बराक ओबामा की भारत यात्रा
अमेरिका व भारत की “मित्रता” के असल मायने
लखविन्दर
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तीन दिनों की भारत यात्रा की पिछले दिनों देशी-विदेशी मीडिया में काफ़ी चर्चाएँ रही हैं। पूँजीवादी मीडिया में अमेरिका-भारत के आपसी सम्बन्धों के वास्तविक मकसद, ओबामा की भारत यात्रा के असल मायनों की व्याख्या की लगभग ग़ायब रही है। पूँजीवादी मीडिया से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
इस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के काले बादल छाये हुए हैं जो दिन-ब-दिन सघन से सघन होते जा रहे हैं। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और भारत भी इस संकट में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को अपनी दैत्याकार पूँजी के लिए बड़े बाज़ारों की ज़रूरत है। इस मामले में भारत उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिकी पूँजीपति भारत में अधिक से अधिक पैर पसारना चाहते हैं ताकि आर्थिक मन्दी के चलते घुटती जा रही साँस से कुछ राहत मिले। इधर भारतीय पूँजीवाद को आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। विदेशों से व्यापार के लिए इसे डॉलरों की ज़रूरत है। भारत में पूँजीवाद के तेज़ विकास के लिए भारतीय हुक्मरान आधारभूत ढाँचे के निर्माण में तेज़ी लाना चाहते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग यहाँ उन्नत तकनोलॉजी, ऐशो-आराम का साजो-सामान आदि और बड़े स्तर पर चाहता है। इस सबके लिए इसे भारत में विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने लम्बे समय से लटके हुए परमाणु समझौते को अंजाम तक पहुँचाने का दावा किया है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यह समझौता कर रही थी तो भाजपा ने इसके विरोध का ड्रामा किया था और कहा था कि उसकी सरकार आने पर यह समझौता रद्द कर दिया जायेगा। जैसीकि उम्मीद थी, अमेरिका से परमाणु समझौता पूरा कर लेने का दावा करके भाजपा ने अपना थूका चाट लिया है।
अमेरिका औैर भारत दोनों चीन की बढ़ती जा रही आर्थिक और राजनीतिक ताक़त से बहुत अधिक फ़िक्रमन्द हैं। चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। आर्थिक ताक़त बढ़ने के साथ ही राजनीतिक-सामरिक ताक़त भी बढ़ने की स्थितियाँ बन जाती हैं। चीन की ओर से दी जा रही चुनौती का मुकाबला करने के लिए अमेरिका भारत को गले लगाना चाहता है। अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने सबसे बड़े साम्राज्यवादी शत्रु रूस से निपटने के लिए भी भारत का साथ चाहता है। वह रूस, चीन और भारत की नज़दीकियों से काफ़ी चिन्तित है। अमेरिका का प्रस्ताव है कि अमेरिका, भारत, जापान व आस्ट्रेलिया आधारित सैनिक गठबन्धन कायम किया जाये।
एशिया क्षेत्र में चीन के बढ़ते जा रहे प्रभाव से भारतीय शासक भी काफ़ी चिन्तित हैं। इस क्षेत्र में भारतीय शासक अपना दबदबा कायम रखना चाहते हैं। साथ ही, चीन से भारत की लम्बी सरहद भी लगती है। इसलिए चीन का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद से गलबहियाँ करना भारतीय शासकों की भी ज़रूरत है। दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा अपने पड़ोसियों से झगड़ा बढ़ाने के विरुद्ध प्रस्ताव पर मोदी ने ओबामा के साथ हस्ताक्षर भी किये हैं।
जनता के श्रम और प्राकृतिक स्रोत-संसाधनों की लूट से अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए, इस लूट में शामिल अपने विरोधियों को हाशिये पर धकेलने के लिए, दिन-ब-दिन गहरे से गहरे होते जा रहे विश्वव्यापी आर्थिक संकट से निकलने के लिए बाज़ारों का प्रसार करना ही अमेरिका और भारत की बढ़ती जा रही “मित्रता” का वास्तविक तत्व है। ओबामा की भारत यात्रा को इसी प्रसंग में देखा जाना चाहिए।
ओबामा ने अपनी तीन दिनों की यात्रा के अन्तिम दिन एक भाषण में भारतीय संविधान की धारा 25 का हवाला देते हुए कहा था कि भारत में धार्मिक आज़ादी है। उसने कहा कि भारत विभिन्न धर्मों के लोगों में भाईचारा कायम रखकर ही विकास कर सकता है। ओबामा के इस भाषण पर पूँजीवादी मीडिया ने ख़ूब तालियाँ बजायी हैं। बहुत से अख़बारों ने सम्पादकीय लिखकर ओबामा के भाषण की तारीफ़ के पुल बाँधे हैं। लेकिन ओबामा द्वारा धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिक सौहार्द क़ायम रखने, भाईचारा बनाये रखने की बातें ढोंग के सिवा और कुछ नहीं हैं। भारतीय संविधान की धारा 25 की खुलेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती रही हैं। इसका ओबामा ने ज़िक्र तक नहीं किया। भारत में धार्मिक आज़ादी और जनवाद की सबसे बड़ी दुश्मन ताक़त संघ परिवार की भाजपा सरकार से ओबामा गलबहियाँ ले रहा है। अगर ओबामा सचमुच में सच्चा होता तो हिन्दू कट्टरपन्थी ताक़तों सहित अन्य सभी धार्मिक ताक़तों का नाम लेकर उनके ख़िलाफ़ बोलता। गुजरात में मुसलमानों के 2002 में हुए क़त्लेआम के कमाण्डर नरेन्द्र मोदी को अमेरिका जाने के लिए वीज़ा दिये जाने पर रोक थी। ओबामा सरकार ने यह रोक मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद हटा ली। क्या प्रधानमन्त्री बनकर नरेन्द्र मोदी दूध के धुले हो गये?
सच तो यह है कि भारतीय जनता की लूट और बढ़ाने के लिए, जनता के आन्दोलनों को कुचलने के लिए, लोगों को आपस में लड़ाने के लिए साम्प्रदायिकता का बढ़ना अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष हित में है। अमेरिका ख़ुद दुनियाभर में साम्प्रदायिकता फैला रहा है। एक तरफ़ इराक़, अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में अमेरिकी फ़ौजें भेजकर अमेरिका मुसलमानों का क़त्लेआम कर रहा है, फ़िलिस्तीन में बच्चों सहित हज़ारों लोगों को मारने वाले इज़रायली शासकों को शह दे रहा है और दूसरी तरफ़ इस्लामिक स्टेट (आईएस) जैसे वहशी जुनूनियों को भी पैदा करता रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवादी हुक्मरान, जिनका इस समय कमाण्डर बराक ओबामा है, दुनिया में जनवाद के सबसे बड़े हत्यारे हैं। इसलिए ओबामा का भाषण मक्कारी के सिवा और कुछ नहीं। अमेरिकी साम्राज्यवाद का यह नुमाइन्दा अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के नीचे अपने लुटेरे हितों को छिपाने की कोशिश कर रहा था जिनकी पूर्ति के लिए वह भारत में यहाँ की सरकार व पूँजीपतियों से मिलने आया था।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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