मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (चौथी क़िस्त)
पार्टी का राजनीतिक प्रचार और जनसमुदाय

सनी

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मज़दूर वर्ग की पार्टी का राजनीतिक प्रचार किस प्रकार ट्रेड यूनियनवाद से अलग होता है इस प्रश्न पर लेनिन की अर्थवादियों से लम्बी बहस चली। पिछले लेख में हमने ज़िक्र किया था कि किस तरह हड़ताल आन्दोलन के उभार के समय स्वतःस्फूर्ततावाद के पूजक अर्थवादी लोग मज़दूरों के बीच कम्युनिस्टों के प्रचार को केवल आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष तक सीमित रखते थे। परन्तु कम्युनिस्टों का ख़ुद को मज़दूरों की आर्थिक माँगें उठाने तक सीमित करना ही अर्थवाद नहीं कहलाता है बल्कि मज़दूर वर्ग के अलावा जनसमुदाय की माँगों को अनदेखा करना भी अर्थवाद कहलाता है। ऐसा क्यों है? इसे समझने के लिए हमें कम्युनिस्ट राजनीति के सार को समझना होगा।
कम्युनिस्ट राजनीति का निशाना पूँजीवादी राज्यसत्ता होती है। पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता को ध्वस्त कर ही मज़दूर वर्ग अपने राज्य को यानी सर्वहारा की तानाशाही को स्थापित कर सकता है। लेकिन मज़दूर वर्ग अकेले अपने बूते पर पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता का ध्वंस नहीं कर सकता है। न तो मज़दूर वर्ग अकेले क्रान्ति कर सकता है न ही उसकी पार्टी। इतिहास जनता बनाती है। इतिहास-निर्माण के मौजूदा दौर में जनता का हिरावल मज़दूर वर्ग है और मज़दूर वर्ग की हिरावल मज़दूर वर्ग की पार्टी होती है। पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग होता है तथा यह अपने शासन को अपनी राज्यसत्ता द्वारा जारी रखता है। जनता के हर स्वतःस्फूर्त तरीक़े से उठ खड़े प्रतिरोध या जन उभार को यह राज्यसत्ता कुचल सकती है या सोख सकती है। सच है कि जनता ही इतिहास बनाती है लेकिन सर्वहारा राजनीतिक दिशा और सर्वहारा नेतृत्व के अभाव में नहीं!
पूँजीवादी समाज में शासक वर्ग और जनता के बीच का अन्तरविरोध ख़ुद-ब-ख़ुद क्रान्तिकारी परिणति तक नहीं पहुँच सकता है। इस अन्तरविरोध को क्रान्तिकारी तरीक़े से हल करने, इसे इसकी परिणति तक पहुँचाने, यानी क्रान्ति को सम्भव बनाने की क्षमता सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग का अन्तरविरोध ही इसे प्रदान करता है। सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध ही पूँजीवादी समाज का प्रधान अन्तरविरोध होता है यानी वर्ग अन्तरविरोधों की समस्त कड़ियों में कुंजीभूत कड़ी होता है। केवल सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के पास ही राज्य की परियोजना होती है और ये दोनों ही वर्ग जनसमुदायों के बीच अपने प्रभाव को स्थापित करने के लिए संघर्षरत होते हैं। ठीक इसीलिए मज़दूर वर्ग की पार्टी व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों के संघर्षों से अलग-थलग नहीं रह सकती है।
अगर मज़दूर वर्ग की पार्टी मेहनतकश जनसुमदाय की माँगों को उठाने की जगह केवल मज़दूर वर्ग की तात्कालिक व आर्थिक वर्गीय माँगों को उठाये या हमेशा उसे ही तरजीह दे, तो यह अर्थवाद ही होगा। मसलन मज़दूर वर्ग की पार्टी अगर ग़रीब किसानों के संघर्ष से अलग-थलग रहे तो यह मज़दूर वर्ग के दीर्घकालिक राजनीतिक हितों के ख़िलाफ़ जायेगा और उसका राजनीतिक वर्ग संश्रय खटाई में पड़ जायेगा।
लेनिन ने कहा है कि हमें मेहनतकश जनसुमदाय के बीच प्रचार अभियान लेने चाहिए। यह प्रचार जनसमुदाय के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरीक़ों से लिया जाना चाहिए। मसलन, ग़रीब किसान के संघर्ष के मुद्दे अलग होंगे तथा शहरी निम्न बुर्जुआ वर्ग यानी मध्य व निम्न मध्य वर्ग की माँगें अलग होंगी। न केवल भिन्न-भिन्न वर्गों की माँगें भिन्न होती हैं बल्कि मज़दूर वर्ग के भी अलग-अलग हिस्सों की माँगें अलग होती हैं। लेनिन सर्वहारा वर्ग के मित्र वर्गों में प्रचार अभियान पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि : “क्रान्तिकारी सर्वहारा के हमदर्दों के रूप में मज़दूरों के अर्द्धसर्वहारा हिस्सों को अपने पक्ष में लाने के लिए तथा मध्यवर्ती समूहों का सर्वहारा वर्ग के प्रति अविश्वास दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को भूस्वामियों, पूँजीपतियों और पूँजीवादी राज्य के साथ उनके विशेष शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए उनके साथ लम्बी बातचीत की, उनकी आवश्यकताओं के प्रति सूझबूझ-भरी हमदर्दी की तथा परेशानियों के समय उन्हें मुफ़्त सहायता और परामर्श देने की ज़रूरत पड़ सकती है। इन सबसे कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रति उनमें विश्वास पैदा होगा। कम्युनिस्टों को उन विरोधी संगठनों के हानिकारक प्रभावों को समाप्त करने के लिए काम करना चाहिए जो उनके ज़िलों में वर्चस्वकारी स्थिति में हों या जिनका मेहनतकश किसान आबादी पर, घरेलू उद्योगों में काम करने वाले लोगों पर या अन्य अर्द्धसर्वहारा वर्गों पर प्रभाव हो। शोषितगण अपने स्वयं के कड़वे अनुभवों से जिन लोगों को सम्पूर्ण अपराधी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रतिनिधि या साक्षात मूर्तरूप समझते हैं, उन लोगों को बेनक़ाब करना ज़रूरी है। कम्युनिस्ट आन्दोलन (या आन्दोलनपरक प्रचार) के दौरान रोज़मर्रा की उन सभी घटनाओं का होशियारी के साथ और ज़ोरदार ढंग से इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो राज्य नौकरशाही और निम्न पूँजीवादी जनवाद और न्याय के आदर्शों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न करती हैं।
“प्रत्येक स्थानीय ग्रामीण संगठन को अपने ज़िले के सभी गाँवों, वासस्थानों और बिखरी हुई बस्तियों में कम्युनिस्ट प्रचार-प्रसार के लिए घर-घर घूमकर प्रचार करने का काम सावधानीपूर्वक अपने सदस्यों में बाँट देना चाहिए।”
मज़दूर वर्ग की पार्टी के राजनीतिक प्रचार का दूसरा पहलू यह है कि मज़दूर वर्ग का प्रचार जनसमुदाय के भिन्न हिस्सों के बीच इसलिए भी किया जाता है ताकि उनकी वर्ग चेतना को उभारा जा सके और उनके समक्ष पूँजीवाद और पूँजीवादी राज्यसत्ता की सच्चाई को बेपर्द किया जा सके। केवल मज़दूर वर्ग के कार्यक्षेत्र और मज़दूर के जीवन संघर्षों के क्षेत्र तक सीमित रहने से राजनीतिक चेतना नहीं पैदा हो सकती है। मज़दूर वर्ग का प्रचार तब क्रान्तिकारी प्रचार होगा जब वह “राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों के क्षेत्र” से तथा “सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों के क्षेत्र” तक विस्तारित हो। हमने इस लेख की दूसरी कड़ी में यह बतलाया था कि मज़दूर वर्ग की पार्टी के प्रचारक को जनता के हर वर्ग के बीच जाना चाहिए और इसके ज़रिए हर वर्ग के चेहरे को और उसके दिल में छिपी बात को उजागर करना चाहिए। यानी पूँजीवाद का सर्वांगीण भण्डाफोड़ ही मज़दूर वर्ग का राजनीतिक नारा होना चाहिए। यह नारा ही कम्युनिस्ट राजनीति और ट्रेड यूनियनवादी राजनीति में अन्तर करता है। लेनिन कहते हैं :
“हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आन्दोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिल्कुल ज़रूरी और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक-जनवादी ढंग की हो। परन्तु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुँचे थे कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फ़ौरन ज़रूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के और ख़ास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है। अपनी बात को और ठोस ढंग से समझाने के लिए हम मामले के उस पहलू को लेंगे, जो “अर्थवादियों” के सबसे ज़्यादा “नज़दीक” है, यानी हम व्यावहारिक पहलू को लेंगे। “हर आदमी यह मानता है” कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है। सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाये, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है?” तथा आगे लेनिन कहते हैं : “मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि “मज़दूर के बीच जाओ” – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव “अर्थवाद” की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।”
अतः राजनीतिक प्रचार के लिए कम्युनिस्टों को सभी वर्गों के बीच जाना ही होगा। कम्युनिस्टों को विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन करना होगा। यही कार्यभार मज़दूर वर्ग को जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाला वर्ग बनाता है। लेनिन कहते हैं कि : “सामाजिक-जनवादियों के सैद्धान्तिक काम का लक्ष्य विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन होना चाहिए। परन्तु कारख़ानों के जीवन की विशेषताओं का अध्ययन करने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उसकी तुलना में इस प्रकार के अध्ययन का काम बहुत ही कम, हद दरजे तक कम, किया जाता है। समितियों और मण्डलों में आपको कितने ही ऐसे लोग मिलेंगे, जो मसलन धातु-उद्योग की किसी विशेष शाखा के अध्ययन में ही डूबे हुए हैं, पर इन संगठनों में आपको ऐसे सदस्य शायद ही कभी ढूँढ़े मिलेंगे, जो (जैसा कि अक्सर होता है, किसी कारणवश व्यावहारिक काम नहीं कर सकते) हमारे देश के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के किसी ऐसे तात्कालिक प्रश्न के सम्बन्ध में विशेष रूप से सामग्री एकत्रित कर रहे हों, जो आबादी के अन्य हिस्सों में सामाजिक-जनवादी काम करने का साधन बन सके। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के वर्तमान नेताओं में से अधिकतर में प्रशिक्षा के अभाव की चर्चा करते हुए हम इस प्रसंग में भी प्रशिक्षा की बात का ज़िक्र किये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि “सर्वहारा के संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क” की “अर्थवादी” अवधारणा से इसका भी गहरा सम्बन्ध है। लेकिन निस्सन्देह, मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आन्दोलन। पश्चिमी यूरोप के सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ता को इस मामले  में उन सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनों से, जिसमें भाग लेने की सबको स्वतंत्रता होती है, और इस बात से बड़ी आसानी हो जाती है कि वह संसद के अन्दर सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से बातें करता है। हमारे यहाँ न तो संसद है और न सभा करने की आज़ादी, फिर भी हम वैसे मज़दूरों की बैठकें करने में समर्थ हैं, जो सामाजिक-जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं। हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि “कम्युनिस्ट हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं”, कि इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।”

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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