Tag Archives: प्रसेन

1975 का आपातकाल और आज का अघोषित आपातकाल

जो काम आरएसएस और उनके नेताओं ने अंग्रेज़ों के समय में किया था, वही काम आरएसएस और उनके नेताओं ने आपातकाल के दौरान भी किया यानी-माफ़ीनामा और दमन में सरकार का साथ देना! वास्तव में, मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी और छात्रों-युवाओं के बीच मौजूद क्रानितकारी एक्टिविस्ट सबसे बहादुरी के साथ लड़ रहे थे, आपातकाल का विरोध कर रहे हैं, दमन-उत्पीड़न झेल रहे थे और यहाँ तक कि शहादतें भी दे रहे थे। इनमें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सबसे आगे थे, जो जनता के हक़ों पर हो रहे हमलों का ज़बर्दस्त प्रतिरोध कर रहे थे। दूसरी ओर, आरएसएस कायरता के साथ अपनी माँद में दुबक गयी थी और उसके नेता शर्मनाक माफ़ीनामे लिख रहे थे। आज भाजपा की मोदी-शाह सरकार और भाजपाई आपातकाल के 50 वर्षों के पूरे होने पर सियारों की तरह हुआँ रहे हैं कि आपातकाल लागू करके इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस ने कितना ज़ुल्म किया। लेकिन ये ख़ुद उस समय माफ़ीनामों के बण्डल पर बैठकर इन्दिरा गाँधी के नाम कसीदे पढ़ रहे थे।

उत्तर प्रदेश में बिजली का निजीकरण किसके हक़ में?

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बिजली विभाग पर निजीकरण का बुलडोज़र चलाने की ठान चुकी है। बिजली कर्मचारियों के व्यापक विरोध प्रदर्शन के बावजूद योगी सरकार पूँजीपतियों के हक़ में अपने अटल इरादे को ज़ाहिर कर चुकी है। इसके लिये योगी सरकार एस्मा जैसे क़ानून का डण्डा और निलम्बन और बर्खास्तगी जैसे हथकण्डे इस्तेमाल करने के लिए तैयार बैठी है। उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (यूपीपीसीएल) दो प्रमुख बिजली वितरण निगमों (डिस्कॉम) – दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम (आगरा) और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम (वाराणसी) का निजीकरण करने जा रही है। योगी सरकार की मंज़ूरी के बाद ऊर्जा विभाग ने यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड को इस योजना को लागू करने के लिए आदेश जारी कर दिया है। यह निर्णय उत्तर प्रदेश के 40 से अधिक ज़िलों को प्रभावित करेगा।

मई दिवस की है ललकार, लड़कर लेंगे सब अधिकार!

आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, सभी ने पूँजीपति वर्ग के पक्ष में मज़दूरों के मेहनत की लूट का रास्ता ही सुगम बनाया है। लेकिन 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद और ख़ास-कर मोदी के सत्तासीन होने के बाद से मज़दूरों पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है। चार नए लेबर कोड के ज़रिये मज़दूरों के 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। विरोध प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को वैध-अवैध तरीक़ा अपनाने की खुली छूट दे दी गयी है। जर्जर ढाँचे और सुरक्षा उपकरणों की कमी के चलते कारख़ाने असमय मृत्यु और अपंगता की जगहों में तब्दील हो गये हैं। हवादार खिड़कियाँ, ऊँची छत, दुर्घटना होने पर त्वरित बचाव के साधन नहीं हैं।

भाजपा देशभर में त्योहारों का इस्तेमाल कर रही है साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने में

रामनवमी समेत तमाम हिन्दू त्योहारों पर संघ परिवार व उसके विभिन्न आनुषंगिक संगठनों की अगुवाई में, प्रशासन की मूक या प्रत्यक्ष सहमति से चलती गाड़ियों या रास्ते में विभिन्न जगह डीजे के ज़रिए बहुत भोंडे और भद्दे मुस्लिम विरोधी गीत बजाये जाते हैं। जानबूझकर मस्जिदों के सामने या मुस्लिम इलाक़ों को टारगेट किया जाता है। मुस्लिमों को उकसाया जाता है कि वो कुछ करें ताकि तोड़-फोड़, आगजनी की स्थिति पैदा की जा सके और पूरे माहौल को साम्प्रदायिक बनाया जा सके। इस बीच जो हिन्दू-पॉप गाने त्योहारों पर रास्ते में या जुलूस में बजाये जा रहे हैं उनमें कुछ गीतों के बोल इस तरह हैं-‘बुलडोज़र में दबकर मर गए जो आस्तीन के साँप रहे हैं, बुलडोज़र बाबा चाँप रहे हैं’, ‘पाकिस्तान में भेजो या क़त्लेआम कर डालो, आस्तीन के साँपों को न दुग्ध पिलाकर पालो’, ‘टोपी वाला भी सर झुकाकर जै श्री राम बोलेगा’, ‘सुन लो मुल्लो पाकिस्तानी, गुस्से में हैं बाबा बर्फानी’, ‘जो छुएगा हिन्दुओं की बस्ती को, मिटा डालेंगे उसकी बस्ती को’ आदि। इस बार रामनवमी के मौक़े पर बंगाल और बिहार के भागलपुर, औरंगाबाद, समस्तीपुर और मुंगेर इलाकों में हुए झड़पों में इस तरह के गानों की एक महती भूमिका रही है। इन मौकों पर इकट्ठी भीड़ का फ़ायदा उठाकर मुस्लिम दुकानों, घरों या मस्जिदों पर जबरिया भगवा झण्डा आदि लगाने से भी उकसाने की कोशिश होती है। जब झड़प होती है तो तुरन्त मीडिया और प्रशासन हिन्दुओं के पक्ष में आ जाता है। मीडिया द्वारा व्यापक आबादी में एकतरफ़ा शोर मचाया जाता है कि हिन्दुओं के जुलूस पर मुस्लिमों ने पत्थर फेंके आदि आदि। उसके बाद फ़र्ज़ी मुक़दमों, बुलडोज़र से घर गिराने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

बरगदवा (गोरखपुर) के मज़दूरों को अतीत के संघर्षों के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं से सीखते हुए नये संघर्षों की नींव रखनी होगी

एकजुटता और यूनियन के अभाव में मज़दूरों में काम छूटने का डर बना रहता है। वास्तव में, फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से खाने-पीने आदि चीज़ों के रेट जिस रफ़्तार से बढ़े हैं उसमें मज़दूरों को अपने परिवार सहित गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है। इसलिए भी कई मज़दूर चाहते हुए भी जोखिम लेने से डरते हैं। लेकिन इस डर से मज़दूरों को मुक्त होकर मालिक की अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा। क्योंकि वैसे भी मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटकती ही रहती है।

मोदी सरकार के अमृतकाल में दलितों का बर्बर उत्पीड़न चरम पर

अल्पसंख्यक, स्त्रियों और दलितों-आदिवासियों के दमन-उत्पीड़न में इस फ़ासीवादी सरकार ने सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। दलितों द्वारा नाम के साथ सिंह आदि टाइटल लगाना, घोड़ी पर चढ़ना, मूँछ रखना, सवर्णों के बर्तन में पानी पी लेना, काम करने से मना करना, बराबरी से व्यवहार करना आदि ही सवर्णों द्वारा दलितों के अपमान और उनके बर्बर उत्पीड़न की वजह बन जा रहा है। दलित लड़कियों से बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या जैसे जघन्य अपराधों में बहुत तेज़ी आयी है। इसी तरह विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में संघ परिवार के बगलबच्चा संगठन एबीवीपी के कार्यकर्ताओं द्वारा दलित प्रोफ़ेसरों के साथ मारपीट, अपमानित करने की कई घटनाएँ सामने आयी हैं।

प्रोजेक्ट पेगासस : पूँजीवादी सत्ता के जनविरोधी निगरानी तंत्र का नया औज़ार

पिछले महीने पूरी दुनिया के राजनीतिक हलक़ों में एक शब्द भ्रमण कर रहा था – पेगासस! ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे के बाद न केवल भारत की संसदीय राजनीति में उथल-पुथल पैदा हो गयी बल्कि विश्व के साम्राज्यवादी सरगनाओं तक इसकी आँच पहुँची। यूँ तो वर्ग समाज के अस्तित्व में आने, राजसत्ता के जन्म के साथ ही शोषक-शासक वर्ग द्वारा अपने हितों के मद्देनज़र विकसित किये गये जननिगरानी तंत्र का एक लम्बा इतिहास है। लेकिन वर्ग समाज की सबसे उन्नत अवस्था यानी पूँजीवाद के या वर्तमान ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के दौर में, सूचना तंत्र की स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर विराट प्रगति ने राजसत्ता के हाथ में अभूतपूर्व औज़ार सौंप दिया है।

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव : एक रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत, जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायतों का चुनाव योगी सरकार द्वारा ऐसे समय में करवाया गया जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर अपने उफान पर थी। इस चुनाव की क़ीमत हज़ारों सरकारी कर्मचारियों और लाखों लोगों ने अपनी ज़िन्दगी गँवाकर चुकायी। कोरोना महामारी के दौरान सरकार के आपराधिक रवैये और पूरी ताक़त झोंक देने के बावजूद भाजपा समर्थित उम्मीदवार पंचायत सदस्यों के चुनाव में सपा समर्थित उम्मीदवारों की तुलना में मामूली अन्तर से दूसरे स्थान पर रहे।

नेशनल पेंशन स्कीम – कर्मचारियों के हक़ों पर डकैती डालने की नयी स्कीम

एनपीएस स्कीम एक अंशदायी स्कीम है जिसमें कर्मचारियों के वेतन से 10% काटा जायेगा और 10% सरकार द्वारा अंशदान के रूप में दिया जायेगा। काटे गये पैसे को शेयर मार्केट में लगाया जायेगा। अगर शेयर मार्केट डूब गया तो कर्मचारियों का पैसा डूब जायेगा, लेकिन सरकार इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेगी। पुरानी पेंशन (गारण्टीड पेंशन स्कीम) में कोई कटौती नहीं होती थी, तथा कर्मचारियों के रिटायर होने पर उस समय के अन्तिम वेतन (मूल वेतन और महँगाई भत्ता) का पचास प्रतिशत पेंशन के रूप में देने का प्रावधान था, लेकिन ‘नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस) में सेवानिवृत्ति पर कुल रक़म जो शेयर मार्केट निर्धारित करेगा, उसका 40% प्रतिशत सरकार आयकर के रूप में कटौती कर लेगी।

गीता प्रेस – धार्मिक सदाचार व अध्यात्म की आड़ में मेहनत की लूट के ख़ि‍लाफ़ मज़दूर संघर्ष की राह पर

धर्म बहुत लम्बे समय से अनैतिकता, अपराध, लूट व शोषण की आड़ बनता रहा है। परन्तु मौजूदा समय में गलाजत, सड़ान्ध इतने घृणास्पद स्तर पर पहुँच चुकी है कि धर्म की आड़ से गन्दगी पके फोड़े की पीप की तरह बाहर आ रही है। आसाराम, रामपाल जैसे इसके कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। इसी कड़ी में धर्म और अध्यात्म की रोशनी में मज़दूरों की मेहनत की निर्लज्ज लूट का ताज़ा उदाहरण गीता प्रेस, गोरखपुर है। कहने को तो गीता प्रेस से छपी किताबें धार्मिक सदाचार, नैतिकता, मानवता आदि की बातें करती हैं, लेकिन गीता-प्रेस में हड्डियाँ गलाने वाले मज़दूरों का ख़ून निचोड़कर सिक्का ढालने के काम में गीता प्रेस के प्रबन्धन ने सारे सदाचार, नैतिकता और मानवता की धज्जियाँ उड़ाकर रख दिया है। संविधान और श्रम कानून भी जो हक मज़दूरों को देते हैं वह भी गीता प्रेस के मज़दूरों को हासिल नहीं है! क्या इत्तेफ़ाक है कि गीता का जाप करनेवाली मोदी सरकार भी सारे श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलने में लगी है। इसी माह प्रबन्धन के अनाचार, शोषण को सहते-सहते जब मज़दूरों का धैर्य जवाब दे गया तो उनका असन्तोष फूटकर सड़कों पर आ गया।