फ़ासीवादी वहशीपन की दिल दहलाने वाली दास्तान
फ़ासीवाद पूँजीवाद के भीषण संकट से उपजा आन्दोलन था जो अपने रूप और अन्तर्वस्तु में घोर मानवद्रोही था। मनुष्यजाति के एक हिस्से के प्रति इस कदर अन्धी नफरत उभारी गई कि उन्हें इन्सान ही नहीं समझा जाने लगा। लाखों लोगों को सिर्फ मारा ही नहीं गया बल्कि तरह-तरह से यातनाएँ देकर मारा गया। लेकिन नफरत की इस आँधी ने इन्सानों का शिकार करने वालों को भी बख्शा नहीं था। उनके भीतर का इन्सान भी मर गया था। लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने वाले आशवित्स शिविर का संचालक फ्रांज़ लैंग वहां गैस चेम्बरों में मरने वाले यहूदियों को महज ‘‘इकाइयाँ” मानता था जिन्हें ‘‘निपटाया” जाना था। अनेक सनकी डाक्टर इस बात पर ‘‘अनुसन्धान” करते थे कि अलग-अलग ढंग से यातनाएँ दिये जाने पर मरने से पहले कितना दर्द होता है। यहाँ हम दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होने के बाद जर्मनी के न्यूरेम्बर्ग में हिटलर के नाज़ी सहयोगियों पर चलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे की शुरुआत का ब्योरा दे रहे हैं। इसे ‘असली इन्सान’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यास के लेखक और सोवियत पत्रकार बोरीस पोलेवोइ की किताब ‘नाज़ियों से आख़िरी हिसाब’ से लिया गया है। इसे पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि फ़ासीवाद जैसे मानवद्रोही विचारों को अगर बेरोकटोक छोड़ दिया जाये तो ये वहशीपन की किस हद तक जा सकते हैं। दंगों में स्त्रिायों के गर्भ से शिशुओं को निकालकर टुकड़े कर डालना और जीते-जागते इंसानों की खाल से जूते बनाने जैसी हरकतों के पीछे एक ही मानवद्रोही सोच काम करती है।