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सावधान! फ़ासीवादी शक्तियाँ अपने ख़तरनाक खेल में लगी हैं!

फ़ासीवाद पूँजीवादी ढांचे के अंदर ‘खूंटे से बंधे कुत्ते’ की तरह होता है जिसकी जंजीर पूँजीपति वर्ग के हाथों में रहती है। पूँजीवादी ढांचे के अंदर इसकी मौजूदगी लगातार बनी रहती है। जैसे ही पूँजीपति वर्ग के लिए सत्ता के दूसरे रूपों जैसे संसदीय जनवाद के द्वारा लोगों पर अपना नियंत्रण रखना और पूँजीवादी लूट को जारी रखना असंभव हो जाता है उसी समय फ़ासीवाद का क्रूर खंजर वक्त के अँधेरे कोनों से निकल के सामाजिक रंगमंच पर आ प्रकट होता है और अपने आकाओं, वित्तीय पूँजी की सेवा में मेहनतकश लोगों पर टूट पड़ता है।

मेहनतकश साथियो! साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़तरनाक इरादों को नाकाम करने के लिए फ़ौलादी एकता क़ायम करो!

इन दंगों के पीछे संघ परिवार के संगठनों की भूमिका बिल्कुल साफ है। उनका सीधा खेल है कि जितने हिन्दू मरेंगे, उतना ही हिन्दू डरेंगे और जितना ही वे डरेंगे उतना ही वह भाजपा के पक्ष में लामबन्द होंगे। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का गणित है कि मुसलमानों के अन्दर जितना डर पैदा होगा उतना ही वह समाजवादी पार्टी की ओर झुकेंगे। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने यही मॉडल और फार्मूला अपनाया था, और अब उत्तर प्रदेश में यही किया जा रहा है। गुजरात में नरसंहार के एक प्रमुख आयोजक और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह को इसी लिए उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। पिछले दिनों विहिप नेताओं के साथ मुलायम सिंह यादव की मुलाकातों और चौरासी कोसी परिक्रमा के मामले में दोनों की नूरांकुश्ती को भी इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए।

इलाहाबाद में फासिस्टों की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ छात्र सड़कों पर

फासिस्ट ताकतें अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। और भारत में इनके हौसले लगातार बढ़ ही रहे हैं। पिछले दिनों, अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र डाभोलकर की हत्या कर दी गयी, फिर पुणे में उनकी श्रद्धांजलि सभा पर एबीवीपी और बजरंग दल के गुंडों ने हमला करके आयोजक छात्रों को घायल कर दिया। इसी तरह, इलाहाबाद में लगायी जाने वाली दो प्रगतिशील दीवार पत्रिकाओं ‘प्रतिरोध’ और ‘संवेग’ को फाड़ने और उन्हें लगाने वाले छात्रों से फोन पर गाली गलौज करने और गुजरात के मुसलमानों की तरह काटकर फेंक देने की धमकी देने का मामला सामने आया है।

एक बार फ़िर देश को दंगों की आग में झोंककर चुनावी जीत की तैयारी

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, मेहनतकशों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे।

यूनान में फ़ासीवाद का उभार

जब आम लोगों का विरोध इस कदर बढ़ जाता है कि वह पूँजीवाद की लूट की नीतियां को लागू होने में रुकावट बन जाता हैं और पूँजीवाद की पहली कतार की राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता संभालने अर्थात लोगों पर डंडा चलाने में असमर्थ हो जाती हैं तो इस काम के लिए पूँजीवाद गोल्डन डॉन जैसी फ़ासीवादी पार्टियों का सहारा लेता है। दूसरी ओर, यही वह ऐतिहासिक क्षण होते हैं जब समाज को आगे लेकर जाने वाली क्रांतिकारी ताकतों के पास लोगों के समक्ष पूँजीवादी ढाँचे के मनुष्य विरोधी चरित्र को पहले से कहीं अधिक नंगा करने और इसके होते हुए मानवता के लिए किसी भी किस्म के अमन-चौन की असंभा‍विता और सब से ऊपर, पूँजीवादी ढाँचे के ऐतिहासिक रूप पर अधिक लम्बे समय के लिए बने रहने की असंभाविता को स्पष्ट करने का अवसर होता है। यही वह समय होता है जब आम लोग बदलाव के लिए उठ खड़े होते हैं और उनकी शक्ति को दिशा देकर क्रांतिकारी ताकतें पूँजीवादी ढाँचे की जोंक को मानवता के शरीर से तोड़ सकती हैं।

नरेन्द्र मोदी का उभार और मज़दूर वर्ग के लिए उसके मायने

आज पूरी दुनिया में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था संकट से घिरी हुई है और उससे निकलने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी संकट के दलदल में बुरी तरह फँस चुकी है। हमेशा की तरह शासक वर्ग संकट का बोझ जनता पर डालने में लगे हैं जिससे बेतहाशा महँगाई, बेरोज़गारी और कल्याणकारी मदों में कटौती लाज़िमी है। संकट बढ़ने के समय हमेशा ही भ्रष्टाचार भी सारी हदें पार करने लगता है, जैसा कि आज हो रहा है। ऐसे ही समय में, पूँजीपति वर्ग को हिटलर और मुसोलिनी जैसे “कठोर” नेताओं की ज़रूरत पड़ती है जो हर किस्म के विरोध को रौंदकर उसकी राह आसान बना दे। आज भारत का बुर्जुआ वर्ग भी नरेन्द्र मोदी पर इसीलिए दाँव लगाने को तैयार नज़र आ रहा है। हालाँकि यह भी सच है कि आज भी उसकी सबसे विश्वसनीय पार्टी कांग्रेस ही है। भारतीय बुर्जुआ वर्ग बड़ी चालाकी से फासीवाद को ज़ंजीर से बँधे शिकारी कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता रहा है जिसका भय दिखाकर जनता के आक्रोश को काबू में रखा जा सके, लेकिन काम पूरा होने पर उसे वापस खींच लिया जा सके।

बाल ठाकरे: भारतीय फ़ासीवाद का प्रतीक पुरुष

बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने ऐसे विचार प्रकट किये कि शायद अब भारत में फ़ासीवाद की राजनीति कमज़ोर पड़ेगी। परन्तु सच्चाई यह है कि फ़ासीवाद किसी एक व्यक्ति की सोच से नहीं पैदा होता है बल्कि यह संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक उत्पाद है और जब तक इस व्यवस्था का कोई क्रान्तिकारी विकल्प सामने नहीं आयेगा तब तक फ़ासीवाद अपने तमाम रूपों में अस्तित्वमान रहेगा। बाल ठाकरे जैसे व्यक्तित्व फ़ासीवाद के वाहक मात्र होते हैं और उनके जाने के बाद भी पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक गति से नये फ़ासीवादी व्यक्तित्वों का निर्माण करता रहेगा, यदि क्रान्तिकारी ताकतें अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में क़ामयाब नहीं होती हैं। यही नहीं कुंठा का शिकार जनता का एक हिस्सा भी ऐसे फ़ासिस्टों में नायकों की तलाश करता रहेगा। इसलिए ऐसे दानवों को फ़लने फ़ूलने से रोकने का बस एक तरीका है और वह है मेहनतकशों को जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रों की सीमाओं को तोड़़कर वर्गीय आधार पर एकजुट, लामबंद और संगठित करना।

आने वाले चुनाव और ज़ोर पकड़ती साम्प्रदायिक लहर

महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, भूख-कुपोषण, धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई – यह सब कुछ चरम पर है। पर कोई पार्टी इन मुद्दों को हवा दे पाने की स्थिति में नहीं है। पिछले बाईस वर्षों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि नवउदारवाद की नीतियों की जिस वैश्विक लहर ने भारत जैसे देशों के आम लोगों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा किया है, उन नीतियों पर सभी चुनावी दलों की आम सहमति है। केन्द्र और राज्य में, जब भी और जितना भी मौक़ा मिला है, इन सभी दलों ने उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को ही लागू किया है। चुनावी वाम दलों के जोकर भी पीछे नहीं है। उनका “समाजवाद” बाज़ार के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहता है, अपने को अब “बाज़ार समाजवाद” कहता है और कीन्सियाई नुस्खों से नवउदारवादी पूँजीवाद को थोड़ा “मानवीय” चेहरा देने के लिए सत्ताधारियों को नुस्खे सुझाता है।

कविता – साम्प्रदायिक फसाद / नरेन्‍द्र जैन

हर हाथ के लिए काम माँगती है जनता
शासन कुछ देर विचार करता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
अपने बुनियादी हक़ों का
हवाला देती है जनता
शासन कुछ झपकी लेता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
साम्प्रदायिक फसाद शुरू होते ही
हरक़त में आ जाती हैं बंदूकें
स्थिति कभी गम्भीर
कभी नियंत्रण में बतलाई जाती है
एक लम्बे अरसे के लिए
स्थगित हो जाती है जनता
और उसकी माँगें

साम्‍प्रदायिकता पर दोहे / अब्दुल बिस्मिल्लाह

हाट लगा है धर्म का भक्त जनन को छूट।
जान माल सब है यहाँ लूट सकै तो लूट॥
राजा पण्डित मौलवी सब मिलि कीन्हीं घात।
जीभ निकाले आ रही महाकाल की रात॥
जूठी हड्डी फेंककर औ’ कुत्तों को टेर।
अपने-अपने महल में सोये पड़े कुबेर॥
घर-आँगन मातम मचे धरती पड़े दरार।
ना चहिए ऐसे हमें कलश और मीनार॥