Category Archives: क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 23 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2

अधिकांश भोंड़े अर्थशास्त्री (जिनमें कुछ “मार्क्सवादी” अर्थशास्त्री भी शामिल हैं) ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। उसकी वजह यह है कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के विषय में उनका ज्ञान अक्सर गौण स्रोतों, मसलन, कुछ ख़राब पाठ्यपुस्तकों पर आधारित होता है। साथ ही, वे लोग भी इस खण्ड का मूल्य नहीं समझ पाते, जो इसमें कोई उद्वेलनात्मक सामग्री नहीं ढूँढ पाते हैं। वे मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सम्पूर्ण वैज्ञानिक चरित्र को नहीं समझ पाते। नतीजतन, वे यह समझने में असफल रहते हैं कि मार्क्स का राजनीतिक अर्थशास्त्र समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पूरे काम करने के तरीक़े और उसकी गति के नियमों को उजागर करता है, जिसमें महज़ पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के सम्बन्धों की पड़ताल ही शामिल नहीं है, बल्कि आधुनिक पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी वर्गों के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल शामिल है। अन्तत:, ऐसे लोग पूँजी के उत्पादन की प्रक्रिया और पूँजी के संचरण की प्रक्रिया की बुनियादी एकता को नहीं समझ पाते हैं, जिसमें बुनियादी निर्धारक भूमिका निश्चित तौर पर उत्पादन की प्रक्रिया ही निभाती है। यह एक अन्तरविरोधी एकता होती है और इस अन्तरविरोध का स्रोत और कुछ नहीं बल्कि स्वयं माल के भीतर मौजूद अन्तरविरोध ही है। यानी, उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य के बीच का अन्तरविरोध। ऐसे लोगों के विपरीत आजकल कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो उत्पादन की प्रक्रिया के निर्धारक महत्व को नहीं समझते और पूँजीवादी शोषण का मूल, आय के विभिन्न रूपों के समाज के विभिन्न वर्गों में बँटवारे के मूल को संचरण की प्रक्रिया में ढूँढते हैं और ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड को ठीक वह स्थान देते हैं, जो उसका स्थान हो ही नहीं सकता है। वे भी वास्तव में इस दूसरे खण्ड को समझने में असफल रहते हैं। ऐसे लोग पूँजीवादी संकट का मूल भी उत्पादन की प्रक्रिया में देखने के बजाय संचरण की प्रकिया में, बाज़ार में और मूल्य का वास्तवीकरण न होने के संकट में ढूँढते हैं। ये दोनों ही छोर ग़लत हैं और इन पर खड़े लोग मार्क्स की ‘पूँजी’ की परियोजना को समझने में असफल रहते हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला के विषय में एक आवश्यक सम्पादकीय सूचना

इस शिक्षणमाला का लक्ष्य है वैज्ञानिक मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों को जितना सम्भव हो सरल रूप में व्यापक मेहनतकश व छात्र-युवा आबादी के समक्ष पेश करना। मोटे तौर पर अब तक हम इस लक्ष्य में सफल रहे हैं। अब तक प्रकाशित श्रृँखला मार्क्स की महान युगान्तरकारी रचना पूँजी के पहले खण्ड तक की शिक्षाओं को समेटती है। यह माल व उसके बुनियादी गुणों, माल उत्पादन की विशिष्टताओं, मूल्य के नियम, बेशी मूल्य, पूँजी द्वारा बेशी मूल्य के पैदा होने और फिर बेशी मूल्य के पूँजी में तब्दील होने की प्रक्रिया को तार-तार करके आपके सामने रखती है। यह पूँजी संचय के आम नियम को व्याख्यायित करती है और साथ ही आदिम संचय के रूप में पूँजी-श्रम सम्बन्ध के पैदा होने के ऐतिहासिक आधार को स्पष्ट करती है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 22 : तथाकथित आदिम पूँजी संचय : पूँजीवादी उत्पादन के उद्भव की बुनियादी शर्त

ग़रीबी का पक्षपोषण करने के लिए हर रोज़ ऐसी नीरस बचकानी कहानियाँ हमें सुनायी जाती हैं…वास्तविक इतिहास को देखें तो यह एक कुख्यात तथ्य है कि इसमें विजय, ग़ुलामी, लूट, हत्या, संक्षेप में बल-प्रयोग ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक अर्थशास्त्र के कोमल पूर्ववृत्तान्तों में सबकुछ हमेशा से सुखद और शान्त ही रहा है…वास्तव में देखें तो आदिम संचय के तौर-तरीक़े सुखद और शान्त के अतिरिक्त सबकुछ थे।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 21 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

मार्क्स बताते हैं कि यह पूँजीवादी संचय का आम नियम है कि समाज में एक छोर पर समृद्धि इकट्ठा होती जाती है और दूसरी ओर ग़रीबी, अभाव और दुख इकट्ठा होता जाता है। पूँजी संचय जितना तेज़ी से आगे बढ़ता है, सम्पदा का पूँजीवादी सृजन जितने बड़े पैमाने पर होता है, सर्वहारा वर्ग की संख्या भी उतनी ज़्यादा बढ़ती है और साथ ही श्रम की उत्पादकता भी उसी अनुपात में छलाँगें मारते हुए बढ़ती है; नतीजतन, बेरोज़गारों की विशाल सेना का निर्माण भी उसी त्वरित गति से होता रहता है। जो कारक पूँजीवादी समृद्धि को द्रुत गति से विकसित करते हैं, ठीक वही कारक पूँजी की सेवा में श्रमशक्ति के विशाल रिज़र्व भण्डार को भी विकसित करते हैं। जिस गति से धनी वर्गों के हाथों धन-सम्पदा का विकास होता है, उसी ऊर्जा से औद्योगिक रिज़र्व सेना भी बढ़ती जाती है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 20 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

पूँजी के सान्‍द्रण की विपरीत गति भी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में मौजूद होती है। यह गति होती है पूँजियों के टूटने की और एक-दूसरे को विकर्षित करने की। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी घरानों या कम्‍पनियों को टूट जाना। उत्‍तराधिकारियों के बीच पूँजीवादी घरानों की सम्‍पत्ति का बँट जाना इसमें एक अहम कारक होता है। मिसाल के तौर पर, धीरूभाई अम्‍बानी के पूँजीवादी साम्राज्‍य का उसके दोनों बेटों के बीच विभाजित हो जाना, या इसी प्रकार घनश्‍यामदास बिड़ला के उत्‍तराधिकारियों में उसकी सम्‍पत्ति का बँट जाना, इसी के उदाहरण हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 19 : पूँजी का संचय

श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ पूँजीपति के लिए अपने उत्पादन के साधनों के हिस्सों को बदलना, उनकी मरम्मत करना, कच्चे माल व सहायक मालों की भरपाई करना भी सस्ता हो जाता है क्योंकि ये सारी चीज़ें सस्ती हो जाती हैं। न सिर्फ़ ये चीज़ें सस्ती हो जाती हैं, बल्कि इन चीज़ों की गुणवत्ता और प्रभाविता भी श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ बढ़ती जाती है। इसलिए वे पलटकर श्रम की उत्पादकता को और भी ज़्यादा बढ़ाती हैं। इसलिए ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधन पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में पहले से कम ख़र्च पर बदले जा सकते हैं और साथ ही वे उत्पादकता को और भी बढ़ाते हैं, क्योंकि उनकी प्रभाविता भी पहले से बढ़ती जाती है। यह सच है कि इसी प्रक्रिया में पहले से उत्पादन में लगी पूँजी का अवमूल्यन होता है। लेकिन यह अवमूल्यन आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के लिए प्रतिस्पर्द्धा की प्रक्रिया में होता है और इसलिए इसकी कीमत भी पूँजीपति श्रमशक्ति के शोषण की दर को बढ़ाकर मज़दूर वर्ग से ही वसूलता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 18 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के साथ, संचय और समृद्धि की वृद्धि के साथ, पूँजीपति महज़ पूँजी का अवतरण मात्र नहीं रह जाता। वह अपने भीतर के आदम के प्रति एक मानवीय ऊष्‍मा महसूस करने लगता है, और उसकी शिक्षा धीरे-धीरे उसे अपने पुराने वैराग्य भाव पर मुस्कराना सिखाती है, मानो वह किसी पुराने ज़माने के कंजूस का पूर्वाग्रह हो। जहाँ क्लासिकी किस्म का पूँजीपति व्यक्तिगत उपभोग को अपने प्रकार्य के विरुद्ध एक पाप मानता है, संचय करने से ‘परहेज़’ मानता है, वहीं आधुनिकीकृत पूँजीपति संचय को आनन्द के ‘त्याग’ के रूप में देखने में सक्षम होता है। ‘हाय, उसके दिल में बसती हैं दो आत्माएँ; और एक की दूसरे से नहीं बनती।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 17 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी पुनरुत्पादन में जिस प्रकार मज़दूर पूँजी का उत्पादन करता जाता है उसी प्रकार पूँजीपति श्रमशक्ति का उत्पादन करता जाता है। यह पूँजीवादी पुनरुत्पादन की पूर्वशर्त है। श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के बिना पूँजीवादी पुनरुत्पादन जारी नहीं रह सकता। वास्तव में, श्रमशक्ति का उत्पादन व पुनरुत्पादन पूँजीपति के सबसे प्रमुख उत्पादन के साधन का उत्पादन व पुनरुत्पादन है: यानी, स्वयं मज़दूर। श्रमशक्ति को ख़रीदकर पूँजीपति मज़दूर पर अहसान नहीं करता। उल्टे इसके ज़रिये उसे दो तरीके से फ़ायदा होता है। मज़दूरी के बदले में पूँजीपति मज़दूर से जो लेता है न सिर्फ़ उससे उसका मुनाफ़ा आता है, बल्कि पूँजीपति मज़दूर को जो देता है, उससे भी उसे फ़ायदा होता है। पूँजीपति द्वारा दी गयी मज़दूरी से मज़दूर अपने और अपने परिवार के जीवन के लिए आवश्यक उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदकर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन करता है। लेकिन मज़दूर का व्यक्तिगत उपभोग ही उसकी श्रमशक्ति के उत्पादक उपभोग को सम्भव बनाता है। यह उस सबसे ज़रूरी उत्पादन के साधन को पैदा करता है, जिसकी आवश्यकता पूँजीपति को है, यानी स्वयं मज़दूर जो कि उसके लिए उस श्रमशक्ति का वाहक मात्र है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 16 : मज़दूरी

हम मज़दूर पूँजीपति को श्रम नहीं बेचते हैं, बल्कि श्रमशक्ति बेचते हैं। पूँजीवादी समाज में यह दृष्टिभ्रम पैदा होता है कि हम अपना श्रम बेच रहे हैं और पूँजीपति हमें हमारी “मेहनत का मोल” या श्रम का मूल्य दे रहा है। यह विभ्रम पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की साज़िश से नहीं पैदा होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र स्वत: इस भ्रम को जन्म देता है और स्वयं पूँजीपति भी अधिकांशत: इस भ्रम से ग्रस्त होते हैं कि उन्होंने मज़दूरों को मेहनत का मोल दे दिया है। लेकिन यदि यह सच है और श्रम स्वयं एक माल है जिसे पूँजीपति मज़दूर से ख़रीदता है, तो श्रम का मूल्य कैसे पैदा होगा? ज़ाहिरा तौर पर उसी प्रकार जिस प्रकार एक पूँजीवादी माल उत्पादक समाज में किसी भी अन्य माल का मूल्य तय होता है, यानी, उस माल के उत्पादन में लगने वाले कुल सामाजिक श्रम की मात्रा से। लेकिन इसका एक बेतुका नतीजा निकलेगा: श्रम का मूल्य उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन में लगने वाले श्रम से तय होता है! यह नतीजा निकालते ही हम एक तार्किक दुष्चक्र में फँस जाते हैं : श्रम का मूल्य श्रम से तय होता है!

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 15 : सापेक्षिक बेशी मूल्य का उत्पादन

मशीनों के आने के साथ न सिर्फ कार्यदिवस पहले से लम्बा हो गया बल्कि श्रम की सघनता में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई। वजह यह थी कि अब उत्पादन प्रक्रिया में मौजूद छोटे-छोटे अन्तराल अब न्यूनातिन्यून होते जाते हैं। मज़दूर मशीन का विस्तार बन जाता है और निरन्तर काम करता रहता है। नतीजतन, पूँजीवाद के दौर में मशीन मज़दूर के काम को आसान बनाने की जगह उसे ज़्यादा श्रमसाध्य, थकाऊ और लम्बा बनाती है। केवल एक समाजवादी व्यवस्था में मशीनीकरण वास्तव में मज़दूर वर्ग के काम को अधिक से अधिक आसान, सुगम और छोटा बना सकती है। उस समय मशीन की गति और लय पर नियन्त्रण किसी शत्रु वर्ग का नहीं होता है, बल्कि स्वयं मज़दूर वर्ग का होता है। मज़दूर वर्ग के अलगाव के समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यदि वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ती है तो मशीनीकरण और उत्पादक शक्तियों में होने वाली हर तरक्की मज़दूर वर्ग के जीवन स्थितियों और कार्यस्थितियों को पहले से बेहतर बनाती जाती है। लेकिन पूँजीवाद में इसका ठीक उल्टा होता है, जैसा कि आज हम अपने चारों ओर देख सकते हैं।