Category Archives: संघर्षरत जनता

फ़ासिस्ट दमन के गहराते अँधेरे में चंद बातें जो शायद आपको भी ज़रूरी लगें

आज के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी-शाह की फ़ासिस्ट सत्ता किसी भी जुझारू जन-उभार की संभावना से थरथर काँप रही है। इसीलिए, देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी जनांदोलन को कुचलने के लिए वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों की पूरी ताक़त झोंक दे रही है, जेनुइन जनांदोलनों के नेताओं पर आतंकवाद और देशद्रोह आदि की धाराएँ लगाकर फर्जी मुकदमे ठोंक रही है और उनके ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। लेकिन जैसाकि हमेशा होता है, किसी भी सत्ता का जनता से भय जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह उतना ही नग्न-निरंकुश दमनकारी होती जाती है। जनता को डराने की एक हद जब पार हो जाती है तो फिर जनता धीरे-धीरे डरना बंद कर देती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि जीना मुहाल होने पर और अपने सारे अधिकारों के छिनते जाने पर जनता सड़कों पर उतरती ही है। शुरूआती दौरों में सत्ता के दमन और आतंक के प्रभाव से वह दब और बिखर जाती है। लेकिन शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह फिर -फिर सड़कों पर उतरती है। फिर सत्ता तंत्र का दमन भी बढ़ता जाता है और फिर ऐसा दौर आता है कि जनता डरना बंद कर देती है। सभी आततायी शासक उसी दिन के बारे में सोचकर भयाक्रांत हो जाते हैं।

नगर निगम गुड़गाँव के ठेका ड्राइवरों को हड़ताल की बदौलत आंशिक जीत हासिल हुई

वेतन और पी.एफ. के भुगतान न होने के चलते न सिर्फ़ ठेका ड्राइवर बल्कि ठेके पर काम करने वाले सफ़ाई, सिक्योरिटी गार्ड, मैकेनिक सभी हड़ताल में शामिल हुए थे। वैसे तो इस इकोग्रीन कम्पनी द्वारा ठेके पर कार्यरत मज़दूरों के श्रम कानूनों के सभी अधिकारों की जिस तरह से खुलेआम धज्जियाँ नगर निगम गुड़गाव की नाक के नीचे उड़ाई जा रहीं है। ज़ाहिर है, यह बिना प्रशासन, सरकार और ठेकेदार की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। इसके लिए ठेका ड्राइवरों को इस सच्चाई को समझना होगा और आने वाले दिनों में इसके लिए कमर कसनी होगी। साथ ही विभिन्न सेक्टर के मज़दूरों के साथ इस मुद्दे पर एकता बढ़ाकर आगे बढ़ना होगा।

भीषण आर्थिक व राजनीतिक संकट से जूझता बंगलादेश लेकिन क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में शासक वर्ग का दबदबा क़ायम

आने वाले दिनों में बंगलादेश में आर्थिक संकट और गहराने ही वाला है क्योंकि चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है और भुगतान सन्तुलन की हालत खस्ता है। पूँजीपतियों द्वारा क़र्ज़ों की अदायगी न करने की सूरत में बैंकिंग क्षेत्र का संकट भी और बढ़ने वाला ही है। विश्व बाज़ार में उछाल की सम्भावना कम होने की वजह से निर्यात पर टिकी अर्थव्यवस्था के सामने संकट से उबरने की वस्तुगत सीमाएँ हैं। ऐसे में लोगों के जीवन में बेहतरी और उनकी आमदनी बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं दिखती है। इस गहराते आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति राजनीतिक संकट के गहराने के रूप में सामने आयेगी क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए और जन आक्रोश को कुचलने के लिए शेख़ हसीना की अवामी लीग सरकार का दमनतंत्र ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होता जायेगा।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा (दूसरा चरण : 10 दिसम्बर से 3 मार्च) – एक संक्षिप्त रिपोर्ट

जनता के बीच सरकार की नीतियों के खिलाफ़ भयंकर असन्तोष और गुस्सा है। भाजपा के पक्ष में आज 15 से 20 फ़ीसदी वही आबादी बोल रही है जिसका फ़ासीवादियों ने व्यवस्थित रूप से साम्प्रदायीकरण किया है बाक़ी एक बड़ी आबादी वो है जो इनकी असलियत से वाकिफ़ हो चुकी है और इसलिए ही इस बार 2024 के चुनाव से पहले ये बेहद की आक्रामक तरीके से हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद का खेल खेल रहे हैं। महँगाई और बेरोज़गारी के मुद्दे पर फ़ेल मोदी सरकार अब आम जनता को बता रही है कि यह सब तो ईश्वर का प्रकोप है, रामलला आयेंगे और सब ठीक हो जाएगा!

गुड़गाँव नगर निगम के ठेका ड्राइवर व अन्य मज़दूर अपनी माँगों के लेकर संघर्ष की राह पर!

गुड़गाँव नगर निगम के ड्राइवर ठेका कम्पनी इकोग्रीन एनर्जी गुड़गाँव-फ़रीदाबाद प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी के तहत कई सालों से कार्यरत हैं, जिन्हें पिछले चार महीने से वेतन न मिलने की वजह से हड़ताल पर जाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। लम्बे समय बर्दाश्त करने के बाद, कमरे का किराया, राशन का ख़र्चा, उनके बच्चों स्कूल की फ़ीस न दे पाने व दवा-इलाज की समस्याएँ बहुत बढ़ जाने के बाद मज़दूरों को हड़ताल का रास्ता चुनना पड़ा।

‘एस्मा’ को तत्काल वापस लो! आँगनवाड़ीकर्मियों की माँगों को पूरा करो!!

क़ानूनन तो यह केवल सरकारी कर्मचारियों पर ही लगाया जा सकता है और आँगनवाड़ीकर्मियों को तो सरकार कर्मचारी मानती नहीं है फिर उनपर इसका इस्तेमाल क्या दिखलाता है!? और अगर आँगनवाड़ीकर्मियों द्वारा दी जा रहीं सेवाएँ आवश्यक सेवाएँ हैं, तो फिर उन्हें कर्मचारी का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा??

गुड़गाँव से लेकर धारूहेड़ा तक की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों के जीवन और संघर्ष के हालात

समूचे ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को संगठित कर ऑटो सेक्टर के पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकार के सामने कोई भी वास्तविक चुनौती देना तभी सम्भव है जब अनौपचारिक व असंगठित मज़दूरों को समूचे सेक्टर की एक यूनियन में एकजुट और संगठित किया जाय, उनके बीच से तमाम अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों को किनारे किया जाय जो लम्बे समय से उन्हें संगठित होने से वास्तव में रोक रहे हैं; और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के समझौतापरस्त और दाँत व नाखून खो चुके नेतृत्व से अलगकर उस सेक्टरगत यूनियन से जोड़ा जाये। इन दोनों ही कार्यभारों को पूरा करना आज ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को जुझारू रूप से संगठित करने के लिए अनिवार्य है।

हर मुक्तिकामी, न्यायप्रिय और प्यार से लबरेज़ दिल के अन्दर धड़कता है गाज़ा!

1948 में ब्रिटेन के सहारे ज़ायनवादी इज़रायल ने जिस तरह निहत्थे और बेगुनाह फ़िलिस्तीनियों को बन्दूक की नोक पर उनके घरों और ज़मीन से बेदखल कर दिया था और उनकी 78 प्रतिशत ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था आज उसकी तुलना इज़रायल द्वारा गाज़ा और वेस्ट बैंक पर हमले से की जा रही है। 1948 में बर्बरता की सारी सीमाओं को पार करते हुए इज़रायल ने आधिकारिक आकलन के अनुसार 15,000 फ़िलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया था, हालाँकि वास्तविक संख्या इससे दोगुनी या यहाँ तक कि तीन-गुनी हो सकती है। साथ ही, करीब 7 लाख फ़िलिस्तीनियों को, जो उस समय फ़िलिस्तीन की अरब आबादी का 80 फ़ीसदी थे, उनके घरों से बेदख़ल कर दिया गया और उनके ही देश में और आस-पास के देशों में शरणार्थी बना दिया गया। फ़िलिस्तीनियों के पास उनके देश का मात्र 22 प्रतिशत भू-भाग रह गया जो गाज़ा और वेस्ट बैंक का हिस्सा है। और आज वास्तव में ये दोनों क्षेत्र भी इज़रायल के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियन्त्रण या घेरेबन्दी में हैं।

बंगलादेश में हज़ारों कपड़ा मज़दूरों की जुझारू हड़ताल

दुनिया की सारी बड़ी गारमेण्ट कम्पनियों का अधिकतम माल यहाँ तैयार होता है, जिसके लिए मज़दूर 18-18 घण्टे तक खटते हैं। इन कारखानों में साधारण दस्तानों और जूते तक नहीं दिये जाते और केमिकल वाले काम भी मज़दूर नंगे हाथों से ही करते हैं। फैक्टरियों में हवा की निकासी तक के लिए कोई उपकरण नहीं लगाये जाते, जिस वजह से हमेशा धूल-मिट्टी और उत्पादों की तेज़ गन्ध के बीच मज़दूर काम करते हैं। जवानी में ही मज़दूरों को बूढ़ा बना दिया जाता है और दस-बीस साल काम करने के बाद ज़्यादातर मज़दूर ऐसे मिलेंगे जिन्हें फेफड़ों से लेकर चमड़े की कोई न कोई बीमारी होती है। आज बंगलादेश के जिस तेज़ विकास की चर्चा होती है, वह इन्हीं मज़दूरों के बर्बर और नंगे शोषण पर टिका हुआ है। बंगलादेशी सरकार और उनकी प्रधानमन्त्री शेख हसीना ने भी इस हड़ताल पर सीधा दमन का रुख अपनाया है। आख़िर उसे भी अपने पूँजीपति आक़ाओं की सेवा करनी है।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में और हत्यारे इज़रायली ज़ायनवादियों के ख़िलाफ़ देशभर में विरोध प्रदर्शनों को कुचलने में लगी फ़ासीवादी मोदी सरकार

भारत इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है। वहीं दोनो के खुफिया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। ज्ञात हो कि जासूसी उपकरण पेगासस भारत को देने वाला देश इज़रायल ही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें। वहीं फ़िलिस्तीन मसले पर इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक क़ब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह “शान्ति” की अपीलों और ‘दो राज्यों के समाधान’ की अपीलोंमें ज़्यादा तब्दील होने लगा। अभी भी औपचारिक तौर पर तो भारत फ़िलिस्तीन का समर्थन करता है, पर वह सिर्फ़ नाम के लिए ही है।