मनरेगा परियोजना में मोदी सरकार द्वारा की जा रही कटौतियाँ – कॉरपोरेट जगत की तिजोरियाँ भरने के लिए जनहित योजनाओं की बलि चढ़ाने की शुरुआत
राजकुमार
निजीकरण-उदारीकरण के दौर में देश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच असमानता में लगातार वृद्धि हुई है। ग्रामीण इलाक़ों में रोज़गार के अभाव में बड़ी संख्या बेरोज़गार है या अनियमित रोज़गार में लगी है। बढ़ती बेरोज़गारी के कारण मज़दूरों की बड़ी आबादी काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रही है। लेकिन पिछड़ी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और खुली मुनाफ़ाखोरी के बीच उद्योग-धन्धे जनता को रोज़गार देने में असमर्थ हैं। जिसके कारण मौजूदा यूपीए सरकार ने ग्रामीण इलाक़ों से मज़दूरों के इस पलायन को थामने के लिए साल 2005 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम (मनरेगा) परियोजना का आरम्भ किया था। इस परियोजना के तहत ग्रामीण इलाक़े में ग़रीबी रेखा से नीचे जीने वाले हर व्यक्ति को 100 दिन काम देने की गारण्टी दी गयी, जिसका भुगतान काम समाप्त होने के 15 दिनों के भीतर करना तय किया गया है। फ़रवरी, 2006 में मनरेगा को देश के 200 पिछड़े ज़िलों में शुरू किया गया था और 1 अप्रैल, 2008 तक इसे देश के सभी ज़िलों में ज़मीनी स्तर पर लागू कर दिया गया था।
मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी मौजूदा भाजपा सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों को आवण्टित की जाने वाली धनराशि में कटौती करने का सिलसिला जारी है। यूपीए सरकार के समय से ही पिछले तीन-चार सालों में मनरेगा के लिए दिये जाने वाले बजट में कटौती की जा रही है, लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद इस कटौती में और तेज़ी आ गयी है।
2014-15 में मनरेगा के लिए दिया जाने वाला फ़ण्ड 33,000 करोड़ रह गया है जबकि साल 2009-10 में 52,000 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया था। इस परियोजना के तहत 2012 के अन्त तक 9 महीनों में 4.16 करोड़ घरों को रोज़गार मिला था जो 2013 में घटकर 3.81 करोड़ और 2014 में और घटकर 3.60 करोड़ घरों तक सीमित हो चुका है। सितम्बर 2014 तक के मनरेगा पर ख़र्च किये गये फ़ण्ड को 2013 के सितम्बर तक ख़र्च किये गये फ़ण्ड की तुलना में 10,000 करोड़ कम कर दिया गया है। लगातार जारी फ़ण्ड की कटौती से प्रति-परिवार दिया जाने वाले रोज़गार का औसत इस समय घटकर 34 दिन रह गया है जो 2009-10 में 54 दिन था। इसके साथ ही मनरेगा के तहत काम करने वाले मज़दूरों की बकाया मज़दूरी बढ़ती जा रही है और इस समय देश के 75 फ़ीसदी मनरेगा मज़दूरों की मज़दूरी बकाया है। कुछ राज्यों में फ़ण्ड की कमी और बढ़ती बकाया मज़दूरी के चलते रोज़गार देने का कार्यक्रम पूरी तरह से थम गया है।
वर्तमान भाजपा सरकार ने मनरेगा में सामान और उपकरण ख़रीदने के लिए दिये जाने वाले धन को बढ़ा दिया है और मज़दूरी के लिए आवण्टित धन को कम कर दिया है जिससे इस परियोजना को लागू करने वाले सरकारी अफ़सरों, बिचौलियों, कॉण्ट्रैक्टरों, ग्राम-प्रधानों और ठेकेदारों को खुला भ्रष्टाचार करने का बढ़ावा मिलेगा और काम करने वाले मज़दूरों को नुक़सान होगा, यह तय है।
वर्तमान मोदी सरकार इस परियोजना को बन्द करने की दिशा में लगातार प्रयास कर रही हैं, जो आँकड़ों से स्पष्ट है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त देखें तो बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिनको किसी और विकल्प के अभाव में इस परियोजना से थोड़ी सहुलियत मिल जाती है। 2009 से 2014 तक इस परियोजना के तहत जारी किये गये कुल जॉब-कार्डों की संख्या 11.25 करोड़ से बढ़कर 13.0 करोड़ हो गयी है। परियोजना के पिछले सालों के कामकाज पर नज़र डालें तो साल 2008-09 में करीब 23.10 अरब प्रति व्यक्ति कार्यदिवस रोज़गार मिला जिससे, एक सीमा तक ही सही, हर साल लगभग पाँच करोड़ परिवारों को फ़ायदा हुआ। रोज़गार पाने वाले लोगों में करीब आधे प्रति व्यक्ति कार्य दिवस महिलाओं को मिले। इस परियोजना से स्त्रियों और पुरुषों के न्यूनतम मज़दूरी के अन्तर में कुछ कमी आयी है और रोज़गार के लिए ग्रामीण इलाक़ों से मज़दूरों का पलायन थोड़ा कम हुआ था।
मनरेगा के तहत 2009-10 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14 2014-15
कुल जारी किये गये जॉब-कार्ड 11.25 करोड़ 11.98 करोड़ 12.50 करोड़ 13.06 करोड़ 13.15 करोड़ 13.00 करोड़
परिवारों को मिला रोज़गार 5.26 करोड़ 5.49 करोड़ 5.06 करोड़ 4.99 करोड़ 2.79 करोड़ 3.60 करोड़
प्रति-व्यक्ति-दिन प्रति परिवार 54 47 43 46 46 34
’दिसम्बर 2014 तक, (स्रोत – मनरेगा रिपोर्ट, in BusinessStandard, 3 फ़रवरी 2015)
परियोजना में आवण्टित धन को कम करने के पीछे सरकार की तरफ़ से यह तर्क दिया जा रहा है कि सरकार के पास पैसों की कमी है। सरकार के इस झूठ को समझने के लिए हमें कुछ आँकड़ों पर नज़र डालनी होगी। मौजूदा वित्तीय वर्ष में मनरेगा के लिए दिया जाने वाला बजट 33,000 करोड़ रुपये है जो देश की जीडीपी के सिर्फ़ 0.3 फ़ीसदी के बराबर है। जबकि उद्योग जगत को दी जाने वाली करों की छूट जीडीपी के तकरीबन तीन फ़ीसदी के बराबर है जो मनरेगा के लिए ज़रूरी फण्ड की तुलना में 10 गुना अधिक है। उद्योगपतियों को टैक्स में छूट देने से देश के सिर्फ 0.7 फ़ीसदी मज़दूरों के लिए रोज़गार पैदा होगा, जबकि मनरेगा के तहत 25 फ़ीसदी ग्रामीण परिवारों को रोज़गार मिलता है। केवल सोने और हीरे के कारोबार में लगी कम्पनियों को मनरेगा पर आने वाले ख़र्च की तुलना में दोगुने, यानी 65,000 करोड़ रुपये के बराबर कर छूट दी गयी है। अभी हाल ही में मोबाइल सर्विस देने वाली एक कम्पनी वोडाप़फ़ोन को कर में 3,200 करोड़ की छूट दे दी गयी है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सरकार जनता के पैसों को उद्योगपतियों के मुनाफ़े और उनकी विलासिता के लिए लुटाते समय पैसों की कमी के बारे में नहीं सोचती लेकिन जहाँ जनता के लिए कोई परियोजना लागू करने की बात होती है वहाँ लोगों को गुमराह करने के लिए धन की कमी का बहाना बना दिया जाता है।
लोगों को रोज़गार देने में असमर्थ लुंज-पुंज और पिछड़ी भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जनता को सम्माननीय जीवन स्तर देने में असमर्थ है, लेकिन सरकार जनता के लिए चलायी जा रही परियोजनाओं में भी कटौती करके पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने के लिए प्रतिबद्ध है। गुजरात मॉडल से देश के विकास का नारा लगाने वाली वर्तमान सरकार चाहती है कि देशी-विदेशी पूँजी को मुनाफ़ा कमाने की खुली छूट देकर “विकास” को बढ़ावा दिया जाये और जनता के लिए चलायी जा रही कल्याणकारी परियोजनाओं में ख़र्च को घटाकर कम से कम कर दिया जाये। इस समय योजना आयोग की जगह लेने वाले नीति आयोग में जिन दो अर्थशास्त्रियों की नियुक्ति की गयी वो दोनों ही सामाजिक सुरक्षा वाले अन्य कार्यक्रमों समेत मनरेगा के मुखर आलोचक रहे हैं। स्पष्ट है कि यदि व्यापक स्तर पर मज़दूरों ने जनता के अधिकारों में की जा रही इन कटौतियों के खि़लाफ़ आवाज़ न उठायी तो मनरेगा जैसी जन-कल्याणकारी परियोजनाओं को भी कार्पोरेट के मुनाफ़े की भेंट चढ़ाकर बन्द कर दिया जायेगा। आज जिस तरह पूरे देश में रोज़गार की अनिश्चितता और बेरोज़गारी बढ़ रही है और ग्रामीण इलाक़ों से उजड़-उजड़ कर अनेक ग़रीब परिवार शहरों तथा महानगरों में काम की तलाश में आ रहे हैं जिनकी आबादी महानगरों के आस-पास मज़दूर बस्तियों के रूप में बस रही है, ऐसे समय में मनरेगा परियोजना में की जा रही कटौतियों के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने के साथ ज़रूरी है कि शहरों में रहने वाले करोड़ों ग़रीब मज़दूर परिवारों के लिए रोज़गार गारण्टी की माँग भी उठायी जाये।
सन्दर्भ
- http://www.business-standard.com/ article/economy-policy/ future-tense-as-mgnrega-turns- 10-115020300023_1.html
- http://www.thehindu.com/news/ national/karnataka/sangha -opposes-union-governments- attempts-to-dilute-mgnrega /article6837000.ece
- http://www.thehindu.com/business/Industry/centre- not-to-appeal-bombay- high-court-order-in-vodafone-tax-case/ article6830825.ece
- http://www.thehindu.com /news/national/telangana /minister-expresses-dissatisfaction/article6830286.ece
- http://www.livemint.com/Home-Page/FH9LwwbO7cs4S WP64mXl0J/Tracing-MGNREGAs-decline.html
- http://www.bbc.co.uk/hindi /india/2015/02/150206_ mnrega_bjp_government_rns
- http://www.bbc.co.uk/hindi /india/2015/02/150202_ mnrega_analysis_by_reetika_khera_vr
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन