याकूब मेमन की फांसी का अन्धराष्ट्रवादी शोर
जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने का षड्यंत्र
मनोज भुजबल
गत 30 जुलाई को नागपुर जेल में याकूब मेमन को फांसी दे दी गयी। लम्बे समय तक याकूब की फांसी पूरे देश में चर्चा का विषय बनी रही और अभी भी बनी हुई है। बहुसंख्यक आबादी जहां इस फांसी पर जश्न मना रही है वहीं मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा इस फांसी से आहत है। याकूब को फांसी देना न्यायिक दृष्टि से उचित था या नहीं यह सवाल साम्प्रदायिक प्रतिक्रियाओं और राष्ट्रवाद की लहर के चलते “आतंकवाद पर जीत“ के शोर के बीच दब गया है। अगर इस दृष्टि से देखें तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि याकूब के साथ नाइंसाफी हुई।
याकूब गुनहगार था यह इसमें तो कोई शक नहीं है लेकिन तो भी उसे फांसी की सज़ा देना न्यायपूर्ण नहीं था। इस पूरे मामलें में याकूब का जो रवैया रहा उसके आधार पर यह कहना होगा कि उसे फांसी देना न्यायसंगत नहीं था। भले ही बड़ी संख्या में लोग इस फांसी के बाद मिठाइयां बांटने और पटाखे फ़ोड़ने मे मशगूल हों लेकिन जो सत्य है उसे स्वीकारने में डरना नहीं चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि याकूब 1993 के मुम्बई बम धमाकों का मुख्य आरोपी नहीं था। मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम और याकूब मेमन का भाई टाइगर मेमन थे और अभी तक इन दोनों को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। याकूब के खिलाफ भी ऐसे ही सबूत थे जो कई अन्य लोगों के खिलाफ थे जिनको फांसी की सज़ा नहीं दी गयी है। उसका मुख्य अपराध ‘अबेटिंग’ यानी कि अपराध में मदद पहुंचाने का था। संजय दत्त व कई अन्य के खिलाफ भी लगभग वही सबूत थे जो याकूब के खिलाफ थे। दूसरी बात, मुख्य आरोप जिसका हवाला बार-बार देकर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाया गया यानी कि धमाकों की साजिश रचना, उसके लिए याकूब के खिलाफ कोई सबूत नहीं थे। जो एकमात्र सबूत था वह उसका बयान था; और यह सभी जानते हैं कि पुलिस अपनी हिरासत में बयान कैसे निकलवाती है। तीसरी और सबसे मुख्य बात यह है कि जिस तरह से याकूब ने आत्मसमर्पण किया और इस पूरे मामले में पुलिस व सरकार के साथ सहयोग किया, उसके बाद उसे मृत्युदण्ड देना निश्चित तौर पर अन्यायपूर्ण था। रॉ (रिसर्च एण्ड ऐनालिसिस विंग) के बी. रमन जो याकूब की गिरफ्तारी के पूरे मामले की अध्यक्षता कर रहे थे, बताते हैं कि जिस तरह से पुलिस कह रही है कि याकूब को अगस्त 1994 में दिल्ली से गिरफ्तार किया गया वह गलत है और याकूब जुलाई में ही आत्मसमर्पण कर चुका था। भारतीय इंटेलिजेंस ने उसे यह यकीन दिलाया था कि अगर वह आत्मसमर्पण करके सरकार और जांच एजेंसियों के साथ मामले में सहयोग करे तो उसे फांसी नहीं दी जायेगी। याकूब ने अपनी ओर से सरकार व पुलिस की हर सम्भव सहायता की। उसने बड़े पैमाने पर वीडियो, तस्वीरें व अन्य सबूत मुहैया करवाये। अपने घर के अन्य 6 सदस्यों को भी उसने गिरफ्तारी देने के लिए सहमत कराया। आत्मसमर्पण के बाद इस तरह से जांच में सहयोग करना और धमाकों का मुख्य आरोपी भी न होना हर तरह से उसे फांसी दिये जाने के तर्कों को खारिज करते हैं। दाऊद और टाइगर मेमन को पकड़ने में नाकाम सरकार व पुलिस ने एक तरह से याकूब को ही मुख्य आरोपी का तमगा लगाकर फांसी पर चढ़ा दिया। इतनी बदहवासी में याकूब को फांसी लगाने के पीछे शासक वर्ग की जो राजनीति काम कर रही थी उसे समझे बग़ैर इस मामले पर सही समझ बना पाना मुमकिन नहीं है।
सरकार ने अपने जिन हितों के लिए याकूब को फांसी पर लटकाया वे हित पूरा होते दिख रहे हैं। लोग महंगाई, बेरोजगारी, जनता के लिए बजट में कटौती आदि को भूलकर याकूब को फांसी देने पर सरकार और न्याय व्यवस्था की पीठ ठोंकने में लग गये हैं। इस मुद्दे से जो साम्प्रदायिकता की लहर फैली उसको देखते हुए भी कहा जा सकता है सरकार एक बार फिर ‘बांटो और राज करो’ की नीति को कुशलता से लागू करने में कामयाब रही। इस मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने में सरकार ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यह जरूरी है कि इस फांसी के पीछे के सामाजिक-राजनीतिक कारणों और इसपर हुई विभिन्न प्रतिक्रियाओं के कारणों को समझ लिया जाय।
संकट के दौर में शासक वर्ग जिस कुशलता से अपना वर्चस्व बनाये रख सकता है, यह फांसी का फैसला उसकी एक अद्भुत मिसाल है। व्यापक आबादी के दिमाग को किस तरह से शासक वर्ग मीडिया व अन्य माध्यमों के ज़रिये पूर्वाग्रह और झूठी धारणाएं बनाकर नियंत्रित करता है वह इस मामले के उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले शासक वर्ग जनता में साम्प्रदायिक भावनाएं और एक झूठा राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करता है और फिर जरूरत पड़ने पर उनकी लहर फैलाकर जनता की बदहाली के कारणों को उनके ज़रिये ढकने का काम करता है। सत्ता में कांग्रेस, भाजपा अथवा किसी की भी सरकार हो यह बात समान रूप से लागू होती है। व्यापक आबादी में अपनी खराब जीवन परिस्थितियों की वजह से शासक वर्ग के खिलाफ रोष होता है और इसी रोष को काबू में करने के लिए शासक वर्ग विभिन्न चीज़ों का सहारा लेता है। वह एक नियोजित तरीके से सतत प्रचार के जरिये जनमानस में एक झूठे राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना पैदा करता रहता है। जब लोग गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई से परेशान होकर शासकों पर गुस्सा जताते हैं तो शासक वर्ग उनका ध्यान इन मुद्दों पर से हटाने के लिए विभिन्न सांस्कृतिक-राजनीतिक माध्यमों के जरिये उन्हें तरह-तरह की झूठी बातें बताते हैं। उनसे कहा जाता है कि फिलहाल सबसे बड़ा खतरा आतंकवाद है, पाकिस्तान है, चीन है और इसी तरह की तमाम बातें जिसका निचोड़ यह होता है कि सबसे पहले राष्ट्र है। ऐसे समय पर कोई आतंकी हमला हो जाय तो यह शासक वर्ग के लिए संजीवनी का काम करता है, शासक वर्ग जनता का पूरा ध्यान इस ओर खींच लेता है तथा आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या सिद्ध करने में कामयाब हो जाता है। कोई और यदि हमला न भी करे तो कई बार शासक वर्ग स्वयं भी ऐसी करतूतें करने से पीछे नहीं हटता, इतिहास इसका साक्षी है। देश में गरीबी, भूख व कुपोषण के कारण, खराब स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से, कल-कारखानों आदि में, कितने लोग रोज़ अपनी जिन्दगी से हाथ धो बैठते हैं इसका सही आंकड़ा भी बता पाना सम्भव नहीं है। यह संख्या प्रतिदिन हज़ारों में होती है फिर भी सबसे बड़ा खतरा, सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद को ही बताया जाता है। देखा जा सकता है कि असली मुद्दों से जनता को भटकाने के लिए आतंकवाद का हौव्वा सरकार के लिए कितना ज़रूरी है। यह कहा जा सकता है कि अगर तथाकथित आतंकवाद आज ही खत्म हो जाय तो शासक वर्ग के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जायेगी।
इतनी ही जरूरत शासक वर्ग को आज अपना शासन कायम रखने के लिए साम्प्रदायिकता की भी है। लोग हिन्दू-मुसलमान में बंटे रहते हैं तो राज करना आसान होता है। भारत का शासक वर्ग इस बात को बेहद अच्छी तरह से जानता है और यही कारण है कि पिछले इतने सालों में धार्मिक कट्टरपंथियों को इतनी खुली छूट दी गयी है कि वे समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलने में कामयाब रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो प्रचार संघ व अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों ने किया है उसका परिणाम यह है कि समाज में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच सामाजिक अलगाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर अनेकों इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन भी अस्तित्व में आए हैं और परिणामस्वरूप यह सामाजिक अलगाव की खाई और भी अधिक चौड़ी होती गयी है। हिन्दुत्ववादियों ने बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के बीच मुसलमानों के प्रति भयंकर पूर्वाग्रह निर्मित किये हैं और एक आम धारणा यह बना दी गयी है कि मुसलमान आतंकी होते हैं। आम मुसलमानों में भी धर्म को लेकर रूढि़यां बढ़ी है और यह समझा जा सकता है कि क्यों मुसलमान आबादी का एक बड़ा हिस्सा याकूब को पूरी तरह से निर्दोष साबित करने की कोशिश कर रहा था। याकूब के प्रति मुसलमान आबादी की हमदर्दी भी हिन्दुत्ववादियों द्वारा साम्प्रदायिकता की राजनीति का ही परिणाम है। दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद देशभर के साथ ही मुम्बई में भी दंगे भड़क उठे थे जिसमें ज्यादातर मुसलमान ही मारे गये थे और इस कत्लेआम ने उनके मन में हिन्दू आबादी के प्रति काफी नफरत भर दी थी। मार्च 1993 में जब मुम्बई में सिलसिलेवार बम-विस्फोट हुए तो इन्हें एक प्रतिशोध के रूप में देखा गया जो कि एक हद तक था भी। इसी कारण से दाऊद को काफी मुसलमान आबादी का समर्थन भी प्राप्त है क्योंकि उसे एक “धर्म का बदला लेने वाला” के तौर पर देखा जाता है। याकूब के प्रति भी एक सॉफ्ट कार्नर काफी मुसलमानों के बीच इसी कारण से था। बाबरी मस्जिद ध्वंस और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर देशभर में दंगे हिन्दुत्ववादियों की साम्प्रदायिकता की राजनीति का परिणाम थे। यही समय था जब हिन्दुत्ववादी पहली बार समाज का पूर्ण ध्रुवीकरण करने में कामयाब हुए थे। 1947 के बाद से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव और नफरत की दीवार इतनी मज़बूत कभी नहीं हुर्इ थी। जनता के बीच फूट डालने की साम्प्रदायिकता की राजनीति का यह कुशलतम प्रयोग था। आज जब याकूब को फांसी दी गयी है तो इसपर होनेवाली विरोधी प्रतिक्रियाओं का साम्प्रदायिक चरित्र भी हम इसी राजनीति के सन्दर्भ में समझ सकते हैं।
आखिर क्यों इतनी बदहवासी में याकूब मेमन को फांसी दी गयी? कारण हमारे सामने है। बहुसंख्यक आबादी के अन्त: करण के तुष्टिकरण के लिए याकूब को बलि पर चढ़ाया गया है। बहुसंख्यक आबादी का अन्त: करण इस फांसी से कैसे शान्त होता है? यह हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह से शासक वर्ग अपने हितों के लिए, जनता का ध्यान असली मुद्दों से, उसकी बदहाली के असली कारणों से हटाने के लिए साम्प्रदायिकता का सहारा लेता है और एक झूठे राष्ट्रवाद को जन्म देता है। याकूब की फांसी जैसे मुद्दों के जरिये वह राष्ट्रवाद की लहर पैदा करता है और इसका निशाना भी एक विशेष धर्म के लोगों को बनाया जाता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को खास तौर पर निशाने पर लिया जाता है ताकि बहुसंख्यक आबादी के राष्ट्रवाद में साम्प्रदायिकता का तड़का लगाकर उसके मिथ्या चेतना से ग्रस अन्त: करण की तुष्टि करने के साथ ही समाज को धार्मिक लाइनों पर बांटा जा सके। इस ‘राष्ट्र के सामूहिक अन्त: करण के तुष्टीकरण’ की भेंट फांसी के सही हकदार भी हो सकते हैं और बेगुनाह लोग भी। एक ही जैसे अपराधों के लिए धार्मिक आधार पर भिन्न-भिन्न सजाएं देना भी दिखाता है कि इस व्यवस्था में न्याय अपराध के आधार पर नहीं बल्कि शासक वर्ग के हितों को देखते हुए किया जाता है। माया कोड़नानी और बाबू बजरंगी जैसों को रियायतें देना और बिना किसी सबूत के अफज़ल गुरू को गैर-जनवादी तरीके से फांसी देना न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न खड़े करता है। सर से पांव तक नंगी हो चुकी न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा बनाये रखने के लिए यह फांसी देना जरूरी था लेकिन याकूब की फांसी न्याय व्यवस्था के साथ ही समूची व्यवस्था के विभिन्न पक्षों को और नंगा ही करती है। आतंकवाद-आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करके शासक वर्ग सभी किस्म के आतंकवादों के जनक – राजकीय आतंकवाद पर बेहद कुशलता से पर्दा डालने का काम करता है। याकूब, कसाब और अफज़ल गुरू जैसे “आतंकवादियों” को तो शासक वर्ग के द्वारा फांसी दी जा सकती है लेकिन हर तरह के आतंकवाद को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि उनके जनक – शासक वर्ग के आतंकवाद, यानी कि राजकीय आतंकवाद को जड़ से उखाड़ कर फेंका जाय। सवाल यह है कि इस आतंकवाद के गुनाहों की सुनवाई कब होगी। इसके गले के लिए फांसी का फंदा कब तैयार होगा?
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