में कुछ राजनीतिक ग्रुप पहले से मौजूद थे परंतु फ्रांसीसी क्रान्ति ने ही राजनीतिक पार्टी की अवधारणा को कायदे से जन्म दिया। जैकोबिन दल प्रबोधन काल के विचारों पर आधारित था। इसका एक कार्यक्रम था हालाँकि वह अभी पूर्णत: व्यवस्थित नहीं था। यह बुर्जुआ वर्ग के सामन्त वर्ग के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष में एक नया अध्याय था। बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक विकास के सबसे प्रमुख मील के पत्थर फ्रांसीसी क्रान्ति पर बात करते हुए एंगेल्स लिखते हैं: “फ़्रांस की महान क्रान्ति …पहली लड़ाई थी जिसने अपना धार्मिक जामा उतार फेंका था और जो खुल्लम–खुल्ला राजनीतिक ढंग से लड़ी गयी थी, …फ्रांस में क्रान्ति का अर्थ था अतीत की परम्पराओं का सम्पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद।”
पुनर्जागरण-धर्मसुधार आन्दोलन से प्रबोधन काल तक की यात्रा का सबसे उन्नत राजनीतिक शिखर बुर्जुआ वर्ग द्वारा राज्यसत्ता हासिल करने के लिए उसकी महानतम क्रान्ति यानी फ़्रांसीसी क्रान्ति थी। इस क्रान्ति को नेतृत्व देने वाली पार्टी जैकोबिन दल का अस्तित्व में आना पुनर्जागरण से लेकर प्रबोधन तक चली विचारधारात्मक यात्रा का ही राजनीतिक निष्कर्ष था। हम इस लेख-श्रृंखला की पिछली कड़ी में ही यह बता चुके हैं की मार्क्स से लेकर लेनिन तक जैकोबिन दल की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। वर्ग, राजनीति और राजनीतिक पार्टी की अवधारणा की यह अति-संक्षिप्त चर्चा स्वतःस्फूर्तवाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद सरीखी अर्थवादी और अनैतिहासिक समझदारियों के विभ्रम को दूर करने में भी मददगार है। हम उपरोक्त चर्चा से निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि जिस अनुपात में सामन्तवाद के विरुद्ध बुर्जुआ वर्ग का राजनीतिक वर्ग संघर्ष उन्नत होता है उसकी विचारधारा, राजनीति और कार्यक्रम स्पष्ट होते जाते हैं उसी अनुपात में उसका राजनीतिक संगठन भी ठोस रूप ग्रहण करता जाता है। उस तरह ही हम देख सकते हैं कि जैसे-जैसे मज़दूर वर्ग राजनीतिक तौर पर सयाना होता है, उसका राजनीतिक वर्ग संघर्ष विकसित होता है वैसे-वैसे वह ट्रेड यूनियन राजनीति से आगे बढ़कर समाजवादी राजनीति तक पहुँचता है (क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों का पैदा होना और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में समाजवादी राजनीति को ले जाना स्वयं ऐतिहासिक वर्ग संघर्षों के विकसित होने की प्रक्रिया का अंग होता है), वह संघ, ट्रेड यूनियन आदि जैसे वर्गीय संगठनों से आगे बढ़कर अपने आपको सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक केन्द्र यानी अपनी राजनीतिक हिरावल पार्टी के रूप में गठित करता है।
सर्वहारा वर्ग भी विकास की विभिन्न मंज़िलों से गुज़रता है। मशीनों को तोड़ने से लेकर ट्रेड यूनियन बनाना और अन्ततः राजनीतिक पार्टी बनाना यही दर्शाता है। सर्वहारा वर्ग अपनी पहली राजनीतिक शिक्षा बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में सामन्तों के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्षों में लेता है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स-एंगेल्स लिखते हैं:
“सर्वहारा वर्ग विकास की विभिन्न मंज़िलों से गुज़रता है। जन्मकाल से ही उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। शुरू में अकेले–दुकले मज़दूर लड़ते हैं, फिर एक कारख़ाने के मज़दूर मिलकर लड़ते हैं, तब फिर एक उद्योग के एक इलाके के सब मज़दूर एक साथ उस पूँजीपति से मोर्चा लेते हैं जो उनका सीधे–सीधे शोषण करता है। उनका हमला उत्पादन की बुर्जुआ स्थितियों पर नहीं होता बल्कि खुद उत्पादन के औज़ारों पर होता है। वे अपनी मेहनत के साथ होड़ करने वाले बाहर से मँगाये गये सामानों को नष्ट कर देते हैं, मशीनों को चूर कर देते हैं, फैक्टरियों में आग लगा देते हैं और मध्ययुग के कारीगर की खोई हुई हैसियत को फिर से कायम करने की बलपूर्वक कोशिश करते हैं।
“इस अवस्था में मज़दूर देशभर में बिखरे हुए, असम्बद्ध और अपनी ही आपसी होड़ के कारण बँटे हुए जनसमुदाय होते हैं। अगर कहीं मिलकर वे अपना एक ठोस संगठन बना भी लेते हैं तो यह अभी उनकी सक्रिय एकता का फल नहीं, बल्कि बुर्जुआ वर्ग की एकता का फल होता है, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूरे सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना पड़ता है और वह ऐसा करने में अभी कुछ समय तक समर्थ भी होता है। इसलिए इस अवस्था में सर्वहारा वर्ग अपने शत्रुओं से नहीं, बल्कि अपने शत्रुओं के शत्रुओं से, निरंकुश राजतन्त्र के अवशेषों, भूस्वामियों, गैर–औद्योगिक बुर्जुआंओं, निम्न–बुर्जुआओं से लड़ता है। इस प्रकार, इतिहास की समस्त गतिविधि के सूत्र बुर्जुआ वर्ग के हाथों में केन्द्रित रहते हैं; इस प्रकार हासिल की गयी हर जीत बुर्जुआ वर्ग की जीत होती है।
“लेकिन उद्योग के विकास के साथ–साथ सर्वहारा वर्ग की संख्या में ही वृद्धि नहीं होती, बल्कि वह बड़ी–बड़ी जमातों में संकेन्द्रित हो जाता है, उसकी ताकत बढ़ जाती है और उसे अपनी इस ताकत का अधिकाधिक अहसास होने लगता है। मशीनें जिस अनुपात में श्रम के सभी भेदों को मिटाती जाती हैं और लगभग सभी जगह मज़दूरी को एक ही निम्न स्तर पर लाती जाती हैं, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग की पाँतों में नाना प्रकार के हित और जीवन की स्थितियाँ अधिकाधिक एकसम होती जाती हैं। बुर्जुआ वर्ग की बढ़ती हुई आपसी होड़ और उससे पैदा होने वाले व्यापारिक संकटों के कारण मज़दूरी और भी अस्थिर हो जाती है। मशीनों में लगातार सुधार, जो निरन्तर तेज़ी के साथ बढ़ता जाता है, मज़दूरों की जीविका को अधिकाधिक अनिश्चित बना देता है। अलग–अलग मज़दूरों और अलग–अलग पूँजीपतियों की टक्करें अधिकाधिक रूप से दो वर्गों के बीच की टक्करों की शक्ल अख़्तियार करती जाती हैं। और तब बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध मज़दूर अपने संगठन (ट्रेड यूनियनें) बनाने लगते हैं, मज़दूरी की दर को कायम रखने के लिए वे संघबद्ध होते हैं; समय–समय पर होने वाली इन टक्करों के लिए पहले से तैयार रहने के निमित्त वे स्थायी संघों की स्थापना करते हैं। जहाँ–तहाँ उनकी लड़ाई बलवों का रूप धारण कर लेती है।”
…
“आधुनिक उद्योग द्वारा उत्पन्न किये गये संचार साधनों से, जो अलग–अलग जगहों के मज़दूरों को एक–दूसरे के सम्पर्क में ला देते हैं, एकता के इस काम में मदद मिलती है। एक ही प्रकार के अनगिनत स्थानीय संघर्षों को केन्द्रीकृत करके उन्हें एक राष्ट्रीय वर्ग संघर्ष का रूप देने के लिए बस इसी प्रकार के सम्पर्क की ज़रूरत होती है। लेकिन प्रत्येक वर्ग संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है।”
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“सर्वहाराओं का एक वर्ग के रूप में संगठन और फलतः एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उनका संगठन उनकी आपसी होड़ के कारण बराबर गड़बड़ी में पड़ जाता है। लेकिन हर बार वह फिर उठ खड़ा होता है – पहले से भी अधिक मज़बूत, दृढ़ और शक्तिशाली बनकर। ख़ुद बुर्जुआ वर्ग की भीतरी फूटों का फायदा उठाकर वह मज़दूरों के अलग–अलग हितों को क़ानूनी तौर पर भी मनवा लेता है। इंग्लैण्ड में दस घण्टे के काम के दिन का क़ानून इसी तरह पारित हुआ था।”
मज़दूर वर्ग ने राजनीतिक तौर पर उन्नत होने के साथ ही देश स्तर पर ख़ुद को ‘पार्टी’ के रूप में संगठित करने का प्रयास किया। ऐसी राजनीतिक पार्टियों को हिरावल के रूप में कार्यरत होने में सक्षम बनाने तथा सर्वहारा वर्ग के दर्शन और विज्ञान से परिचित करने का काम मार्क्स-एंगेल्स ने किया। इसका समाहार करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में मार्क्स-एंगेल्स लिखते हैं “कम्युनिस्ट मज़दूरों के तात्कालिक लक्ष्यों के लिए लड़ते हैं, उनके सामयिक हितों की रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं, किन्तु वर्तमान के आन्दोलन में वे इस आन्दोलन के भविष्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं।“ मज़दूर वर्ग के जो पहले संगठन उन्नीसवीं सदी के मध्य में अस्तित्व में आते हैं उनका चरित्र तख़्तापलट के लिए बने हुए संगठनों का था। इनसे आगे बढ़कर मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में बनी कम्युनिस्ट लीग ऐसा पहला संगठन था जिसमें कई देशों के मज़दूर थे और जिसके पास विचारधारा, कार्यक्रम तथा राजनीतिक लाइन मौजूद थी। लेकिन यह ज्ञात रहे कि इस संगठन का चरित्र अभी मज़दूर वर्ग की लेनिनवादी पार्टी सरीखा नहीं था। यह “आरम्भ में पूरी तरह जर्मन, आगे चलकर अन्तरराष्ट्रीय, और 1848 तक महाद्वीप की राजनीतिक परिस्थितियों के अन्तर्गत अपरिहार्य रूप से एक गुप्त संस्था थी। नवम्बर, 1847 में लन्दन में हुई लीग की कांग्रेस में मार्क्स और एंगेल्स को एक सम्पूर्ण सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पार्टी कार्यक्रम प्रकाशनार्थ तैयार करने का कार्य सौंपा गया।”
कम्युनिस्ट लीग को मार्क्स-एंगेल्स ने 1852 में भंग कर दिया क्योंकि वह भूमिका निभा चुकी थी। 1852 के कोलोन मुक़दमे के बाद यूरोप के मज़दूर आन्दोलन के पहले चरण का पर्दा गिरता है। 1847 से 1852 तक कम्युनिस्ट लीग (1847 से पहले लीग का नाम लीग ऑफ़ जस्ट था ) ने मज़दूरों को संगठित किया, क्रान्ति में नेतृत्व दिया और सबसे ज़रूरी उनके बैनर पर कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो के अमिट सैद्धान्तिक पैगाम को अंकित कर दिया। इसके बाद मार्क्स के नेतृत्व में 1864 में बना प्रथम इण्टरनेशनल मज़दूर आन्दोलन के राजनीतिक संगठन, तालमेल केन्द्र तथा परामर्शदाता के रूप में काम कर रहा था। एंगेल्स बताते हैं :
“जब यूरोप के मज़दूर वर्ग ने शासक वर्गों पर एक और प्रहार करने के लिए पर्याप्त शक्ति फिर से संचित कर ली, तो अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ का जन्म हुआ। परन्तु यह संघ, जो यूरोप तथा अमरीका के सारे संघर्षशील सर्वहारा को एकजुट करने के निश्चित उद्देश्य से बनाया गया था, घोषणापत्र में निरूपित सिद्धान्तों को एकदम ही घोषित नहीं कर सकता था। इण्टरनेशनल के लिए ऐसे कार्यक्रम का होना अनिवार्य था, जो इतना व्यापक हो कि इंग्लैण्ड की ट्रेड–यूनियनों, फ्रांस, बेल्जियम, इटली तथा स्पेन में प्रूदों के अनुयायियों और जर्मनी में लासालपन्थियों को स्वीकार्य हो सके। मार्क्स को, जिन्होंने उस कार्यक्रम की रचना सभी पक्षों के लिए सन्तोषजनक ढंग से की, मज़दूर वर्ग के बौद्धिक विकास पर पूरा भरोसा था, जिसका संयुक्त कार्यकलाप तथा पारस्परिक विचार–विमर्श के फलस्वरूप पैदा होना अवश्यम्भावी था।”
प्रथम इण्टरनेशनल को सन 1876 में भंग कर दिया गया। जर्मनी की मज़दूर पार्टी को सही विचारधारा और कार्यक्रम देने में मार्क्स और एंगेल्स की भूमिका थी परन्तु अभी तक लेनिनवादी पार्टी की भौतिक ज़मीन नहीं पैदा हुई थी। इजारेदार पूँजीवाद पूर्व काल में बुर्जुआ राज्यसत्ता सुदृढ़, सुसंगत और सुव्यवस्थित रूप लेने की प्रक्रिया में थी और उसके साथ संघर्ष में अपने अनुभवों से सीखते हुए ही सर्वहारा वर्ग भी अपने सांगठनिक सिद्धान्त को विकसित कर रहा था। इजारेदार पूँजीवाद के दौर में पूँजीवादी राज्यसत्ता पहले से ज़्यादा सुदृढ़, दमनकारी, व्यवस्थित और मज़बूत होती है और अधिक से अधिक सैन्यकरण के साथ जनवाद-विरोधी चरित्र अख़्तियार करती जाती है। लेनिन इन दो दौरों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:
“प्राक्–इजारेदार पूँजीवाद को, 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में वह अपने चरमोत्कर्ष पर था, उसके आधारभूत आर्थिक गुणों के बल पर, जिन्हें ब्रिटेन में और अमरीका में सबसे ठेठ अभिव्यक्ति मिली, अपेक्षाकृत अधिकतम शान्तिप्रेम तथा स्वतन्त्रता प्रेम ने विशिष्ट बनाया था। परन्तु साम्राज्यवाद को, याने इजारेदार पूँजीवाद को, जो केवल 20वीं शताब्दी में जाकर अन्तिम रूप से परिपक्व हुआ, उसके आधारभूत आर्थिक गुणों के बल पर न्यूनतम शान्तिप्रेम तथा स्वतन्त्रता–प्रेम और सैन्यवाद के अधिकतम तथा सर्वव्यापी विकास ने विशिष्ट बनाया है।”
लेनिन ने ही साम्राज्यवाद के युग तक विकसित हुए पूँजीवादी राज्यसत्ता के चरित्र को पहचाना और तत्पश्चात पार्टी सिद्धान्त रखा। ऐसा नहीं है कि लेनिन की पार्टी अवधारणा मार्क्स-एंगेल्स की समझदारी से बिलकुल अलग है। कम्युनिस्ट लीग, प्रथम इण्टरनेशनल, जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रयोग लेनिनवादी पार्टी अवधारणा के लिए ज़रूरी थे और उसके विकास की प्रारम्भिक मंज़िलें थे। लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त के विकास को लेनिन के समय तक सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष, उसके राजनीतिक संगठन के प्रयासों, बुर्जुआ राज्यसत्ता के एक दमनकारी उपकरण के रूप में विकास और व्यवस्थित होने के ऐतिहासिक अनुभवों के सामान्यीकरण और समाहार के रूप में ही समझा जा सकता है। स्वयं मार्क्स और एंगेल्स ने आर्थिक संघर्ष के लिए बने जनसंगठन और राजनीतिक कार्यभार तथा क़ानूनी और गुप्त कार्य पर ज़रूरी शिक्षाएं भी दीं। मार्क्स और एंगेल्स के दौर में कई यूरोपीय देशों में बुर्जुआ राज्यसत्ता व्यवस्थित होन के दौर में थी, सामन्तवाद पर बुर्जुआ वर्ग की निर्णायक विजय को अभी कुछ दशक ही बीते थे, और बुर्जुआ राज्यसत्ता के सुदृढ़ीकरण के दौर में ही सर्वहारा वर्ग ने अपने क्रान्तिकारी राजनीतिक संघर्षों की भी शुरुआत कर दी थी। मार्क्स और एंगेल्स ने संघर्ष के हर दौर और हर अवस्था के अनुसार पार्टी संगठन के प्रयोग किये और पार्टी सिद्धान्त को उसके अनुरूप विकसित किया। लेनिन का पार्टी सिद्धान्त मार्क्स-एंगेल्स की इन शिक्षाओं को भी समेट लेता है। लेनिन ख़ुद बताते हैं कि मार्क्स-एंगेल्स ने किस प्रकार आर्थिक संघर्ष के संगठन और राजनीतिक कार्यभार के बारे में सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति स्पष्ट की:
“विकास की हर मंज़िल में, हर क्षण में सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति को मानव इतिहास की यह वस्तुपरक अनिवार्य द्वन्द्वात्मकता ध्यान में रखनी होगी। एक ओर, अग्रगामी वर्ग की चेतना, शक्ति तथा संघर्ष–क्षमता के विकास के लिए राजनीतिक गतिरोध के, अथवा “कछुआ चाल वाले“, “शान्तिमय” कहलाये जाने वाले विकास के दौरों का उपयोग करना और दूसरी ओर, इस उपयोग के सारे कामों को इस वर्ग की गतिमानता के “अन्तिम लक्ष्य” की दिशा में तथा उस वर्ग में “अपने अन्दर बीस–बीस साल मूर्त करने वाले” महान दिनों की महान समस्याओं के व्यावहारिक हल की क्षमता की सर्जना की दिशा में निदेशित करना। इस सम्बन्ध में मार्क्स के दो तर्क विशेष महत्वपूर्ण हैं: एक ‘दर्शन की दरिद्रता’ में सर्वहारा वर्ग के आर्थिक संघर्ष तथा आर्थिक संगठन के सम्बन्ध में है और दूसरा उसके राजनीतिक कार्यभार के सम्बन्ध में ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में है। पहला कहता है: “बड़ा उद्योग एक स्थान पर एक दूसरे से अपरिचित लोगों की भीड़ जमा कर देता है। प्रतिद्वन्द्विता उनके हितों को अलग–अलग कर देती है। लेकिन मज़दूरी की रक्षा, अपने मालिकों के विरुद्ध उनका यह सामान्य हित उन्हें प्रतिरोध, सहयोग के साझे विचार से एकताबद्ध करता है… पहले उनके अलग–अलग समूह अपने को सहयोगी दलों में एकताबद्ध कर लेते हैं और सतत एकताबद्ध पूँजी के मुकाबले मज़दूरी की रक्षा की अपेक्षा मज़दूरों द्वारा अपने संगठन की रक्षा अधिक आवश्यक बन जाती है… इस संघर्ष में, जो वस्तुतः गृहयुद्ध होता है, आने वाले संग्राम के निमित्त सभी तत्व एकीभूत और विकसित होते हैं। इस हद पर पहुँचकर सहयोग राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लेता है।” यहाँ हमारे सामने कई दशाब्दियों के लिए, “आनेवाले संग्राम के निमित्त” सर्वहारा की शक्ति–सिद्धि की लम्बी मुद्दत के लिए आर्थिक संघर्ष तथा ट्रेड–यूनियन आन्दोलन का कार्यक्रम और कार्यनीति प्रस्तुत हैं।
“‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ ने राजनीतिक संघर्ष की कार्यनीति के बारे में मार्क्सवाद की आधारभूत प्रस्थापना प्रस्तुत की: “कम्युनिस्ट मज़दूरों के तात्कालिक लक्ष्यों के लिए लड़ते हैं, उनके सामयिक हितों की रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं, किन्तु वर्तमान के आन्दोलन में वे इस आन्दोलन के भविष्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं।“”
क़ानूनी कार्य और गैर-क़ानूनी कार्य पर बात करते हुए लेनिन मार्क्स की शिक्षाओं का ज़िक्र करते हैं:
“राजनीतिक गतिरोध और बुर्जुआ वैधानिकता के बोलबाले के दौर में संघर्ष के क़ानूनी साधनों के उपयोग की पूरी तरह कद्र करते हुए मार्क्स ने 1877-1878 में समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण क़ानून पास होने के बाद मोस्ट की “क्रान्तिकारी लफ्फाजी” की तीक्ष्ण निन्दा की। लेकिन उन्होंने उस आधिकाधिक सामाजिक–जनवादी पार्टी पर अस्थायी रूप से हावी तत्कालीन अवसरवाद पर भी उतना ही तीव्र हमला किया, जिसने समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण क़ानून के जवाब में गैर–क़ानूनी संघर्ष की ओर कदम बढ़ाने का संकल्प, दृढ़ता, क्रान्तिकारिता, तत्परता तुरन्त प्रदर्शित नहीं की ।”
मार्क्स और एंगेल्स द्वारा पार्टी की अवधारणा एक हिरावल पार्टी के तौर पर आती है। कम्युनिस्ट लीग, प्रथम इण्टरनेशनल से लेकर जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी मार्क्स एंगेल्स के जीवन काल में उनके नेतृत्व में बनी लेकिन तीनों का ही स्वरुप अलग था। मार्क्स-एंगेल्स ने क्रान्तिकारी अख़बार निकाले, क्रान्तिकारी आन्दोलन के रणकौशल और रणनीति को आकार दिया, आर्थिक संघर्ष चलाने वाली ट्रेड यूनियनों और क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली हिरावल पार्टी की ज़रूरत पर बल दिया तथा संगठन में केन्द्रीकरण के महत्त्व को इंगित किया। इस रूप में मार्क्स व एंगेल्स ने लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त के लिए ज़रूरी वैचारिक तत्वों की बुनियाद डाली थी। लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त के रूप में सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक संगठन का सिद्धान्त एक मुकम्मिल मंज़िल तक पहुँचता है और वह लेनिन के दौर में ही सम्भव था। इतिहास ने उनके समक्ष यह कार्यभार रखा ही नहीं था। मार्क्स एंगेल्स के दौर से सीखते हुए और अपने दौर की विशिष्टताओं को समझकर ही पार्टी सिद्धान्त लेनिन पेश करते हैं।
आगे हम कम्युनिस्ट लीग, प्रथम इण्टरनेशनल, जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के बनने पर मार्क्स-एंगेल्स के विचार रखेंगे ताकि लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि को और गहराई से समझ सकें।
मज़दूर बिगुल, मई 2024
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