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गीता प्रेस – धार्मिक सदाचार व अध्यात्म की आड़ में मेहनत की लूट के ख़िलाफ़ मज़दूर संघर्ष की राह पर
प्रसेन
धर्म बहुत लम्बे समय से अनैतिकता, अपराध, लूट व शोषण की आड़ बनता रहा है। परन्तु मौजूदा समय में गलाजत, सड़ान्ध इतने घृणास्पद स्तर पर पहुँच चुकी है कि धर्म की आड़ से गन्दगी पके फोड़े की पीप की तरह बाहर आ रही है। आसाराम, रामपाल जैसे इसके कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। इसी कड़ी में धर्म और अध्यात्म की रोशनी में मज़दूरों की मेहनत की निर्लज्ज लूट का ताज़ा उदाहरण गीता प्रेस, गोरखपुर है। कहने को तो गीता प्रेस से छपी किताबें धार्मिक सदाचार, नैतिकता, मानवता आदि की बातें करती हैं, लेकिन गीता-प्रेस में हड्डियाँ गलाने वाले मज़दूरों का ख़ून निचोड़कर सिक्का ढालने के काम में गीता प्रेस के प्रबन्धन ने सारे सदाचार, नैतिकता और मानवता की धज्जियाँ उड़ाकर रख दिया है। संविधान और श्रम कानून भी जो हक मज़दूरों को देते हैं वह भी गीता प्रेस के मज़दूरों को हासिल नहीं है! क्या इत्तेफ़ाक है कि गीता का जाप करनेवाली मोदी सरकार भी सारे श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलने में लगी है। इसी माह प्रबन्धन के अनाचार, शोषण को सहते-सहते जब मज़दूरों का धैर्य जवाब दे गया तो उनका असन्तोष फूटकर सड़कों पर आ गया।
‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यकर्ताओं को गीता प्रेस के मज़दूरों ने बताया कि गीता प्रेस में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 500 हैं। जिनमें 185 नियमित परमानेण्ट हैं और लगभग 315 ठेका और कैजुअल पर काम करते हैं। मज़दूर प्रबन्धन से लम्बे समय से माँग कर रहे थे कि शासनादेश दिनांक 24-12-06 जारी होने के बाद न्यूनतम मज़दूरी से अधिक पाने वाले मज़दूरों के मूल वेतन का निर्धारण शासनादेश के पैरा-6 के अन्तर्गत किया जाये। प्रदेश सरकार द्वारा स्पष्ट रूप से आदेश किया गया है कि शासनादेश जारी होने के पूर्व यदि किसी कर्मचारी का वेतन न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन से अधिक है, तो इसे जारी रखा जायेगा तथा इसे उक्त न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के अन्तर्गत न्यूनतम मज़दूरी माना जायेगा।
लेकिन गीता प्रेस के प्रबन्धन द्वारा सभी कर्मचारियों के मूल वेतन को दो भागों में बाँटकर – एक भाग सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल वेतन तथा दूसरे भाग में न्यूनतम से अधिक वेतन को एडहाक वेतन के अन्तर्गत रखा गया और इस एडहाक मूल वेतन पर कोई महँगाई भत्ता नहीं दिया जाता। किसी भी न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन शासनादेश में एडहाक वेतन निर्धारण नहीं है। गीता प्रेस द्वारा मूल वेतन पर महँगाई भत्ता न देना पड़े इससे बचने के लिए मूल वेतन के हिस्से में कटौती करके कुछ भाग एडहाक में शामिल कर दिया गया। गीता प्रेस का प्रबन्धन शासनादेश का सीधा उल्लंघन कर रहा है।
जबकि गीता प्रेस, गोरखपुर की अनुषंगी शाखा ऋषिकेश स्थित गीता भवन में उत्तरांचल सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से अधिक सुविधा वहाँ के कर्मचारियों को दी जाती है जिसमें – 1000 रुपये आवास भत्ता, 10 प्रतिशत वार्षिक वेतन वृद्धि और 100 रुपये स्पेशल वार्षिक वेतन वृद्धि शामिल है। गीता प्रेस के मज़दूरों का कहना था कि हमारे साथ यह धोखाधड़ी क्यों की जा रही है। यह हमारा हक है और हमारी माँग है कि हमारा हक हमें मिले।
गीता प्रेस के मज़दूरों की दूसरी माँग थी कि सभी कर्मचारियों को समान सवेतन 30 अवकाश दिया जाये, क्योंकि अभी असमान तरीव़फ़े से साल में किसी को 21 तो किसी को 27 सवेतन अवकाश दिया जाता है जो अनुचित है। मज़दूरों की तीसरी माँग थी कि हाथ मशीनों में दबने, कटने और डस्ट आदि से बचने के लिए ज़रूरी उपकरण हमें मुहैया कराये जायें।
गीता प्रेस में लगभग 315 मज़दूर ठेके और कैजुअल पर काम करते हैं। इनकी कोई ईएसआई की कटौती नहीं की जाती। इनको 4500 रुपये वेतन देकर सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी 8000 रुपये पर हस्ताक्षर कराया जाता है। धर्म के नाम पर मज़दूरों की लूट का इससे बेहतर उदाहरण भला और क्या हो सकता है कि “सेवा भाव” के नाम पर इनसे एक घण्टे बिना मज़दूरी दिये काम लिया जाता है। उक्त ठेके का काम गीता प्रेस परिसर में तथा प्रेस से बाहर सामने रामायण भवन तथा भागवत भवन नाम के बिल्डिंग में कराया जाता है। इन्हें वेतन की पर्ची या रसीद तक नहीं दी जाती। इस सन्दर्भ में इनकी माँग थी कि ठेके व कैजुअल पर काम करने वाले सभी मज़दूरों को परमानेण्ट किया जाये। परमानेण्ट होने की अवधि से पहले ठेका कानून 1971 के मुताबिक उनको समान काम के लिए समान वेतन, डबल रेट से ओवरटाइम, पीएफ़, ईएसआई, ग्रेच्युटी आदि सभी सुविधाएँ मुहैया करायी जायें। ठेका मज़दूरों को वेतन-स्लिप या रसीद तक नहीं दी जाती, वो उन्हें मुहैया करायी जाये।
न्यूनतम वेतन विवाद को प्रशासनिक स्तर पर सुलझाने की गीता प्रेस के मज़दूरों ने पूरी कोशिश की। मज़दूरों ने जिलाधिकारी के पास शिकायती प्रार्थनापत्र भेजा तो जिलाधिकारी ने डीएलसी को इस मामले के निस्तारण का आदेश दिया। परन्तु जब उपश्रमायुक्त के समक्ष वार्ता शुरू हुई तो पहले ही उपश्रमायुक्त ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिये कि उनका काम समझौता कराना है शासनादेश लागू करवाना नहीं, इसके लिए वे कोर्ट जायें। जबकि हाईकोर्ट द्वारा मज़दूरों के पक्ष में 23-12-2010 को निर्णय सुनाया जा चुका है। ज़ाहिर है कि इस मामले में उपश्रमायुक्त व गीता प्रेस के प्रबन्धन की मिलीभगत है। वैसे भी श्रमविभाग मालिकों व प्रबन्धकों की जेब में रहता है, यह बात तो जगज़ाहिर है।
मज़दूरों ने प्रबन्धन स्तर पर मामला सुलझा लेने की बहुतेरी कोशिशें कीं कि क्या पता प्रबन्धन को नैतिकता व सदाचार की बात याद आ जाये। कोई नतीजा न निकलने पर आन्दोलन की शुरूआत हुई। 3 दिसम्बर को सांकेतिक प्रदर्शन किया। जिस के बाद प्रबन्धन बात करने को राजी हुआ। लेकिन प्रबन्धन बहुत घटिया किस्म के ब्लैकमेल पर उतारू हो गया। प्रबन्धन ने किसी तरह की बात के लिए यह शर्त रखी कि पहले मज़दूर 1992 वाले मुकदमे के सन्दर्भ में कोर्ट में जाकर यह कहें कि इससे हमारा कोई वास्ता नहीं। और भविष्य में किसी भी तरह की माँग लेकर कोर्ट नहीं जायेंगे। ज़ाहिर है प्रबन्धन निर्बाध लूट की आज़ादी चाहता है। आन्दोलन जब ज़ोर पकड़ रहा है तो प्रबन्धन साम-दाम-दण्ड-भेद सबका इस्तेमाल करने में लग गया है। सारे ठेका मज़दूरों को प्रबन्धन धमका रहा है कि अगर वह आन्दोलन में शामिल हुए तो उनको निकाल बाहर कर दिया जायेगा। इसके पहले दो मज़दूरों चन्द्रशेखर ओझा, स्वामी नाथ गुप्ता को बाहर किया जा चुका है। परन्तु ठेका मज़दूर प्रबन्धन की धमकी को धता बताकर पूरी तरह से आन्दोलन में शामिल हो गये हैं।
मज़दूरों ने बताया कि कहने को तो गीता प्रेस नो प्रॉफिट-नो लॉस पर चलता है, परन्तु वास्तव में हम लोगों की मेहनत को लूट-लूटकर प्रबन्धन करोड़ो-अरबों की सम्पत्ति खड़ा कर रहा है। गीता प्रेस के सेवायोजक शासनादेश का पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसमें कुछ-न-कुछ कमी निकालकर कोर्ट में रिट दाखि़ल करते रहे हैं, जिस कारण मज़दूरों के वेतन-भत्ता के एरियर के रूप में बकाया करोड़ों रुपये की रकम को गीता प्रेस के ट्रस्टीगणों ने अपने निजी व्यवसाय में लगा रखा है। इसलिए मज़दूरों की माँग न मानने के लिए ये अड़े हैं। मज़दूर भी अब उत्तर प्रदेश सरकार से माँग कर रहे हैं कि करोड़ों रुपये बकाये वेतनभत्ते की वसूली सरकार इन ट्रस्टीगणों से करके हर मज़दूर का भुगतान करे तथा इस ट्रस्ट बोर्ड को सरकार भंग कर इसे अपने हाथ में लेकर यहाँ रिसीवर बैठाये और ट्रस्ट बोर्ड का संचालन जिलाधिकारी के संरक्षण में हो।
गीता प्रेस की किताबें सस्ती होने का कारण यह है कि धर्म के नाम पर गीता प्रेस को टैक्स में भारी छूट मिलती है। दूसरे धर्म के नाम पर बहुत सारे धनकुबेर बहुत बड़ी मात्रा में दान और चढ़ावा चढ़ाते रहते हैं। वहीं दैनन्दिनी, पंचांग पोस्टर आदि की पूरे देश में और विदेशों में लाखों की संख्या में बिक्री होती है जिससे करोड़़ों रुपये की आय होती है। यह भी टैक्स की सीमा से बाहर है।
बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं ने गीता प्रेस के मज़दूरों के आन्दोलन को तत्काल सक्रिय समर्थन दिया। मज़दूरों की सभा में बिगुल के कार्यकर्ताओं ने सुझाव दिया कि इस मसले को गोरखपुर शहर के नागरिकों के बीच भी ले जाया जाये। मज़दूरों की आम सहमति से प्रकाशित पर्चे को मज़दूरों के साथ ही शहर में व्यापक रूप से बाँटा जा रहा है। बिगुल मज़दूर दस्ता ने गीता प्रेस के मज़दूरों के सामने यह प्रस्ताव भी रखा कि गोरखपुर शहर के सभी प्रिंटिंग मज़दूरों की पेशागत यूनियन बनाने की तरफ़ बढ़ा जाये क्योंकि इसके बग़ैर वे आने वाले दिनों में मज़दूरों के हकों पर होने वाले हमलों से ख़ुद को बचा पाने में सक्षम नहीं होंगे।
आन्दोलन शुरू होते ही गीता प्रेस का “सदाचारी”, “आध्यात्मिक” प्रबन्धन अब अपना रामनामी दुपट्टा उतारकर असली रूप में सामने आ गया है। ठेका मज़दूरों को परमानेण्ट मज़दूरों की लड़ाई से अलग करने के लिए ठेका मज़दूरों को धमकाने की चाल जब काम न आयी तो उसने 6 अगुवा मज़दूरों में से 4 को बाहर निकालने की नोटिस लगा दिया। प्रबन्धन की इस गीदड़ भभकी के पीछे दरअसल उसका यह डर काम कर रहा था कि मज़दूर काम पर आने और जाने के समय तथा लंच के समय गीता प्रेस के प्रबन्धन व धर्म के नाम पर धन्धे के खि़लाफ़ जो नारा लगाते हैं, उससे जनता के बीच गीता प्रेस की पोलपट्टी खुल जायेगी। प्रबन्धन को यह उम्मीद थी कि सम्भवतः इससे मज़दूर डर जायेंगे, लेकिन नोटिस देखने के बाद मज़दूरों ने काम छोड़कर प्रबन्धक को घेर लिया। फिर प्रबन्धन ने पलटी मारते हुए मज़दूरों से कहा कि नोटिस से नाम वापस ले लिया जायेगा, लेकिन मज़दूर आने-जाने और लंच के समय प्रबन्धन के खि़लाफ़ नारे लगाना बन्द कर दें। लेकिन मज़दूर जब काम से छूटे तो उन्होंने रोज़ाना से ज़्यादा ज़ोरदार तरीके से और आस-पास के मार्किट में घूमकर प्रबन्धन के खि़लाप़फ़ नारे लगाये तथा बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा और गीता प्रेस के अगुवा मज़दूरों की अगुवाई में जुलूस निकाला। जुलूस के दौरान धर्म के नाम पर धन्धा बन्द हो, मज़दूरों का शोषण बन्द हो, मज़दूरों की मेहनत की कमाई से व्यवसाय करना बन्द करो, ख़ून-पसीने की कमाई हमें चाहिए पाई-पाई, श्रम कानूनों को लागू करो, इन्कलाब जिन्दाबाद आदि नारे लगाये जा रहे थे। जुलूस के बाद गीता प्रेस के पास ही सभा हुई जिसमें गीता प्रेस के मज़दूरों की तरप़फ़ से मुनीश्वर मिश्र ने बात रखी कि प्रबन्धन का अनाचारी चेहरा एकदम नंगा हो चुका है और गीता प्रेस के मज़दूर इस लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाने की ठान चुके हैं। बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से प्रसेन व नौजवान भारत सभा की ओर से अंगद ने कहा कि हमें अपने संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने के लिए इस आन्दोलन को और व्यापक तथा जुझारू बनाना होगा क्योंकि गीता प्रेस के मज़दूरों के आन्दोलन की ख़बर ज्यों-ज्यों फैल रही है तो धर्म के नाम पर व्यवसाय करनेवाले, तमाम धार्मिक पाखण्डियों और उनके सरपरस्तों की बौखलाहट बढ़ गयी है। फेसबुक पर नौजवान भारत सभा के पेज पर गाली-गलौच भरे पोस्ट इसका एक प्रमाण हैं। मज़दूरों के आन्दोलन को बदनाम करने के लिए कल को प्रबन्धन लोगों की धार्मिक आस्था का इस्तेमाल करेंगे कि गीता प्रेस धर्म-अध्यात्म का काम करती है, और गीता प्रेस के मज़दूरों को कोई बाहर वाला संगठन उकसा रहा है आदि-आदि। प्रबन्धन ने इसका भी संकेत दे दिया है, क्योंकि जिन मज़दूरों के नाम नोटिस लगे थे उनके बारे में प्रबन्धन कुतर्क कर रहा था कि ये मज़दूरों को गीता प्रेस के खि़लाफ़ भड़का रहे हैं। हालाँकि मज़दूरों ने प्रबन्धकों को घेर लिया और कहा कि उनको किसी ने भड़काया नहीं है, बल्कि प्रबन्धन के लूट और शोषण के खि़लाफ़ वे ख़ुद आन्दोलन पर उतरे हैं।
नागरिकों के नाम मज़दूरों की अपील
15 दिसम्बर को गीता प्रेस के सैकड़ों मज़दूर एक विशाल जुलूस निकालते हुए जिलाधिकारी कार्यालय ज्ञापन देने पहुँचे। यह जुलूस गीता प्रेस से रेती चौक, घोष कम्पनी चौराहा, सदर हास्पिटल, टाउन हाल चौराहा, कचहरी चौराहा होते हुए जिलाधिकारी कार्यालय पहुँचा। पूरे जुलूस के दौरान हज़ारों पर्चे बाँटे गये। ये पर्चा गीता प्रेस के मज़दूरों ने गीता प्रेस के प्रबन्धकों द्वारा धर्म के नाम पर मज़दूरों की लूट का भण्डाफोड़ करते हुए गोरखपुर के नागरिकों को मज़दूरों के हक की लड़ाई में सक्रिय समर्थन देने की अपील के रूप में निकाला था।
जिलाधिकारी कार्यालय पर यह जुलूस सभा में बदल गया। सभा में बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ता प्रसेन और अंगद ने बात रखी। बिगुल मज़दूर दस्ता के आह्वान पर बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र से लक्ष्मी साइकिल रिम प्राइवेट लिमिटेड के मज़दूर भी जुलूस में शामिल हुए। इस कारखाने की ‘इंजीनियरिंग वर्कर्स यूनियन’ की तरफ से साथी रामाशीष ने बात रखी। बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओ ने बोल मजूरे हल्ला बोल गीत प्रस्तुत किया। ज्ञापन देने के बाद मज़दूरों का जुलूस गोलघर, चेतना तिराहा, विजय चौराहा, बैंक रोड, बख्शीपरु, साहबगंज मण्डी होते हुए पुनः गीता प्रेस पहुंचा। गीता प्रेस परिसर में पुनः सभा हुई । सभा में गीता प्रेस के मज़दूरों की तरफ से मुनीवर मिश्र, वीरेन्द्रसिंह ने बात रखी। माधयमिक शिक्षक संघ की तरफ से मार्कण्डेय सिंह तथा बिगुल मज़दूर दस्ता की तरफ से अंगद ने बात रखी। अंगद ने कहा कि एक तरफ भाजपा के नेता गीता को लेकर साम्प्रदायिक राजनीति कर रहे हैं दूसरी ओर मोदी श्रम कानूनों में सुधार ला रहे हैं ताकि पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने में आसानी हो। उसी तरह गीता प्रेस का प्रबन्धन धर्म का हवाला देकर मज़दूरों की मेहनत को लूटकर अरबपति बन रहा है। पूरे देश में जो स्थितियाँ बन रही हैं उनको देखते हुए मज़दूरों को पेशागत यूनियन बनाने की दिशा में पहल करनी होगी। गीता प्रेस के मज़दूरों को भी गोरखपुर के प्रिण्टिंग मज़दूरों की पेशागत यूनियन बनाने की दिशा में पहल लेनी होगी। तभी वे लम्बे दौर में अपने हकों को सुरक्षित करने में सफल हो पायेंगे। आज के जुलूस के बाद बौखलाया प्रबन्धन ठेका मज़दूरों पर कोई कार्रवाई कर सकता है। ऐसी स्थिति में परमानेण्ट मज़दूरों को आगे बढ़कर ठेका मज़दूरों का साथ देना होगा।
छपते-छपते
15 दिसम्बर के प्रदर्शन के अगले ही दिन गीता प्रेस के प्रबन्धन ने बिना किसी घोषणा के प्रेस में तालाबन्दी कर दी और प्रशासन की ओर से वहाँ भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया। साफ है कि प्रबन्धन में बैठे गोरखपुर शहर के तमाम व्यापारी और उद्योगपति मज़दूरों की कोई भी जायज़ माँग मानने के बजाय उन्हें झुकाकर और डरा-धमकाकर आन्दोलन तोड़ने का हथकण्डा आज़मायेंगे। लेकिन मज़दूर आर-पार की लड़ाई लड़ने और धर्म के नाम पर लूट के कारोबार का भण्डाफोड करने के लिए कमर कसकर तैयार हैं।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन