क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-1
मज़दूरी के बारे में
– अभिनव
हम मज़दूर जानते हैं कि मज़दूरी की औसत दर में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन ये उतार-चढ़ाव एक निश्चित सीमा के भीतर होते हैं। इस लेख में हम समझेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरी में आने वाले उतारों-चढ़ावों के मूलभूत कारण क्या होते हैं और उसकी अन्तिम सीमाएँ कैसे निर्धारित होती है। लेकिन शुरुआत हम कुछ बुनियादी बातों से करेंगे।
उजरती मज़दूरी पूँजीवाद के अस्तित्व की बुनियादी शर्त है। पूँजी इसी के ज़रिए बेशी मूल्य को पैदा करती है और उसे हड़पती है जो कि पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत होता है। पूँजीपति अपना पूँजी निवेश दो हिस्सों में करता है: पहला, मशीनों, कच्चे माल, अवरचना आदि, जिसे हम स्थिर पूँजी कहते हैं; दूसरा, मज़दूरों को भाड़े पर रखने के लिए, यानी मज़दूरों की श्रमशक्ति ख़रीदने के लिए, जिसे हम परिवर्तनशील पूँजी कहते हैं।
मशीनें, कच्चा माल, आदि अपने आप माल का उत्पादन नहीं करते हैं। केवल जीवित श्रम, यानी काम करने वाले मज़दूर ही, इन मशीनों व कच्चे माल आदि के उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया को अंजाम देते हैं जिसके नतीजे के तौर पर माल का उत्पादन होता है। माल के मूल्य में मशीनों, कच्चे माल आदि पर हुआ निवेश, यानी मशीनों, कच्चे माल आदि का मूल्य ज्यों का त्यों स्थानान्तरित हो जाता है। यह अपने आप में कोई नया मूल्य नहीं पैदा कर सकता है। इसीलिए इन पर होने वाले निवेश को स्थिर पूँजी कहा जाता है।
मज़दूर अपने पूरे दिन के कार्यकाल के एक हिस्से में अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करता है, जिसके इर्द-गिर्द मूल्य के बराबर मज़दूरी आम तौर पर उसे पूँजीपति देता है। मज़दूरी श्रमशक्ति की माँग व आपूर्ति के सम्बन्धों और मज़दूर वर्ग द्वारा अपनी मज़दूरी को बढ़ाए जाने के लिए किए जाने वाले वर्ग संघर्ष के अनुसार श्रमशक्ति के मूल्य के ऊपर या नीचे हो सकती है। उपरोक्त कारकों पर निर्भर रहते हुए मज़दूरी की दर में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।
बहरहाल, मज़दूर अपने कार्यदिवस यानी दिन के काम के घण्टों के दूसरे हिस्से में पूँजीपति वर्ग के लिए बेशी मूल्य पैदा करता है, जो कि पूँजीपति को मुफ्त में बिना किसी अतिरिक्त निवेश के प्राप्त होता है। फिर भी पूँजीपति वर्ग के आर्थिक नज़रिये से मज़दूर के साथ कोई धोखा नहीं हुआ होता है! पूँजीवाद का नियम है कि समतुल्यों का विनिमय होता है, यानी सामान्य नियम के तौर पर मूल्य में बराबर मालों का ही विनिमय होता है। लेकिन यदि पूँजीपति मज़दूर से जितना लेता है उतना ही वापस मज़दूरी के रूप में देता है, तो फिर पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा कहाँ से आता है? इसी बात को मार्क्स के पहले पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री नहीं समझ पाए थे। मार्क्स ने पहली बार इसे समझा और बताया कि पूँजीपति मज़दूर से उसका श्रम नहीं ख़रीदता बल्कि श्रमशक्ति (यानी एक निश्चित अवधि में काम करने की उसकी क्षमता) को ख़रीदता है, जो कि पूँजीवादी समाज में स्वयं एक माल में तब्दील हो चुकी होती है। हर कोई जानता है कि, सामाजिक तौर पर, एक उत्पादक एक दिन में अपने जीवन के पुनरुत्पादन के लिए जरूरी वस्तुओं से बेशी पैदा कर सकता है। अगर ऐसा न होता तो समाज में कभी वर्ग और वर्ग विभाजन पैदा ही नहीं होता। 18वीं और 19वीं सदी के पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री भी इस सच्चाई को जानते थे कि एक उत्पादक अपने जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक वस्तुओं से बेशी उत्पादन करता है। इसलिए पूँजीपति जब मज़दूर से उसकी श्रमशक्ति ख़रीदता है, जिसका मूल्य श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं के मूल्य से निर्धारित होता है, तो वह उसको उसकी श्रमशक्ति का मूल्य ही देता है। इस रूप में समतुल्यों का ही विनिमय हुआ है और मज़दूर के शोषण की व्याख्या किसी प्रकार के “धोखे” या “चोरी” के रूप में नहीं की जा सकती। लेकिन एक मज़दूर की श्रमशक्ति एक कार्यदिवस में ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करती है। दूसरे शब्दों में, एक श्रमशक्ति जितने श्रम के ख़र्च से पैदा होती है, अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में वह उससे ज़्यादा श्रम मुहैया करती है।
इसलिए मज़दूर अपने कार्यदिवस के एक हिस्से में अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए काम करता है जिसे हम आवश्यक श्रमकाल कहते हैं, जबकि दूसरे हिस्से में वह पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य का उत्पादन करता है, जिसे हम अतिरिक्त श्रमकाल कहते हैं। आवश्यक श्रमकाल के दौरान काम करने की एवज़ में मज़दूर को मज़दूरी मिलती है जबकि अतिरिक्त श्रमकाल में काम की एवज़ में उसे कुछ नहीं मिलता और उसका बेशी उत्पाद पूँजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है जो कि बिकने पर बेशी मूल्य का रूप ग्रहण कर लेता है और पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत होता है। यह है पूँजीपति के मुनाफ़े के स्रोत का घृणित क्षुद्र रहस्य। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरी ‘एक दिन में दिये गये श्रम की कीमत’ का रूप लेती है और पूँजीवादी शोषण की छिपाती है क्योंकि आवश्यक और अतिरिक्त श्रमकाल समय और जगह में अलग-अलग नहीं हो रहे होते हैं, बल्कि वे एक ही एक कार्यदिवस का निरन्तरतापूर्ण अंग होते हैं। इसलिए ऐसा दिखता है कि मज़दूर को ‘एक दिन की मेहनत की कीमत’ अदा की गयी है। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरी का यह स्वरूप मज़दूर के शोषण को छिपाता है और पूँजीवादी शोषण पर पर्दा डालता है। असल में, मज़दूर अपनी श्रमशक्ति बेचता है और बदले में आवश्यक श्रमकाल में अपनी श्रमशक्ति के बराबर मूल्य का भी उत्पादन करता है और अतिरिक्त श्रमकाल में पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य का भी उत्पादन करता है, जो कि पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत होता है।
यानी, मज़दूर के कार्यदिवस के दो हिस्से होते हैं जिसमें से एक में मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा होता है, तो दूसरे में मुनाफा। मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग लगातार इस नये पैदा होने वाले मूल्य में अपना हिस्सा बढ़ाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। मज़दूर वर्ग अपनी मज़दूरी बढ़ाने का प्रयास करता है जबकि पूँजीपति वर्ग विभिन्न तरीकों से मज़दूरी के सापेक्ष मुनाफे का हिस्सा बढ़ाने का प्रयास करता है। पूँजीपति वर्ग ऐसा कार्यदिवस को लम्बा करके भी करता है (जिसकी एक भौतिक सीमा होती है) जिसे हम निरपेक्ष बेशी मूल्य कहते हैं, और ऐसा वह श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को कम करके भी करता है, जिससे कि कुल श्रमकाल तो उतना ही रहता है, लेकिन उसमें आवश्यक श्रमकाल, यानी मज़दूर जिसमें ‘अपने लिए’ काम करता है, का हिस्सा सापेक्षत: घट जाता है और नतीजतन अतिरिक्त श्रमकाल का हिस्सा बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप बेशी मूल्य की दर भी बढ़ जाती है। इस दूसरे तरीके को हम सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य कहते हैं। जैसे-जैसे पूँजीवाद उन्नत होता है, सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य द्वारा बेशी मूल्य बढ़ाने की पद्धति ज़्यादा प्रमुख बनती जाती है। इस प्रकार से बेशी मूल्य को तब बढ़ाया जा सकता है जबकि मज़दूर वर्ग की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं को पैदा करने वाले उद्योगों में, यानी मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों में, उत्पादकता बढ़ती है, लागत घटती है और नतीजतन औसत कीमत नीचे आती है। जब मज़दूरी-उत्पादों की कीमतें नीचे आती हैं तो मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य भी कम होता है और पूँजीपति वर्ग उसकी मज़दूरी को घटा सकता है (भले ही यह कमी हमेशा रुपये की मात्रा में नज़र न आये)। इसलिए पूँजीपति वर्ग हमेशा श्रमशक्ति के मूल्य को कम करना चाहता है, मज़दूरी-उत्पादों की कीमतों को नियन्त्रित रखना चाहता है। यह दीगर बात है कि अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजक गति के कारण यह ज़रूरी नहीं होता कि वह हमेशा ऐसा कर ही पाये।
आम तौर पर एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति के रूप में पूँजीवाद हर माल के ही मूल्य को घटाता है क्योंकि यह मुनाफ़े की ख़ातिर उत्पादकता का विकास करता जाता है। पूँजीपति वर्ग की आन्तरिक प्रतिस्पर्द्धा और पूँजीपति वर्ग व मज़दूर वर्ग के बीच की प्रतिस्पर्द्धा इस बात को सुनिश्चित करती है। बचकानी सोच रखने वाले कुछ लोगों को लगता कि पूँजीपति वर्ग कीमतें बढ़ाकर मुनाफ़ा बढ़ाता है! सच्चाई यह है कि पूँजीपति वर्ग जिस प्रक्रिया से मुनाफ़े को बढ़ाने का प्रयास करता है, ठीक वही प्रक्रिया श्रम की उत्पादकता का विकास करती है और ऐतिहासिक तौर पर सभी मालों के प्रति इकाई मूल्य को घटाती है और कीमतें लम्बी दूरी में इस सामाजिक मूल्य के इर्द-गिर्द ही मण्डराती हैं। लेकिन महँगाई की दर केवल सभी मालों के घटते मूल्य से निर्धारित नहीं होती है, बल्कि सभी मालों व सेवाओं के मूल्य व मज़दूर वर्ग तथा आम मेहनतकश जनता की औसत आय के स्तर के आपसी सम्बन्ध से तय होती है। इन दोनों के सम्बन्ध के आधार पर ही मज़दूर व आम मेहनतकश की वास्तविक आय और महँगाई की वास्तविक दर का पता चलता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजक गति के कारण पूँजीवाद में ऐसे दौर होते हैं जबकि वास्तविक महँगाई बेहद बढ़ जाती है। ऐसा एक दौर आज हम अपने सामने देख रहे हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था में महँगाई के सामान्य और विशिष्ट, दूरगामी और तात्कालिक कारणों के विषय में हमने मौजूदा सम्पादकीय में तुलनात्मक रूप से विस्तार में चर्चा की है और हम अलग से आगे के अंकों में इस पर और विस्तार से लिखेंगे। लेकिन अभी इतना समझ लेना काफ़ी होगा कि क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग अपने विज्ञान यानी मार्क्सवाद के विश्लेषण के उपकरणों से महँगाई की परिघटना को समझता है और यह जानता है कि महँगाई के विश्लेषण में मूलभूत कारणों के लिए हम उत्पादन के क्षेत्र पर केन्द्रित करते हैं, सर्कुलेशन यानी मालों के संचरण (उनके बेचने-खरीदने की प्रक्रिया) पर नहीं। सर्कुलेशन में होने वाले परिवर्तन उत्पादन के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों से निर्धारित होते हैं। वे पलटकर उत्पादन के क्षेत्र को प्रभावित ज़रूर करते हैं लेकिन अन्तिम विश्लेषण में यह उत्पादन का क्षेत्र है जो कि निर्धारक भूमिका निभाता है।
इसलिए महँगाई का कारण कुछ इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार कीमतों के ज़रिए वसूला जा इजारेदार लगान नहीं है क्योंकि वह समूची अर्थव्यवस्था में मूल्य के कुल उत्पादन को प्रभावित नहीं करता और जितना मूल्य पैदा होता है, पूरी अर्थव्यवस्था के पैमाने पर उतना ही मूल्य विनिमय की प्रक्रिया यानी क्रय-विक्रय के ज़रिए वास्तवीकृत होता है। तात्कालिक तौर पर भी देखें, तो महँगाई के लिए महज़ इजारेदार पूँजीपति वर्ग ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि मुनाफाखोर पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों, जमाखोर व्यापारियों-आढ़तियों-बिचौलियों, छोटे व मँझोले पूँजीपतियों व बड़े इजारेदार व गैर-इजारेदार पूँजीपतियों समेत समूचा पूँजीपति वर्ग ही जिम्मेदार है। जब भी आर्थिक संकट के कारण और/या कोविड या युद्ध जैसे बाह्य झटकों के कारण सभी मालों व सेवाओं की आपूर्ति श्रृंखलाएँ टूटती और बाधित होती हैं, तो जमाखोरी, सट्टेबाज़ी और ऊँची कीमतों पर बिक्री के ज़रिए मज़दूरों और मेहनतकश आबादी को लूटने का काम यह पूरा पूँजीपति वर्ग मिलकर करता है। लेकिन बाज़ार में ऊँची कीमतों पर बिक्री, मालों की जमाखोरी व उनकी कीमतों की सट्टेबाज़ी के पीछे जो मूलभूत कारण होते हैं उन्हें हमें उत्पादन के क्षेत्र में ढूँढना चाहिए। आज के दौर में महँगाई में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के मामले में भी, पूँजीवादी व्यवस्था के अराजक चरित्र और पूँजीपति वर्ग के मुनाफाखोर चरित्र के कारण उत्पादन के क्षेत्र में आये झटके, यानी आपूर्ति श्रृंखलाओं का बाधित होना, ही मूलभूत कारण है। यह कुछ बदमाश इजारेदारों, दुकानदारों, व्यापारियों आदि की चाल नहीं है। यह उनकी वर्ग प्रवृत्ति होती है कि हर ऐसे मौके पर वे आपदा को अपने लिए अवसर में बदलते हैं।
साथ ही, कुल नये उत्पादित मूल्य में मुनाफे का हिस्सा बढ़ना अपने आप में मज़दूरों की औसत मज़दूरी में कमी और महँगाई के लिए जिम्मेदार नहीं होता है। यह बिल्कुल सम्भव है कि तेज़ी के दौर में समूचा उत्पादन ही बढ़े, मुनाफे की मात्रा और दर तेज़ी से बढ़े और मज़दूरी की मात्रा और दर भी बढ़े और इसके बावजूद नये उत्पादित मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर घट जाये। इसका उल्टा भी सम्भव है। यह भी सम्भव है कि उत्पादन ठहरावग्रस्त हो, मज़दूर आन्दोलन मज़बूत हो और मज़दूर अपने वर्ग संघर्ष के बूते मज़दूरी की मात्रा, दर और नये उत्पादित मूल्य में उसके हिस्से को बढ़ाने में कामयाब हो जाएँ। इसका उल्टा भी सम्भव है। यह भी सम्भव है कि उत्पादन मन्दी के कारण घट रहा हो, पूँजीपति अपने मुनाफे की दर, मात्रा और नये उत्पादित मूल्य में उसके हिस्से को बढ़ाने में कामयाब हो जाएँ। इतना तय है कि यदि उत्पादन स्थिर रहता है या घटता है, तो नये उत्पादित मूल्य में मुनाफे के हिस्से में होने वाली किसी भी बढ़ोत्तरी का अर्थ होगा मज़दूरी की दर, मात्रा और नये उत्पादित मूल्य में उसके हिस्से, तीनों में ही गिरावट और बाज़ार कीमतों में बढ़ोत्तरी या उनके स्थिर रहने की सूरत में या उसमें अपेक्षाकृत कम दर से गिरावट की सूरत में इसका अर्थ होगा मज़दूरों-मेहनतकशों की औसत वास्तविक आय में कमी और उनके लिए वास्तविक महँगाई में बढ़ोत्तरी।
अब मज़दूरी में आने वाले उतारों-चढ़ावों के मूलभूत कारणों के प्रश्न पर आते हैं क्योंकि वास्तविक महँगाई और वास्तविक आय का आकलन केवल मालों व सेवाओं की बाज़ार कीमतों के आधार पर नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह औसत मज़दूरी दर के साथ उसके आकलन के आधार पर ही किया जा सकता है। बाज़ार कीमतें लम्बी दूरी में उत्पादन कीमतों के इर्द-गिर्द ही मण्डराती हैं और उत्पादन कीमतें अन्तत: मालों व सेवाओं के उत्पादन में लगने वाले सामाजिक श्रम से ही निर्धारित होती हैं। (उत्पादन कीमतों की अवधारणा को समझने के लिए मौजूदा अंक का सम्पादकीय पढ़ें)
मज़दूरी हमेशा श्रमशक्ति के बराबर ही नहीं रहती है। पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक ‘मज़दूरी का लौह नियम’ पैदा हुआ था जिसका मानना था कि मज़दूरी हमेशा उस स्तर पर निर्धारित रहती है, जिस स्तर पर मज़दूर बस अपने श्रमशक्ति का बमुश्किल पुनरुत्पादन कर सकता है। लेकिन मार्क्स ने बताया कि मज़दूर वर्ग अपने शोषण के प्रति उदासीन या निष्क्रिय नहीं रहता, बल्कि उसके विरुद्ध संघर्ष करता है। इसके साथ ही, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दौरों, यानी तेज़ी, मन्दी व ठहराव के अनुसार, दूसरे शब्दों में मुनाफे की औसत दर की गति के अनुसार, निवेश की दरें बदलती हैं, रोज़गार की दर बदलती है और श्रमशक्ति की माँग और आपूर्ति में फर्क आता है। इसके साथ भी, मज़दूरी की दर में उतार-चढ़ाव आता है और वह श्रमशक्ति के मूल्य से ऊपर या नीचे जा सकती है। ये वे दो प्रमुख कारक हैं जिनके मिश्रित प्रभाव से मज़दूरी की औसत दर में उतार-चढ़ाव आता रहता है। लेकिन इन कारकों द्वारा भी मज़दूरी कितनी भी ऊपर या कितनी भी नीचे नहीं जा सकती है। दूसरे शब्दों में, इन कारकों के चलते मज़दूरी की औसत दर में आने वाला उतार-चढ़ाव कुछ सीमाओं के अन्दर ही होता है। वे सीमाएँ क्या हैं? आइये समझते हैं।
हमने ऊपर देखा कि एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति के रूप में पूँजीवाद श्रमशक्ति समेत सभी मालों के सामाजिक मूल्य को घटाता है। हमने यह भी देखा कि वास्तविक महँगाई की दर मज़दूरी और मालों की बाज़ार कीमतों के बीच के सम्बन्ध से निर्धारित होती है। और हमने यह भी देखा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजक गति और पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी के कारण आर्थिक संकट व किसी महामारी या युद्ध के बाह्य झटकों के दौर में महँगाई काफ़ी तेज़ी से बढ़ती है और मज़दूर वर्ग की वास्तविक मज़दूरी दर में भारी कमी भी आती है। अन्तत:, हमने यह भी देखा कि पूँजी संचय के विशिष्ट दौर (तेज़ी, मन्दी, ठहराव) के अनुसार और साथ ही मज़दूर वर्ग के वर्ग संघर्ष के असर से मज़दूरी श्रमशक्ति के मूल्य के ऊपर या नीचे जा सकती है। लेकिन एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति के रूप में मज़दूरी श्रमशक्ति के मूल्य के इर्द-गिर्द ही मण्डराती रहती है।
पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफे की दर को अधिकतम सम्भव बढ़ाने के लिए हमेशा मज़दूरी को न्यूनतम स्तर पर रखने का प्रयास करता है, जबकि मज़दूर वर्ग अपने संगठित आर्थिक संघर्षों के ज़रिए हमेशा मज़दूरी को बढ़ाने के लिए लड़ता है। यह नये उत्पादित मूल्य में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का संघर्ष होता है। तात्कालिक तौर पर यह संघर्ष ही मज़दूरी और मुनाफ़े के बीच सापेक्षिक सम्बन्ध को निर्धारित करता है। लेकिन आम तौर पर मज़दूरी कभी भी दीर्घकाल के लिए श्रमशक्ति के मूल्य के नीचे नहीं रह सकती है। यदि मज़दूर वर्ग एक वर्ग के तौर पर अपनी श्रमशक्ति को ही पुनरुत्पादित नहीं कर पायेगा तो वह मूल्य और बेशी मूल्य के उत्पादन के लिए निरन्तर काम करने योग्य ही नहीं रहेगा और पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफ़ा पैदा ही नहीं हो सकेगा। यही कारण था कि पूँजीपति वर्ग के दीर्घकालिक साझे वर्ग हितों की नुमाइन्दगी करने वाली पूँजीवादी राज्यसत्ता ने उन्नीसवीं सदी में इंग्लैण्ड में और तमाम देशों में कार्यदिवस की लम्बाई और एक न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करने का काम किया क्योंकि अलग-अलग वैयक्तिक पूँजीपति अपनी प्रकृति से ही पूँजीपति वर्ग के दूरगामी साझे वर्ग हित के विषय में सोच पाने में आम तौर पर अक्षम होते हैं। बाज़ार की गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा उन्हें इसकी इजाज़त नहीं देती है। श्रमशक्ति के भौतिक पुनरुत्पादन की यह अनिवार्य शर्त वह भौतिक सीमा है जिससे नीचे मज़दूरी की औसत दर लम्बे समय तक नहीं रह सकती है।
लेकिन मज़दूर वर्ग भी अपने वर्ग संघर्ष के ज़रिए मज़दूरी को असीम रूप से नहीं बढ़ा सकता है। यदि मज़दूरी की औसत दर इस हद तक बढ़ती है कि वह पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को इतना नीचे कर दे कि पूँजी संचय की प्रक्रिया ही ठहरावग्रस्त हो जाये, तो पूँजीपति वर्ग ‘निवेश हड़ताल’ पर चला जायेगा, यानी अपने निवेश को कम कर देगा। जब वह अपने निवेश को कम करता है, तो रोज़गार की दर में कमी आती है, बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व सेना में रोज़गारशुदा मज़दूरों की सक्रिय सेना के सापेक्ष बढ़ोत्तरी होती है, श्रमशक्ति की आपूर्ति उसकी माँग की तुलना में बढ़ जाती है और मज़दूरी की औसत दर वापस नीचे जाती है, ताकि पूँजी संचय की प्रक्रिया सुचारू रूप से बहाल हो सके। यानी, पूँजी संचय की प्रक्रिया और उसकी निरन्तरता मज़दूरी की औसत दर के बढ़ने की ऊपरी सीमा को निर्धारित करती है।
इसलिए मज़दूरी की औसत दर पूँजीवादी व्यवस्था में इन दो सीमाओं के भीतर गति करती है। इस गति का कारण पूँजीवाद के संचय के विशिष्ट दौर यानी तेज़ी, मन्दी या ठहराव के कारण श्रमशक्ति की माँग और आपूर्ति के बदलते समीकरण और मज़दूर वर्ग व पूँजीपति वर्ग के बीच नये उत्पादित मूल्य में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए जारी वर्ग संघर्ष होता है। लेकिन इन दोनों ही कारकों के कारण मज़दूरी की औसत दर में जो उतार-चढ़ाव होते हैं, वे उपरोक्त दो सीमाओं के भीतर ही होते हैं। कुल मिलाकर, यह पूँजी संचय की समूची गति ही होती है जो कि मज़दूरी में आने वाले उतारों-चढ़ावों के लिए सीमाओं का निर्धारिण करती है और एक पूँजीवादी व्यवस्था में यही हो सकता है। इसलिए मज़दूरी के लिए किया जाने वाला संघर्ष निश्चय ही मज़दूर वर्ग के लिए अनिवार्य है लेकिन यह अपने आप में मज़दूर वर्ग के संघर्ष का आखिरी सीमान्त नहीं है। मज़दूर वर्ग का राजनीतिक लक्ष्य मज़दूरी को बढ़ाना या सभी की मज़दूरी को बराबर कर देना नहीं है बल्कि मज़दूरी-व्यवस्था को ही समाप्त करना है। मज़दूरी को बढ़ाने के लिए सतत् जारी संघर्ष को भी इस राजनीतिक लक्ष्य के लिए संघर्ष का एक अंग बनाना हमारे लिए अनिवार्य है अन्यथा वह एक अर्थवादी संघर्ष होगा जो हमारे राजनीतिक लक्ष्य से हमें काट देगा, राजनीतिक रूप से सोचने और राजनीतिक प्रश्न उठाने यानी राज्यसत्ता का प्रश्न उठाने की क्षमता से हमें वंचित कर देगा। पूँजीपति वर्ग यही चाहता है। जो ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग की आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष को अर्थवादी स्वरूप देकर मज़दूर वर्ग का अराजनीतिकरण करती हैं, वे पूँजीवादी ट्रेड यूनियनें हैं जो कि मज़दूर वर्ग की समूची गतिविधि को पूँजीवादी दायरों के भीतर कैद रखना चाहती हैं। भारत में सभी संसदीय वामपंथी चुनावबाज़ पार्टियों जैसे माकपा, भाकपा, भाकपा माले लिबरेशन आदि तथा अन्य पूँजीवादी पार्टियों की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें जैसे कि सीटू, एटक, इण्टक व ऐक्टू यही काम करती हैं।
हम मज़दूरों को मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को समझना चाहिए। इस मज़दूरी-व्यवस्था के मूल में उत्पादन के साधनों व उपभोग के साधनों से प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग का वंचित होना और इन पर पूँजीपति वर्ग का एकाधिकार होना है। उत्पादन के साधनों से इस अलगाव के कारण ही मज़दूर वर्ग अपनी श्रमशक्ति को पूँजीपतियों को बेचने के लिए मजबूर होता है। जब तक यह उत्पादन सम्बन्ध बना रहेगा तब तक मज़दूरी की व्यवस्था यानी मज़दूरी-सम्बन्ध व पूँजी-सम्बन्ध बने रहेंगे। मज़दूर वर्ग का राजनीतिक लक्ष्य इस व्यवस्था को समाप्त कर सर्वहारा वर्ग के शासन और समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना है जिसमें सभी कल-कारखाने, खान-खदान व खेत-खलिहान पूँजीपति वर्ग से छीनकर सार्वजनिक सम्पत्ति में तब्दील कर दिये जाएँगे और मज़दूर वर्ग अपनी पार्टी के नेतृत्व में अपनी राज्यसत्ता के ज़रिए सभी आवश्यक चीज़ों का योजनाबद्ध तरीके से उपयुक्त मात्रा में उत्पादन और वितरण करेगा। ऐसा समाज मुट्ठी भर पूँजीपतियों के मुनाफे को केन्द्र में रखकर सामाजिक उत्पादन नहीं करेगा, बल्कि समाज की आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन और वितरण करेगा। केवल तभी हम मज़दूर मुक्त हो सकते हैं और समूची मानवता को पूँजीवाद-रूपी इस बुड्ढी मुर्गी से मुक्त कर सकते हैं जो दुनिया को युद्ध, ग़रीबी, बेरोज़गारी, पर्यावरणीय तबाही, भुखमरी, अशिक्षा और अपसंस्कृति के घटाटोप जैसे सड़े हुए अण्डों के अलावा कुछ नहीं दे सकती है। इस व्यवस्था की जगह इतिहास की कचरा-पेटी है और और इसे इस कचरा-पेटी के हवाले करने का काम केवल सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में व्यापक मेहनतकश जनता कर सकती है।
मज़दूर बिगुल, जून 2022
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