भारतीय उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक उभार और मज़दूर वर्ग
साम्प्रदायिकता की इस नयी लहर के उफ़ान पर होने से बुर्जुआ राजनीति के सभी चुनावी मदारियों के चेहरे चमक उठे हैं क्योंकि उनको बैठे-बिठाये एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसके सहारे वे अपनी डूबती नैया को बचाने की आस लगा रहे हैं। कोई हिन्दुओं का हितैषी होने का दम भर रहा है तो कोई मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा कर रहा है और जो ज्यादा शातिर हैं वो धर्मनिरपेक्षता की गोट फेंक अपना हित साध रहे हैं। क़िस्म-क़िस्म के घपलों-घोटालों में आकण्ठ डूबी कांग्रेस को अपनी लूट-पाट से लोगों का ध्यान बँटाने के लिए इससे बेहतर मुद्दा नहीं मिल सकता था। वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अपनी नयी पीढ़ी के नेताओं के बीच की आपसी कलह से त्रस्त भाजपा को भी एक ऐसा मुद्दा सालों बाद मिला है जिसमें उसके कार्यकर्ताओं में पनप रही निराशा को दूरकर एक नयी साम्प्रदायिक ऊर्जा का संचार करने की सम्भावना निहित है। उधर समाजवादी पार्टी को भी उत्तर प्रदेश में अपनी नवनिर्मित सरकार की विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसकी उसे तलाश थी।