कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश
देश की सम्पदा को औने-पौने दामों में देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने की दिशा में एक बड़ा क़दम

आनन्द

पिछली 6 जनवरी को पाँच केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों – एचएमएस, बीएमएस, इंटक, एटक, सीटू – ने देशभर के कोयला खान मज़दूरों की पाँच दिवसीय हड़ताल का ऐलान किया था। इस हड़ताल की मुख्य वजह मोदी सरकार द्वारा कोयला खनन के क्षेत्र में देश के सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रम कोल इण्डिया लिमिटेड के निजीकरण और विराष्ट्रीकरण का विरोध बतायी गयी थी। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हम देख चुके हैं कि किस तरीक़े से ग़द्दार केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने शर्मनाक तरीक़े से घुटने टेककर पाँच दिवसीय हड़ताल को दूसरे दिन ही वापस ले लिया था। जनवरी माह के अन्त में सरकार ने इन ग़द्दारों को ठेंगा दिखाते हुए कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश की अपनी पुरानी योजना पर अमल करते हुए उसके 10 प्रतिशत शेयर बेच दिये जिसके बाद अब कोल इण्डिया लिमिटेड में सरकार की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत ही रह गयी है।

Coal Mineकोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है। वैसे देखा जाये तो कोल इण्डिया लिमिटेड के निजीकरण की प्रक्रिया तो हालिया विनिवेश से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। ग़ौरतलब है कि कोल इण्डिया लिमिटेड की सहयोगी कम्पनियों, मसलन महानदी कोलफ़ील्ड्स और नार्दन्स कोल फ़ील्ड्स, में पिछले कई सालों से कोयला खनन का अधिकांश काम ठेके पर कराया जाता है जिसके ज़रिये कोयला खनन में लगी ठेका कम्पनियाँ अकूत मुनाफ़ा कूटती आयी हैं और कोयला खान मज़दूरों की हालत बद से बदतर होती गयी है। मोदी सरकार ने निजीकरण की दिशा में आगे के डग भरे हैं। पिछले साल पारित कोयला खान (विशेष प्रावधान) अध्यादेश इसी रास्ते की ओर बढ़ा क़दम है जिसके ज़रिये निजी पूँजी को देश के विशाल कोयला भण्डार का दोहन करने की खुली छूट दे दी गयी है। ग़द्दार केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने जनवरी में पाँच दिवसीय हड़ताल को दूसरे दिन वापस लेने के पीछे कारण बताया था कि कोयला मन्त्री पीयूष गोयल ने उन्हें आश्वासन दिया है कि कोल इण्डिया का निजीकरण नहीं किया जायेगा। इस आश्वासन को इन ग़द्दारों ने मज़दूरों की जीत कहकर प्रचारित किया था। सरकार ने इन बेशर्म ग़द्दारों को पट्टी पढ़ाई कि विनिवेश निजीकरण नहीं है और अब ये ग़द्दार यही पट्टी मज़दूरों को पढ़ा रहे हैं। ये मज़दूरों से यह बात छिपा जाते हैं कि चूँकि एक साथ पूरा का पूरा उपक्रम निजी हाथों को सौंपने से जनअसन्तोष फैलने की सम्भावना ज़्यादा रहती है इसलिए नव-उदारीकरण के पिछले ढाई दशकों में सरकारों को विनिवेश के ज़रिये किश्तों में निजीकरण करना आसान लगता है।

कोल इण्डिया लिमिटेड के हालिया विनिवेश के ज़रिये सरकार ने 24,557 करोड़ रुपये हासिल किये जिसको पूँजीवादी मीडिया ने सरकार की बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया। ग़ौरतलब है कि राजग सरकार ने चालू वित्तीय वर्ष में सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश के ज़रिये कुल 43,425 करोड़ रूपये इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा था। कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश के पहले तक सरकार मात्र 1,719 करोड़ रफ़पये ही इकट्ठा कर पायी थी जिसको लेकर पूँजीपतियों के टुकड़खोर अर्थशास्त्री और बुद्धिजीवी सरकार की आलोचना कर रहे थे। कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश के ज़रिये मोदी सरकार ने उन्हें पूँजीपतियों के वारे-न्यारे करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर दी है और इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि वह थैलीशाहों के “अच्छे दिन” लाने के प्राणपण से काम कर रही है।

विनिवेश के पीछे सरकार और पूँजीपतियों के कलमघसीट यह तर्क देते हैं कि इसके बिना राजकोषीय घाटा (फ़िस्कल डेफ़िसिट) कम नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस तरह का कुतर्क गढ़ने वाले कभी भी यह नहीं बताते कि राजकोषीय घाटा बढ़ने की सबसे बड़ी वजह सरकार द्वारा हर साल पूँजीपतियों-व्यापारियों को करों में लाखों करोड़ रूपये की छूट और उनके द्वारा करों की गयी चोरी है। यानी एक ओर सरकारें पूँजीपतियों-व्यापारियों को तोहफ़े के रूप में करों में रियायतें देती हैं और इन रियायतों से भी सन्तुष्ट न होने पर उनके द्वारा करों में की गयी चोरी की वजह से सरकार को जब पर्याप्त राजस्व नहीं मिल पाता तो राजकोषीय घाटा बढ़ने का रोना रोकर वह जनता की बुनियादी ज़रूरतों जैसे भोजन, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य में से कटौती करती है और जब उससे भी पूँजीपतियों की हवस नहीं शान्त होती तो जनता की हाड़-तोड़ मेहनत से खड़े किये गये सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बेचकर राजकोषीय घाटा कम करने की कवायदें की जाती हैं।

इस पूरी प्रक्रिया से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाता है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने, वह पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का ही काम करती है। हम मज़दूरों को इस पूँजीवादी लोकतंत्र के ऊपरी दिखावे पर सीना फुलाने की बजाय इसकी मूल अन्तर्वस्तु को समझना चाहिए कि यह कुल मिलाकर पूँजीपति वर्ग की मज़दूर वर्ग के ऊपर तानाशाही है। जब तक हम इस सच्चाई को गाँठ बाँधकर नहीं रख लेते तब तक हम मज़दूर वर्ग की मुक्ति के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पायेंगे।

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments