Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

याकूब मेमन की फांसी का अन्‍धराष्‍ट्रवादी शोर – जनता का मूल मुद्दों से ध्‍यान भटकाने का षड्यंत्र

सरकार ने अपने जिन हितों के लिए याकूब को फांसी पर लटकाया वे हित पूरा होते दिख रहे हैं। लोग महंगाई, बेरोजगारी, जनता के लिए बजट में कटौती आदि को भूलकर याकूब को फांसी देने पर सरकार और न्‍याय व्‍यवस्‍था की पीठ ठोंकने में लग गये हैं। इस मुद्दे से जो साम्‍प्रदायिकता की लहर फैली उसको देखते हुए भी कहा जा सकता है सरकार एक बार फिर ‘बांटो और राज करो’ की नीति को कुशलता से लागू करने में कामयाब रही। इस मुद्दे को साम्‍प्रदायिक रंग देने में सरकार ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यह जरूरी है कि इस फांसी के पीछे के सामाजिक-राजनीतिक कारणों और इसपर हुई विभिन्‍न प्रतिक्रियाओं के कारणों को समझ लिया जाय।

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के खजूरी इलाक़े में साम्प्रदायिक माहौल बनाने में फि़र सक्रिय हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

इस कॉलोनी के लोगों ने पहलक़दमी दिखाते हुए ईद वाले दिन आरएसएस द्वारा शाखा ग्राउण्ड में न लगने और सुरक्षा की माँग को लेकर दिल्ली पुलिस के कमिश्नर से मुलाक़ात की थी; लेकिन उनकी तरफ़ से भी इस सम्बन्ध में कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है। जबकि राजनीतिक दबाव के चलते इलाक़े के एसएचओ और डीसीपी ने साफ़ कहा कि ईद पर भी आरएसएस के लोग ज़रूर आयेंगे और प्रशासन उन्हें नहीं रोकगा। उनके मुताबिक़ ग्राउण्ड में शाखा लगने के बाद नमाज हो जायेगी। यहाँ बता दें कि पिछले साल ईद (बकराईद) पर भी यही तय हुआ था; लेकिन आरएसएस के लोगों ने तय समय में ग्राउण्ड ख़ाली नहीं किया, इस पर मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग भड़क गये थे और आरएसएस के लोगों से थोड़ी-सी झड़प हो गयी थी। आरएसएस के लोगों ने मुस्लिम समुदाय पर मार-पीट के कई झूठे केस दर्ज करा दिये और फिर इस घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया। इस बार भी दो समुदाय के लड़कों के मामूली झगड़े को साम्प्रदायिक बनाने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि अब इसमें यहाँ के मुस्लिम कट्टरपन्थी भी पीछे नहीं हैं। ऐेसे में काफ़ी आशंका है कि इस बार भी ईद वाले दिन साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हो।

“अच्छे दिनों” की असलियत पहचानने में क्या अब भी कोई कसर बाक़ी है?

16 मई को सत्ता में आने के ठीक पहले अपने ख़र्चीले चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का नारा था, “बहुत हुई महँगाई की मार–अबकी बार मोदी सरकार!” उस नारे का क्या हुआ? दुनिया भर में तेल की कीमतों में आयी भारी गिरावट के बावजूद पहले तो मोदी सरकार ने उस अनुपात में तेल की कीमतों में कमी नहीं की; और जो थोड़ी-बहुत कमी की थी अब उससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी कर दी है। नतीजतन, हर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ महँगी हो गयी है। आम ग़रीब आदमी के लिए दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। मोदी सरकार का नारा था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जायेगा! लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार के अब तक के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया! ऐसे तमाम टूटे हुए वायदों की लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जो अब चुटकुलों में तब्दील हो चुके हैं और लोग उस पर हँस रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के मुँह से “मित्रों…” निकलते ही बच्चों की भी हंसी निकल जाती है। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे धोखेबाज़, भ्रष्ट मदारियों को देश की जनता ने किस प्रकार चुन लिया?

दूसरे विश्वयुद्ध के समय हुए सोवियत-जर्मन समझौते के बारे में झूठा प्रोपेगैण्डा

1939 के साल में जब जर्मनी, इटली और जापान की मुख्य शक्तियाँ दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध की तरफ़ खींचने के लिए जीजान से लगी हुई थीं, तो फासीवादी हमलों को रोकने और फासीवादी हमलों के साथ निपटने के लिए सोवियत यूनियन ने छह बार ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका को आपसी समझौते के लिए पेशकशें कीं, लेकिन साम्राज्यवादियों ने लगातार इन अपीलों को ठुकराया। दूसरी और इन देशों में जनमत और ज़्यादा से ज़्यादा सोवियत यूनियन के साथ समझौता करने के पक्ष में झुकता जा रहा था। अप्रैल, 1939 में ब्रिटेन में हुए एक मतदान में 92 प्रतिशत लोगों ने सोवियत यूनियन के साथ समझौते के पक्ष में वोट दिया। आखि़र 25 मई, 1939 को ब्रिटेन और फ़्रांस के हुक्मरानों को सोवियत यूनियन से बातचीत शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन यह बातचीत दिखावे की थी, फ़्रांस और ब्रिटेन का सोवियत यूनियन से समझौता करने का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि बातचीत के लिए भेजे गये प्रतिनिधिमण्डल के पास कोई भी समझौता करने की अधिकारिक शक्ति ही नहीं थी और न ही फ़्रांस और ब्रिटेन सोवियत यूनियन के साथ आपसी सैन्य सहयोग की धारा को जोड़ने के लिए तैयार थे। निष्कर्ष के तौर पर 20 अगस्त, 1939 को बातचीत टूट गयी

शहीद मेले में अव्यवस्था फैलाने, लूटपाट और मारपीट करने की धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों और उनके गुण्डा गिरोहों की हरकतें

इतना तय है कि ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादियों से सड़कों पर मोर्चा लेकर ही काम किया जा सकता है। इनसे भिडंत तो होगी ही। जिसमें यह साहस होगा वही भगतसिंह की राजनीतिक परम्परा की बात करने का हक़दार है, वर्ना गोष्ठियों-सेमिनारों में बौद्धिक बतरस तो बहुतेरे कर लेते हैं

पंजाब में क्रान्तिकारी जन संगठनों द्वारा साम्प्रदायिकता विरोधी जन सम्मेलन का आयोजन

वक्ताओं ने कहा कि सभी धर्मों के साथ जुड़ी साम्प्रदायिकता जनता की दुश्मन है और इसके खिलाफ़ सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी ताकतों को आगे आना होगा। मज़दूरों, किसानों और अन्य मेहनतक़शों, नौजवानों, विद्यार्थियों, औरतों के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के लिए किया गया जुझारू आन्दोलन ही हर तरह की साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला कर सकता है। धर्म जनता का निजी और दूसरे दर्जे का मसला है। जनता को वर्गीय आधार पर न कि धर्म के आधार पर एक होना चाहिए और लुटेरे वर्गों के खिलाफ़ वर्ग संघर्ष करना चाहिए।

कॉरपोरेट जगत की तिजोरियाँ भरने के लिए जनहित योजनाओं की बलि चढ़ाने की शुरुआत

मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी मौजूदा भाजपा सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों को आवण्टित की जाने वाली धनराशि में कटौती करने का सिलसिला जारी है। यूपीए सरकार के समय से ही पिछले तीन-चार सालों में मनरेगा के लिए दिये जाने वाले बजट में कटौती की जा रही है, लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद इस कटौती में और तेज़ी आ गयी है।

अमेरिका व भारत की “मित्रता” के असल मायने

इस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के काले बादल छाये हुए हैं जो दिन-ब-दिन सघन से सघन होते जा रहे हैं। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और भारत भी इस संकट में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को अपनी दैत्याकार पूँजी के लिए बड़े बाज़ारों की ज़रूरत है। इस मामले में भारत उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिकी पूँजीपति भारत में अधिक से अधिक पैर पसारना चाहते हैं ताकि आर्थिक मन्दी के चलते घुटती जा रही साँस से कुछ राहत मिले। इधर भारतीय पूँजीवाद को आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। विदेशों से व्यापार के लिए इसे डॉलरों की ज़रूरत है। भारत में पूँजीवाद के तेज़ विकास के लिए भारतीय हुक्मरान आधारभूत ढाँचे के निर्माण में तेज़ी लाना चाहते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग यहाँ उन्नत तकनोलॉजी, ऐशो-आराम का साजो-सामान आदि और बड़े स्तर पर चाहता है। इस सबके लिए इसे भारत में विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने लम्बे समय से लटके हुए परमाणु समझौते को अंजाम तक पहुँचाने का दावा किया है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यह समझौता कर रही थी तो भाजपा ने इसके विरोध का ड्रामा किया था और कहा था कि उसकी सरकार आने पर यह समझौता रद्द कर दिया जायेगा। जैसीकि उम्मीद थी, अमेरिका से परमाणु समझौता पूरा कर लेने का दावा करके भाजपा ने अपना थूका चाट लिया है।

ऐसे तैयार की जा रही है मज़दूर बस्तियों में साम्प्रदायिक तनाव की ज़मीन!

उत्तर-पश्चिमी दिल्ली  की मज़दूर बस्तियों में संघ परिवार बड़े ही सुनियोजित ढंग से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तनाव को गहरा बनाने के लिए काम कर रहा है। हाल के एक वर्ष के दौरान मज़दूर इलाक़ों के लगभग सभी पार्कों में संघ की शाखाएँ लगने लगी हैं और झुग्गी  बस्तियों के मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने का काम लगातार जारी है। इन हिन्दुतत्ववादियों के गिरोहों में छोटे ठेकेदारों, दलालों, दुकानदारों, मकान मालिकों के परिवारों के युवाओं के अतिरिक्त मज़दूर बस्तियों के लम्पट और अपराधी तत्व भी शामिल होते हैं।

कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश

कोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।